मनुष्य अपना उत्तरदायित्व समझे और निबाहें

May 1970

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संसार में समस्याओं की कमी नहीं। आये दिन पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, राजनीतिक, आर्थिक एवं औद्योगिक समस्यायें सामने आती ही रहती हैं। कभी-कभी अकाल, आधि-व्याधि, महामारी की भयानक समस्या मनुष्य का मस्तिष्क मथित कर डालती है। नित्य नई समस्याओं का समाधान खोजते रहने वाला मनुष्य यदि आज अपने जीवन की सफलता, असफलता, स्वार्थता अथवा व्यर्थता के विषय में सोच-समझ नहीं पा रहा है तो इसे कम दुर्भाग्य की बात नहीं कहा जा सकता। संसार का आश्चर्यजनक काया-कल्प कर देने वाला यह त्वष्टा यदि आज स्वयं का निर्माता नहीं बन पा रहा है तो यह न केवल आश्चर्य, अपितु खेद एवं चिन्ता का महत्वपूर्ण विषय है। धरती पर प्रकृति-प्रदत्त साधनों के साथ मनुष्य ने और न जाने कितनी सुविधायें तथा सुखदायक उपादान स्वयं उत्पन्न कर लिये हैं और उनका एक छत्र अधिपति भी बना हुआ है, तथापि वह दुःखी, असन्तुष्ट तथा संत्रस्त ही बना रहे तो इस विपर्य के लिये क्या कहा जाये? इस प्रकार की विपरीत स्थिति को देखकर यही सोचना पड़ता है कि अवश्य ही मनुष्य कोई ऐसी गतिविधि अपना रहा है जिससे वह सर्व-सम्पन्न होते हुए भी विपन्नावस्था की यातना भोग रहा है। निश्चय ही वह वाँछित मार्ग और अपेक्षित गतिविधियों को त्याग कर विपरीत-पथ तथा अवाँछित गतिविधियाँ अपना रहा है जिनका परिणाम इसके सिवाय और कुछ होना ही नहीं। अन्यथा जो मार्ग सुख-स्वर्ग की ओर जाता हो, जिसका विस्तार शान्ति एवं सम्पन्नता की दिशा में हो उस पर कुश-कंटक, कंकड़-पत्थर और झाड़-झंखाड़ों का क्या मतलब? इस समस्या, इस प्रश्न और इस अनहोनी का कारण-निवारण खोजना ही होगा। मनुष्य को इस अशोभनीय स्थिति से निकल कर अपने व्यक्तित्व के अनुरूप ही स्वरूप प्राप्त करना ही होगा।

जब कोई अपने पद, व्यक्तित्व, स्वरूप, शक्ति एवं उत्तरदायित्व की अनुरूपता से च्युत हो जाता अथवा उसको विस्मरण कर बैठता है तब अवश्य ही उसकी गति-विधि अस्त-व्यस्त एवं अव्यवस्थित होकर इसी प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती है। इसीलिए ही तो अपनी अनुरूपता को स्मरण रखना एक आवश्यक कर्तव्य बतलाया गया है।

किसी की शक्ति एवं स्वरूप का मूल्याँकन उसके कर्तव्य से और उन्हीं कर्तव्यों से ही उसका पद एवं उत्तरदायित्व निर्धारित किया जाता है। आवश्यक है कि मनुष्य अपनी शक्ति एवं स्वरूप का स्मरण करे जिससे अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति उसकी आँखें खुलें, उसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो, और यह देख समझ कर, उस आत्मग्लानि का उदय हो जो हर निकृष्टता, मलीनता, एवं विरूपताओं को जल्दी ही बदल डालने का क्रियात्मक संकल्प अस्वप्निल कर देती है, कि मुझे किस उन्नत एवं उदात्त स्थिति में होना चाहिये किन्तु मैं किस अधोगति में पड़ा सड़ रहा हूँ!

