पात्र की परख

May 1970

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लता-विज्ञान और मोतियों की झालरों से सजाई गई यज्ञशाला की सौंदर्य छटा देखते ही बनती थी। सम्राट् रथवीति दाल्भ्य स्वयं जो यज्ञ के संरक्षक और यजमान थे। सम्पूर्ण नगर की प्रजा इस यज्ञ की सफलता के लिये प्राण-पण से जुटी थी। नगर की गली-गली स्वच्छता और सजावट के मारे दमक रही थी, प्रजा का उत्साह देखते ही बनता था।

जल-यात्रा का विशाल जुलूस मंडप पर आ रुका। यज्ञ-कलश प्रतिष्ठित कर दिये गये। ऋत्विज् गणों ने अपने-अपने आसन सम्भाल लिये। तभी इस यज्ञ के आचार्य और ब्रह्मा महर्षि के साथ वहाँ जा पहुँचे। कोलाहल निस्तब्ध नीरवता में परिणत हो गया। महाराज रथवीति दाल्भ्य और राजमहिषी ने आगे बढ़कर उन्हें साष्टाँग प्रणिपात किया और प्रधान यज्ञ मंडप तक ले आये। महर्षि का तेज सूर्य के समान तो पुत्र श्यावाश्व चन्द्रमा की तरह शीतल और तेजस्वी। उनके पाँडित्य का तो कहना ही क्या। सम्पूर्ण राष्ट्र में उस समय अर्चनाना का यश पूर्णमासी की धवल चन्द्रिका की भाँति फैल रहा था।

यज्ञ सकुशल सम्पन्न हुआ। स्विष्टकृत होम और देवों को वसोधारा समर्पित कर दी गई। पुष्पाँजलि और विसर्जन तक की सम्पूर्ण क्रियायें बड़े आनन्द और उल्लास के साथ सम्पन्न हुई। प्रजा प्रसाद पाकर चलने लगी। उधर एक विशिष्ट आसन पर बैठे महर्षि अर्चनाना राज्य-प्रमुखों सहित महाराज रथवीति से विचार विमर्श कर रहे थे। तभी उनकी दृष्टि एक ओर हठात् खिंच गई। क्षोम परिधान (रेशमी साड़ी) धारण किये नवयुवती के अद्वितीय सौंदर्य पर दृष्टि पड़ते ही महर्षि अर्चनाना की दृष्टि एक क्षण के लिये रुक सी गई। देखने से ऐसा लगता था, उसे देखकर महर्षि के मस्तिष्क में कोई विचार उठ पड़ा हो।

देव! यह मेरी पुत्री मनोरमा है-महाराज रथवीति ने परिचय कराते हुये कहा- “यही हमारी एकमात्र संतान है देव! इसे हमने कला निष्णात बनाने का हर सम्भव प्रयत्न किया है। व्याकरण और साहित्य में यह आचार्य है।”

“अतीव प्रसन्नता की बात है राजन्!” बालिकाओं का शिक्षित होना तो आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। उसी से तो राष्ट्र में श्रेष्ठ संतति का निर्माण होता है। महर्षि ने उधर से मुख फेरते हुये एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर सारी बात ऐसे कही मानों उनके हृदय में कोई पीड़ा उमड़ उठी है।

गुरुदेव! कुछ बेचैनी अनुभव करते हैं, अंतर्मन में। असम्भव न हो तो कृपया हमें बतायें, हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं, रथवीति ने बड़ी विनम्रता से पूछा। उपस्थित श्रीमंत यद्यपि अभी कुछ विषाद में थे। उन्हें आश्चर्य था कि महर्षि के मन में यह अटपटा प्रसंग कैसे उठ पड़ा।

महर्षि ने एक बार सभी उपस्थितों की ओर ऐसे देखा मानों वे एकान्त चाहते हों। धर्म-परायण महाराज रथवीति ने सबको सादर विदा कर दिया। तब महर्षि अर्चनाना ने कहा-रथवीति मेरे जीवन में आज तक कभी कोई इच्छा नहीं उत्पन्न हुई पर इस बालिका को देखते ही मेरे हृदय में वात्सल्य उमड़ पड़ा है, समझ में नहीं आता ऐसा क्योंकर सोचता हूँ, यह कन्या मेरी पुत्र वधू हो सकी होती तो श्यावाश्व को एक उपयुक्त जीवन साथी मिल जाता और मुझे अपने वात्सल्य भाव को तृप्त करने का आधार।

रथवीति महर्षि का यह कथन सुनकर बड़े प्रसन्न हुये। उन्होंने कहा- देव! मेरी पुत्री का सम्बन्ध तेजस्वी अत्रिकुल में और श्यावाश्व जैसे होनहार युवक के साथ हो इससे बढ़कर कन्या और हम सबके लिये गौरव की क्या बात हो सकती है। मनोरमा भी धन को नहीं, योग्यता, प्रतिभा और सदाचरण को महत्व देती है, यह तो उसकी इच्छा की पूर्ति ही हुई, किन्तु। कहते-कहते एक क्षण के लिये रथवीति दाल्भ्य रुक गये और कुछ सोच में पड़ गये।

