संगीत-सत्ता और उसकी महान् महत्ता-2

May 1970

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आपको ढूँढ़ने में तप-साधना की प्रणालियाँ बहुत कष्ट साध्य हैं भगवन् ! नारद ने एक बार विष्णु भगवान से प्रश्न किया- ऐसा कोई सरल उपाय बताइये, जिससे भक्तगण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें?

इस पर विष्णु भगवान ने उत्तर दिया-

नाहं वसामि वैकुण्ठे ये गिनाँ हृदये न वा।

                                मद भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारदा॥  -नारद संहिता,

हे नारद! न तो मैं वैकुण्ठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्तजन कीर्तन करते हैं। अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।

इन पंक्तियों को पढ़ने से संगीत की महत्ता और भारतीय इतिहास का वह समय याद आ जाता है, जब यहाँ गाँव-गाँव प्रेरक मनोरंजन के रूप में संगीत का प्रयोग बहुलता में होता था। संगीत में केवल गाना या बजाना ही सम्मिलित नहीं था, नृत्य भी इसी का अंग था। कथा, कीर्तन, लोक-गायन और विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक पर्व-त्यौहार एवं उत्सवों पर अन्य कार्यक्रमों के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता था। उससे व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में शाँति और प्रसन्नता, उल्लास और क्रियाशीलता का अभाव नहीं होने पाता था।

गायन से फेफड़ों की जो हलकी-हलकी मालिश होती है, वह किसी भी परिश्रम वाले काम की अपेक्षा बहुत कोमल और लाभदायक होती है। दौड़-कुश्ती और कृषि आदि के कामों में भी फेफड़ों का व्यायाम होता है, पर उनमें थकावट होती है, प्रसन्नता नहीं।

डॉ. बर्नर मैकडेफेन ने लिखा है- “गाने से शरीर में जो हलचल उत्पन्न होती है, उससे रक्त-संचार में वृद्धि होती है, पाचन क्रिया में सुधार, उदर और वक्षस्थल की माँस-पेशियों का प्रसार होता है। गाने में कंठ-नलिकायें और फेफड़े को अनिवार्य रूप से फैलना-सिकुड़ना पड़ता है, इसलिये उस समय उन अंगों की नियमित कसरत अवश्य होगी। कसरत कोई भी हो उस स्थान की गन्दगी ही निकालती और उस स्थान की सक्रियता ही बढ़ाती है, इसलिये गायन को बहुत अच्छा व्यायाम कहना चाहिये। गाना प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये, उससे वस्ति प्रदेश के सभी अंगों, अवयवों को स्फूर्ति प्रोत्साहन एवं मालिश का लाभ मिलता है।”

“संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा उपाय है, इसलिये हमेशा वाद्य यन्त्र के साथ गाना चाहिये।” यह पाइथागोरस की मान्यता थी पर डॉ. मैकफेडेन ने वाद्य की अपेक्षा गायन को ज्यादा लाभकारी बताया है। मानसिक प्रसन्नता की दृष्टि से पाइथागोरस की बात अधिक सही लगती है। मैकफेडेन ने लगता है, केवल शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ऐसा लिखा है। इससे भी आगे की कक्षा आत्मिक है, उस सम्बन्ध में कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन उल्लेखनीय है, श्री टैगोर के शब्दों में- “स्वर्गीय सौंदर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है तो उसे संगीत ही होना चाहिये।” रस्किन ने संगीत को आत्मा के उत्थान, चरित्र की दृढ़ता कला और सुरुचि के विकास का महत्त्वपूर्ण साधन माना है।

विभिन्न प्रकार की सम्मतियाँ वस्तुतः अपनी-अपनी तरह की विशेष अनुभूतियाँ हैं, अन्यथा संगीत में शरीर, मन और आत्मा तीनों को बलवान बनाने वाले तत्त्व परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं, इसी कारण भारतीय आचार्यों और मनीषियों ने संगीत शास्त्र पर सर्वाधिक जोर दिया। ‘साम’ वेद की स्वतन्त्र रचना उसका प्रमाण है। समस्त स्वर-ताल, लय, छन्द, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं, किसी समय इस दिशा में भी भारतीयों ने योग-सिद्धि प्राप्त करके यह दिखा दिया था कि स्वर-साधना के समकक्ष संसार की और कोई दूसरी शक्ति नहीं। उसके चमत्कारिक प्रयोग भी सैकड़ों बार हुये हैं।

