युग निर्माण के लिये इस वर्ष ‘ज्ञान यज्ञ’ की ज्योति, इस सीमा तक प्रज्वलित की जा रही है कि उसे हवा का कोई झोंका बुझाने में समर्थ न हो वरन् विपरीत परिस्थिति भी उसे अधिक प्रदीप्त होने की प्रतिक्रिया ही उत्पन्न कर पायें। इसलिये आगामी मई मास तक बिना चित्त को अस्त-व्यस्त किये हम एकनिष्ठ भाव से विदाई वर्ष के रूप में ज्ञान यज्ञ की दस सूत्री योजना पूरी करते रहें यही उचित है। अब तो कुछ महीने ही शेष बचे हैं। इस छोटी सी अवधि में हमें नींव में मजबूत पत्थर भरने की चेष्टा में तत्परतापूर्वक निरत हो जाना चाहिए। आलस्य में समय बिता देने पर हम अपना पवित्र कर्तव्य पालन भी न कर सकेंगे यदि हमारे थोड़े-थोड़े योगदान से विश्व मानव की जो महान अभ्यर्थना हो सकती थी तो वह भी न हो सकेगी। जिनका यह क्रम अनियमित है उन्हें संकल्पपूर्वक दिनचर्या के अनिवार्य अंश में उपासना और स्वाध्याय को सम्मिलित करने के लिये कहा गया है। अपने परिवार के सभी लोग यदि इस प्रक्रिया को दृढ़ता पूर्वक अपना लें तो उनके आत्म-बल में महत्वपूर्ण अभिवृद्धि होगी और उस निष्ठा का दूसरों पर भी प्रभाव पड़ेगा। ज्ञान यज्ञ वर्ष में इस साधनात्मक अनुक्रम को नियमितता पूर्वक चलाया जाने लगे तो यह बहुत बड़ी बात होगी और अपने परिजनों का व्यक्तित्व बहुत निखरेगा। जो उच्च स्तर की साधनायें करना चाहेंगे उनके लिये साधना-विधान की एक व्यवस्थित संहिता भी हम तैयार कर रहे हैं ताकि हमारे यहाँ न होने पर भी उसका लाभ साहसी साधकों को मिलता रहे और साधना सुचारु रूप से चलती रहे।
इस थोड़ी सी अवधि में परिजन कुछ विशेष उत्साह और पुरुषार्थ प्रकट कर सकें तो नव निर्माण के महान अभियान में आशाजनक प्रगति दृष्टिगोचर हो सकती है। गत अंक में कुछ विशेष उद्बोधन इस संदर्भ में किया गया है। व्यक्तिगत उपासना की नियमितता, व्यवस्थित स्वाध्याय का क्रम व्यक्ति निर्माण के लिए एक अमोघ साधन सिद्ध हो सकता है। छुट-पुट एवं अस्त-व्यस्त क्रम से कभी बहुत, कभी कुछ नहीं वाली बात चलाते रहने से कोई आशाजनक परिणाम नहीं निकलता पर यदि निरन्तर नियमित और क्रमबद्ध रूप से उसी प्रक्रिया को चलाया जाय तो थोड़ा सा प्रयत्न भी कहने लायक सफलता उत्पन्न कर सकता है। इसलिए जो नियमित रूप से दोनों साधनायें चलाते हैं उन्हें अधिक गहरी निष्ठा का समावेश करने और घरेलू ज्ञान मन्दिर और चल पुस्तकालयों की स्थापना के लिये व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयत्नों को इस वर्ष का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य माना जाना चाहिए। एक घंटा समय और दस पैसा रोज देने वाली प्रक्रिया अपने परिवार की सदस्यता की एक अनिवार्य शर्त बना दी गई है। जिनके द्वारा युग-निर्माण जैसे महत्वपूर्ण कार्य में भूमिका सम्पादन करने की आशा की जाय उनका कर्तव्य न्यूनतम इतना तो होना ही चाहिए, जो भावी कार्यक्रम की रूप-रेखा नियोजित करेंगे।
जो दस पैसे रोज देंगे उनके घर में घरेलू पुस्तकालय ‘ज्ञान मन्दिर’ की स्थापना हो जाय। यह ज्ञान मन्दिर अखण्ड-दीपक की तरह अपने क्षेत्र में नव-निर्माण का- विचार क्रान्ति का- प्रकाश फैलाते रहेंगे। कार्तिकी अमावस्या की इस सघन तमिस्रा में जबकि सूर्य और चन्द्रमा ने असहयोग ठान रखा है इन दीपकों को जलाकर दिवाली मनाई जायगी और वह दीप पर्व अपना अनुपम आदर्श प्रस्तुत करेगा। युग निर्माण के लिये अब किसी अवतार-महात्मा-देवता या स्वर्ग दूत की प्रतीक्षा में देर तक न बैठा रहना पड़ेगा। हम छोटे-छोटे अणु कण ही संघबद्ध होकर एक विशिष्ट शक्ति प्रवाह का आविर्भाव करेंगे और प्रस्तुत विडम्बनाओं एवं विभीषिकाओं से उसी स्वल्प सामर्थ्य के बल पर लोहा लेंगे।
