न शरीर तट है, न मन तट है, उन दानों के पीछे जो चैतन्य है, साक्षी है, दृष्टा है, वह अपरिवर्तित नित्य बोध मात्र ही वास्तविक तट है, जो अपनी नौका को उस तट से बाँधते हैं, वे ही अमृत प्राप्त करते हैं।
-स्वामी विवेकानन्द