अकबर की राज्य-सभा में संगीत प्रतियोगिता रखी गई। प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी थे तानसेन और बैजूबावरा। यह आयोजन आगरे के पास वन में किया गया। तानसेन ने ‘टोड़ी’ राग गाया और कहा जाता है कि उसकी स्वर लहरियाँ जैसे ही वन-खण्ड में गुँजित हुई मृगों का एक झुण्ड वहाँ दौड़ता हुआ चला आया। भाव-विभोर तानसेन ने अपने गले पड़ी माला एक हिरण के गले में डाल दी। इस क्रिया से संगीत-प्रवाह रुक गया और तभी सब-के-सब सम्मोहित हिरण जंगल भाग गये।

टोड़ी राग गाकर तानसेन ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत मनुष्यों की ही नहीं प्राणिमात्र की आत्मिक-प्यास है, उसे सभी लोग पसन्द करते हैं। इसके बाद बैजूबावरा ने ‘मृग-रंजनी टोड़ी’ राग का अलाप किया। तब केवल एक वह मृग दौड़ता हुआ राज्य-सभा में आ गया, जिसे तानसेन ने माला पहनाई थी। इस प्रयोग से बेजूबावरा ने यह सिद्ध कर दिया कि शब्द के सूक्ष्मतम कम्पनों में कुछ ऐसी शक्ति और सम्मोहन भरा पड़ा है कि उससे किसी भी दिशा के कितनी ही दूरस्थ किसी भी प्राणी तक अपना सन्देश भेजा जा सकता है।

इसी बैजूबावरा ने अपने गुरु हरिदास की आज्ञा से चन्देरी (गुना (म. प्र.) जिले स्थित) के निवासी नरवर के कछवाह राजा राजसिंह को ‘राग पूरिया’ सुनाया था और उन्हें अनिद्रा रोग से बचाया था। दीपक राग का उपयोग बुझे हुये दीपक जला देने ‘श्री राग’ का क्षय रोग निवारण में, ‘भैरवी राग’ प्रजा की सुख-शाँति वृद्धि में, ‘शकरा राग’ द्वारा युद्ध के लिये प्रस्थान करने वाले सैनिकों में अजस्र शौर्य भर देने में आदिकाल से उपयोग होता रहा है। वर्षा ऋतु में गाँव-गाँव मेघ व मल्हार राग गाया जाता था, उससे दुष्ट से दुष्ट लोगों में भी प्रेम उल्लास और आनन्द का झरना प्रवाहित होने लगता था। स्वर और लय की गति में बँधे भारतीय जीवन की सामंजस्यता जो तब थी, अब वह कल्पना मात्र रह गई है। सस्ते सिनेमा संगीत ने उन महान शास्त्रीय उपलब्धियों को एक तरह से नष्ट करके रख दिया है।

संगीत एक प्रकार की योग साधना है उससे ध्वनि-कम्पन नाभि-प्रदेश से निकालकर ब्रह्म-रन्ध्र में लाये जाते हैं। यहाँ तालु से उन्हें पकड़कर मनोमय विद्युत का संयोग दिया जाता है, तब वह मुख द्वारा बाहर निकलता है। इस तरह नियन्त्रित स्वर पानी में भ्रमर अथवा गोलाकार चक्र रूप में निकलता है, फिर उसका प्रयोग इच्छानुसार किसी भी प्रयोजन में हो सकता है। हर प्रयोजन के लिये अलग-अलग राग खोजे गये हैं, जो मंत्रवत् काम करते हैं। तंत्र में तो एक बुराई यह होती है कि यदि उसकी प्रतिक्रिया जो एक तेज झटके की तरह होती हैं, सहन न हो तो प्रयोगकर्त्ता का अनिष्ट भी कर सकती है, पर इन प्रयोगों में गायत्री उपासना, गीता के पाठ, गाय के दूध और गायत्री मंत्र के जप के समान किसी भी अवस्था में हानि की कोई भी आशंका नहीं रहती। संगीत के अभ्यास से इसीलिये कभी किसी को हानि नहीं होती, किसी भी अवस्था में लाभ ही होता है।