कल्पना कीजिये संसार के उस आदिम स्वरूप की-जब यह धरती ऊबड़-खाबड़, सर्वत्र नहर, नालों, खड्ड-खंदकों, पर्वतों-गुफाओं, बीहड़ों-जंगलों तथा असमतलताओं से भरी रही होगी। कहीं दलदल, कहीं ज्वालामुखियाँ, कहीं उत्स तो कहीं दावाग्नि अपनी भयंकरता का प्रतिपादन कर रही होगी। संत्रस्त जीव-जन्तु न जाने किस प्रकार और कहाँ शरण लेकर जीवन यात्रा चलाते होंगे! चारों ओर सुनसान, साँय-साँय तथा भय एवं भयानकता का अटल राज्य रहता होगा। इस अनादि विश्व के आदि काल में क्या कभी कहीं पर सुन्दरता अथवा अनुकूलता के दर्शन होते होंगे और यदि अकलात्मक, अपरिमार्जित अथवा अनबूझ आकर्षण की सम्भावना भी रही होगी तो भय एवं सबलों के आतंक के कारण क्या मनुष्य और क्या मनुष्येत्तर प्राणी, कोई भी उसका रस-स्वाद न कर पाते होंगे। नहीं, कदापि नहीं, उस समय प्रत्येक प्राणी भय एवं भूख की भयंकरता से भरे जीवन में मृत्यु की अनुभूति करता रहता होगा।

उस आदिम संसार को आज जैसी स्थिति में लाने का सारा श्रेय मनुष्य को ही है। आज जो हम विशाल भूक्षेत्र पर खेती, बड़े-बड़े उद्योग, पशुशालायें, स्थापत्य, भोजन-वस्त्र, धन, परिवार, समाज, शासन धर्म, कर्त्तव्य, नीति, सदाचार, न्याय, वाणी, विद्या, कला-कौशल, साहित्य, प्रकाशन, मुद्रण आदि की सुविधायें तथा व्यवस्था देख रहे हैं, ये सब मनुष्य की ही बुद्धि तथा प्रयत्न का परिणाम हैं! यदि ब्रह्माण्ड के किसी कोने से आज उस आदिम युग का कोई मनुष्य आ सकता तो वह अपने वंशजों का यह चमत्कारी विकास देखकर चकित हो जाता, और सड़क, सवारियाँ, जहाज आदि को देखकर यह सोचने लगता कि एक दिन जिस धरातल पर खाई-खड्डा, रेत, बालू, लावा आदि के कारण चलना और पैर रखना तक असम्भव सा रहता था, उसी धरातल का ऐसा सुधार, संशोधन तथा परिष्कार!

निस्सन्देह आज के विज्ञान-भूत एवं ज्ञान-जन्य चिकित्सा, रसायन, संगीत, शिल्प, तार, टेलीफोन, रेडियो आदि के आविष्कार सिद्ध करते हैं कि मनुष्य एक अद्भुत, महान एवं चमत्कारी प्राणी है और उसकी बुद्धि विलक्षण वस्तु! किन्तु यह सब विशेषतायें केवल मनुष्य को ही प्राप्त हैं। सृष्टि के अन्य सारे जीव इससे सर्वथा वंचित हैं। सृष्टि के इस आश्चर्यजनक शृंगार में केवल मनुष्य को ही श्रेय है, अन्य प्राणियों तथा जीव-जन्तुओं का कोई हाथ नहीं रहा है। केवल वे ही पशु सामान्य रूप से कुछ सहायक रहे हैं जिन्हें मनुष्य ने चाहा और जिनका उपयोग किया है। उन पशुओं को उपयोगी बनाने में भी मनुष्य का बुद्धि-कौशल ही प्रमुख रहा है।