किन्तु क्या राजन! स्पष्ट कहो न। हमने अपनी आकाँक्षा व्यक्त की है, बाध्य तो नहीं किया। सम्पूर्ण परिस्थितियों पर विचार करके उत्तर दे सकते हो। अपने पुत्र के लिये योग्य वधू की खोज मेरा धर्म था। मुझे ऐसा लगा श्यावाश्व के लिये मनोरम सर्वथा उपयुक्त है।

“आपका कथन सत्य है भगवन्! किन्तु मुझसे अधिक मनोरमा पर राजमहिषी का अधिकार है। माँ होने के कारण उसके हित की बात वे मुझसे अधिक सोच सकती हैं। आप ठहरें हम अभी उनसे पूछकर आते हैं।” यह कहकर रथवीति अन्तःपुर की ओर चल पड़े।

साम्राज्ञी ने महाराज रथवीति की सारी बातें ध्यान से सुनी। एक बार वह मुस्कराई, फिर थोड़ा गम्भीर होकर बोली- “महाराज! यों तो यह सम्बन्ध बहुत ही उपयुक्त है, किन्तु श्यावाश्व की योग्यता पर मुझे सन्देह है। मनोरमा की योग्यता ऋषि-पत्नी बनने की है, कदाचित महर्षि अर्चनाना ने श्यावाश्व को मनोरमा के सौंदर्य से ही न तोला होता, उसकी योग्यता से श्यावाश्व की योग्यता से तुलना भी कर ली होती तो मुझे यह प्रस्ताव स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होती। पर अब मैं क्या कर सकती हूँ।

स्पष्ट असहमति। रथवीति उदास लौटे। राजमहिषी ने जो कुछ कहा था, ज्यों का त्यों कह दिया। श्यावाश्व, जो अब तक मनोरमा को अन्तरात्मा से अपनी सहचरी मान चुका था, की स्थिति ऐसे हो गई, जैसे किसी मछली को समुद्र से निकाल कर किसी मरुस्थल में डाल दिया गया हो। जैसे किसी को आकाश में चढ़ाकर नीचे धकेल दिया गया हो।

अर्चनाना उदास होकर आश्रम लौटे। श्यावाश्व की तो स्थिति ही कुछ और थी। प्रेम जीवन की चरम-उपलब्धि। एक बार जब कभी हृदय में प्रेम की पीड़ा उमड़ती है तो मनुष्य की स्थिति न जाने क्या हो जाती है। उसे प्रेमास्पद के अतिरिक्त कोई सूझता भी तो नहीं। श्यावाश्व की भावनाओं में मनोरमा के प्रेम की छाया साधना बनकर उतर चुकी थी। और वह उसका मूल्य भी चुकाना अच्छी तरह जानते थे।

सवेरा हुआ, महर्षि अर्चनाना अपने स्वाध्याय शिक्षण और आश्रम व्यवस्था में व्यस्त हो गये पर श्यावाश्व अपने योगाभ्यास में अभी भी संलग्न थे। एक समय का आहार-मिताहार, यम, नियम, ध्यान-धारणा का अभ्यास करते-करते श्यावाश्व ने अपने जीवन की रही-सही महत्वाकाँक्षाओं का भी हवन कर दिया। साधना-साधना-साधना-शरीर को तपाने से लेकर मन को ईश्वरीय सत्ता में घुलाने के लिये वे अविराम तप करने लगे।

श्यावाश्व अपने आश्रम से चलकर सर्वप्रथम पितामह अत्रि के पास पहुँचे। पौत्र श्यावाश्व को देखते ही अत्रि ने कण्ठ में पहनाई हुई मरुद्गणों की रुक्म (माला) को पहचान लिया। पुत्र के साथ पौत्र के भी ऋषि हो जाने का यह हर्ष उनसे सम्भाला नहीं गया। उन्होंने कहा-श्यावाश्व! अब तुम रथवीति के पास जाओ और उनकी कन्या मनोरमा को वधू बनाकर साथ ले आओ।

पर श्यावाश्व के लिये तो यह कठिन बात थी। उनके हृदय में मनोरमा के प्रति अपार प्रेम था, किन्तु स्वाभिमान आज्ञा नहीं दे रहा था, वहाँ जाने के लिये। तब अत्रि ने भगवती सन्ध्या को दूत बनाकर भेजा पर उनके वहाँ पहुँचने से पूर्व ही रथवीति और राजमहिषी को श्यावाश्व के ऋषि हो जाने की बात पहुँच गई थी। वहाँ मनोरमा के विवाह की तैयारियाँ भी हो रही थी।

समय पर श्यावाश्व के लिये अत्रि के आश्रम में ही रथ पहुँच गया। श्यावाश्व उस पर चढ़कर राजधानी पहुँचे। उनके स्वागत के लिये राजमहिषी सबसे आगे उपस्थित थीं। श्यावाश्व को देखते ही उन्होंने कहा-क्षमा करो वत्स! उस दिन पहचानने में भूल हुई थी। तुम्हें पाकर हम अतीव गौरव अनुभव करते हैं।

श्यावाश्व ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा-माँ! क्षमा का पात्र तो मैं हूँ, आपने उस दिन सही मूल्याँकन न किया होता और उसके लिये साहस न दिखाया होता तो आज मुझे यह स्थिति कहाँ मिलती।


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