ऊपर दी हुई घटनायें तो बहुत दिनों पूर्व की हैं, अभी कुछ दिन पूर्व ही होशियारपुर (पंजाब) जिले के प्रसिद्ध संगीतज्ञ श्री पं. गुज्जरराम वासुदेव जी रागी ने चिन्तपूर्णी देवी की भक्ति में विलीन होकर श्री रागी जी ने मेघ राग का आलाप किया। इस समय उस आकाश में बादलों की चित्ती तक न थी। कड़ाके की धूप पड़ रही थी, पर जैसे ही उन्होंने ‘मेघ राग’ गाना प्रारम्भ किया, आकाश में बादल छाने लगे। थोड़ी ही देर में सूर्य बादलों से ढक गया और घन गरज के साथ वृष्टि प्रारम्भ हो गई। लोगों ने अनुभव किया कि शास्त्रीय संगीत स्वर-विज्ञान के उन रहस्यों में ओत-प्रोत है, जो प्राकृतिक परमाणुओं में भयंकर हलचल उत्पन्न करके उनसे इच्छित कार्य करा सकते हैं।

रामपुर के नवाब साहब लकवे से ग्रस्त थे। उस्ताद सूरज खाँ के कहने से उन्हें भारतीय संगीत पर श्रद्धा जम गई। सूरज खाँ सिद्ध वीणा वादक थे। उन्होंने राग ‘जैजैवन्ती’ के प्रयोग से लकवे से पीड़ित नवाब साहब को कुछ ही दिन में अच्छा कर दिया।

अपनी ही संस्कृति की यह महान उपलब्धियाँ आज हमारे ही लिये किंवदन्तियाँ बन गई। हम उन पर विश्वास नहीं करते या हमारी उन पर श्रद्धा नहीं रही। ऐसा न होता तो सिनेमाओं में प्रयुक्त सस्ते संगीत की अपेक्षा शास्त्रीय संगीत को महत्व दिया जाता। कुछ ऐसे प्रभावशील और साधन सम्पन्न व्यक्ति भी निकलते जो संगीतकला को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये अपने साधनों एवं प्रभाव का उपयोग स्थान-स्थान पर शास्त्रीय-संगीत विद्यालय खोलने बालक-बालिकाओं को उनमें प्रशिक्षण लेने के लिये प्रोत्साहित करने में करते। और नहीं तो कम से कम कीर्तन और भजन-मंडलियाँ और सर्वसुलभ, गुण प्रेरक नौटंकियाँ तो गाँव-गाँव स्थापित होनी ही चाहियें, ताकि हमारा लोक-जीवन नीरस और आत्मिक सौंदर्य से रहित न होने पाये।

किसी समय नृत्य भारतीय जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। भगवान शंकर ‘नटराज’ कहे जाते हैं वे स्वयं नृत्य विशेषज्ञ थे। नृत्य रास, मणिपूरा, कत्थककली, भारत-नाटयम आदि नृत्य और नृत्य-नाटिकाओं का आज भी अपना विशिष्ट महत्त्व है पर गाँव-गाँव रचे जाने वाले लोक-नृत्यों का अपना महत्व था। पं. जवाहरलाल नेहरू ऐसे नृत्य देखकर थिरक उठते थे। वह कहते थे- ‘लोक-नृत्यों से हमें उल्लास मिलता है और यह शिक्षा मिलती है कि जीवन का आनन्द केवल भौतिक पदार्थों की उपलब्धि में ही नहीं हैं।” तो भी यह कलायें हमारे लोक-जीवन से हटती जा रही हैं। हमें इन्हें फिर से अपनाना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ गाना, कुछ न कुछ बजाना और नृत्य करना सीखना चाहिये, उससे लोक-जीवन में प्रसन्नता, प्रफुल्लता, आनन्द और उल्लास का ही विकास होगा।

खेद की बात है कि जो भारतवर्ष कभी संगीत-कला विशेषज्ञ माना जाता था, आज वह तो अपनी इस विशेषता से रिक्त होता जा रहा है, जबकि दूसरे देशों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ रही है। लोग उससे बहुमूल्य लाभ ले रहे हैं।




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