इस उन्नत स्थिति में होते हुए भी यदि मनुष्य असंतुष्ट, अशान्त एवं विपन्न रहे तो इससे ज्यादा आश्चर्य की क्या बात हो सकती है? जिस प्रकार मनुष्य अपने आगे देवताओं तथा उनके संसार-स्वर्ग की कल्पना करके यह सोचा करता है कि स्वर्ग में कल्प वृक्ष है जो देवताओं को मनोरथ मात्र से ही मनोवाँछित सुख एवं सुविधायें दे देता है। जबकि हम परिश्रम एवं प्रयत्न करने पर भी उन सभी सुखों को नहीं पा पाते जिनकी वाँछा रहती है। कोई न कोई अभाव खटकता ही रहता है। किन्तु वास्तविक बात यह है कि मनुष्य का यह अभाव-अनुभव और कुछ नहीं, या तो अतिलिप्सा अथवा नये-नये सुख साधनों तथा सम्पन्नताओं की वैचारिक-भूमिका है, और अधिक प्रगति एवं विकास की जिज्ञासा का एक रूप है। यदि यह और आगे बढ़ने की कल्पना की कसक है तब तो ठीक है, और जिनके लिये स्वर्ग की कल्पना संसार को और अधिक समुन्नत एवं सुन्दर बनाने के आदर्श का प्रारूप है वे मनुष्य आदर्श मनुष्य हैं जो कभी भी असन्तुष्ट अथवा अभाव-भाव से ग्रस्त नहीं होते। किन्तु जिनकी कल्पना सुख लिप्सा से जन्म लेती है उनका असंतुष्ट तथा अभावानुभव होना स्वाभाविक है। वैसे संसार में न कोई अभाव है और न असम्पन्नता।

दूसरे जीव-जन्तु यदि देख, समझ और अनुभव कर पाते होंगे तो मनुष्य की स्थिति देखकर यही सोचते होंगे कि मनुष्य वास्तव में बड़ा भाग्यवान है। जहाँ उसे जीवन की असंख्य सुख-सामग्रियाँ उपलब्ध हैं, वहाँ हमें एक भी नहीं। यदि किसी प्रकार हम मनुष्य की स्थिति पा सकते तो आनन्द का पारावार नहीं रहता। आज यदि मनुष्य को देवताओं का स्वर्ग उपलब्ध हो जाये तो उसे जितना सुख-सन्तोष प्राप्त हो, उससे लाखों करोड़ों गुना सुख अन्य जीव-जन्तुओं को प्राप्त हो जो मनुष्य की स्थिति प्राप्त करने की वाँछा कर सकते होंगे। मनुष्य की समुन्नत स्थिति और उसके कल्पना के देवताओं की स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं है जबकि मनुष्य एवं अन्य जीव-जन्तुओं की स्थिति में आकाश-पाताल का अन्तर है! तब दुःखी असन्तुष्ट तथा दुःख-दारिद्रय से घिरे रहने में मनुष्य की अपनी भूल तथा त्रुटि होने के सिवाय अन्य क्या कारण हो सकता है? जरूर ही मनुष्य अपनी गतिविधि में कहीं पर भूल करता जा रहा है, और उसी के कारण कोई कारण न होते हुए भी यातना पा रहा है!

बाह्य संसार ही नहीं, मनुष्य ने एक आन्तरिक लोक की रचना भी की है। वह है भावना-लोक। प्रेम, सेवा, करुणा, मैत्री, त्याग संयम, धर्म, उपासना जैसी पारमार्थिक तथा क्रीड़ा, मनोरंजन, विलास, एवं भोग जैसी राजस भावनाओं का भी विकास कर लिया है। निश्चय ही उसने वैचारिक लोक की इन पारमार्थिक प्रवृत्तियों के बल पर ही संसार संज्ञा का महत कार्य सम्पादन किया है। पारमार्थिक विचार ही वे सृजनात्मक विचार हैं जिनकी सक्रियता की पहुँच स्वर्गोपम संसार तक हो सकती है।

किन्तु इसी रचना क्रम में किन्हीं आसुरी छलनाओं से प्रवंचित होकर मनुष्य ने लोभ, मोह, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, भय, शोक, प्रतिशोध, संघर्ष आदि की तामसी प्रवृत्तियों का भी विकास कर डाला। बस, यहीं पर मनुष्य से भूल हो गई और वह अच्छाई के साथ बुराइयों का भी केन्द्र बन गया। बुराई, अच्छाइयों की अपेक्षा अधिक संक्रामक तथा पल्लविनी होती है। उसने जल्दी-जल्दी मनुष्य के भावना लोक में अपना स्थान बनाकर अपनी प्रतिद्वन्द्विनी पारमार्थिक भावनाओं को दबाना शुरू कर दिया और मनुष्य गुण-अवगुण के द्विविधि चक्र के फेर में पड़ गया।

संसार संज्ञा का महनीय कार्य मनुष्य के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करता है और उसके अनुरूप उससे आशा की जा सकती है कि वह स्वयं भी शान्ति, सुविधा तथा आनंदपूर्वक रहे, और दूसरों को न केवल उस प्रकार रहने दे बल्कि उनसे सहयोग करे। मनुष्य अपने इस कर्तव्य को पूरी तरह समझता तथा करता भी रहा है। यह सहयोग एवं सहकारिता का ही तो पुण्य फल रहा है जो मनुष्य प्रकृति संसार को सुन्दर एवं संस्कृत बना सकता है!

जब तक मनुष्य सर्वश्रेष्ठता के पद पर आसीन है, उसका उत्तरदायित्व कम नहीं हो सकता। उसे संसार को दिन-दिन लाभान्वित करने का यह दायित्व निभाना ही होगा! अपने बड़प्पन, स्वाभिमान तथा प्रतिष्ठा के अनुरूप उसे अपना स्वरूप स्मरण करना ही चाहिए। वह जो कुछ आज करने लगा है उसे छोड़कर उन पारमार्थिक गतिविधियों को जल्दी से जल्दी अपना लेना ही चाहिए जो सृजनात्मक तथा सुख-शान्ति दायक हैं जिनके पुण्य से उसने संसार का कायाकल्प कर डाला है।

कोई निम्न एवं निकृष्ट कोटि का जीवन अवाँछनीय गतिविधि अपना ले, गलत रास्ते पर चल पड़े तो उस पर अधिक खेद नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी अप्रगति से संसार की कोई विशेष हानि नहीं होती। साथ ही उस उपद्रव को रोकने के लिए उसका शासक मनुष्य मौजूद है किन्तु जब यह सर्वसत्तामान मनुष्य ही गलत रास्ते पर चल पड़े उपद्रवी गतिविधि अपना ले तो संसार की अपार क्षति निश्चित है और किन्हीं दूसरे जीव-जन्तुओं में व क्षमता भी नहीं हैं कि वे उसे उसकी अवाँछनीयता से रोक सकें। एक साधारण बकरा यदि उपद्रवी गति अपनाकर बिगाड़ शुरू कर दे तो वह कौन सी अधिक हानि कर सकता है? और वह जल्दी ही कान पकड़कर ठीक कर दिया जायेगा। किन्तु यदि कोई हाथी उन्मत्त हो जाता है और उपद्रव करना प्रारम्भ कर देता है तो वह जरा सी ही देर में न जाने कितने वृक्ष तोड़ सकता है, मकान गिरा सकता है और अनेकों को कुचल सकता है। शक्तिवान की गलत गतिविधियाँ निर्बल की अपेक्षा बहुत हानिकारक तथा भयानक होती हैं। फिर मनुष्य तो संसार का सर्वशक्तिमान प्राणी है। उसकी गलत गतिविधियों की क्षति का तो अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता!

मनुष्य की विशेष शक्तियाँ बुद्धि तथा विचारशीलता ही हैं। ईश्वर ने बुद्धि-शक्ति की कोई सीमा निश्चित नहीं की है। मनुष्य की बुद्धि शक्ति के सम्मुख कुछ भी असाधारण नहीं। जिस बुद्धि बल के सदुपयोग से मनुष्य ने संसार सजा दिया है उससे क्या वह ध्वंस नहीं कर सकता? और आज वह यह सब कर ही तो रहा है। बुद्धि की शक्ति अपार है। बुद्धि दुधारी तलवार के समान होती है वह यदि ठीक से प्रयोग की जाये तो शत्रु को काट सकती है और यदि उसका गलत प्रयोग किया जाये तो अपने को भी घायल कर सकती है। मनुष्य ने आज अपनी बुद्धि शक्ति को गलत दिशा में लगाकर अपने लिये विनाश एवं अशाँति, असंतोष की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर ली हैं। उनसे छुटकारे का एकमात्र मार्ग बुद्धि के दुरुपयोग को रोकना और उसे सन्मार्ग की ओर मोड़ना ही संसार की सबसे बड़ी आवश्यकता है।



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