इस वर्ष हमें पूरी तत्परता के साथ अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकाओं के सदस्य बढ़ाने में लग जाना चाहिए। यों कितने ही सज्जन यह प्रयत्न थोड़ा-थोड़ा करके सदा ही करते रहते हैं पर इस वर्ष इस दिशा में कुछ अधिक काम होना चाहिए। अपने क्षेत्र के सभी सुसंस्कारी शिक्षितों की लिस्ट बनानी चाहिए और एक-एक करके कुछ अंक उन्हें इस पत्रिकाओं के नमूने के तौर पर पढ़ाने चाहिएं। गत डेढ़ वर्ष के अंक इसके लिये अपने तथा दूसरों के इकट्ठे कर लेने चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि जितने अधिक लोगों को वे पुराने अंक जितनी अधिक संख्या में पढ़ाये जा सकें एक महीने में पढ़ा लिये जायें। मुफ्त में ऐसे सुरुचिपूर्ण अंक पढ़ने से शायद ही कोई इनकार करे। यह प्रक्रिया पूर्ण हो जाने के उपरान्त अकेले ही अथवा टोली बनाकर उन सब सज्जनों के पास इन पत्रिकाओं के सदस्य बनने का अनुरोध करने जाना चाहिए इस प्रक्रिया के अनुसार यह आशा की जा सकती है कि जिनने इन अंकों को पढ़ा होगा उनमें से आधे चौथाई अवश्य सदस्यता स्वीकार कर लेंगे। यह कार्य योजना इस रूप में एक क्षेत्र में यदि लगातार एक महीने भी चला लिया जाय और जब मिला जाय-मिशन का विस्तृत परिचय थोड़ा-थोड़ा करके कराया जाय-तो निश्चय ही अपने मिशन की वाणी-इन पत्रिकाओं का क्षेत्र निश्चित रूप से दूना चौगुना हो सकता है और उसके साथ ही अपने मिशन की गतिविधियाँ उसी अनुपात में दूनी चौगुनी बढ़ सकती हैं। अपना कार्यक्षेत्र, प्रभावक्षेत्र जितना बढ़ाना हो उसके लिये उसी अनुपात में पत्रिकाओं के सदस्य बढ़ाने के लिये प्रयत्नशील होना चाहिए।
इस वर्ष हममें से प्रत्येक को कम से कम दस व्यक्तियों से संपर्क तो साध ही लेना चाहिए। स्वयं स्वाध्याय करने और घर परिवार के लोगों की युग-निर्माण साहित्य में विचारधारा से लगातार सम्बद्ध करते रहने के अतिरिक्त बाहर के ऐसे दस व्यक्तियों से अपना संपर्क बन जाना चाहिए जो इस विचार धारा में पूरा-पूरा रस लेने लगें और अपनी ही तरह नव-निर्माण के लिए कुछ करने के लिये उत्सुकता प्रकट करने लगें।
जब तक ‘अपना एक घंटा समय और दस पैसा’ अपने तथा परिवार की सीमा तक ही प्रकाश उत्पन्न करता है तब तक समझना चाहिए कि शिक्षा-दीक्षा पूरी नहीं हुई। अपने घर मुहल्ले-गाँव, प्रान्त में बंटकर कही भी ‘एक से दस’ वाली शृंखला पूरी करनी ही चाहिए। उस बीज की क्या सार्थकता जो नये दस दाने भी उत्पन्न न कर सके। यह नये सदस्य-नये दाने-नये पुष्प भी विकसित होकर इस महान अभियान को अग्रगामी बनाने के लिये तब तक काम करेंगे जब तक कि वे भी नये दस सदस्य न बना लें। हम लोगों की तरह उन्हें भी अपनी प्रथम कक्षा में तभी आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा जब वे भी दस साथियों का-दस उत्तराधिकारियों का-उत्तरदायित्व पूरा कर लें। यह एक से दस की शृंखला अपने ढंग से चलती रहेगी। परिपक्व और प्रशिक्षित वर्ग अगला मोर्चा सँभालता चलेगा।
‘चल पुस्तकालय’ विचार क्रान्ति की दृष्टि से अनुपम परामर्श केन्द्र कहे जा सकते हैं। स्पष्ट है कि मानव जाति की दुर्गति उसका विचार स्तर गिर जाने से हुई है। प्रगति का एकमात्र आधार सोचने और चाहने की दिशा बदल देना ही है। इसके अतिरिक्त पतन को रोकने और उत्थान को गतिशील करने का और कोई मार्ग नहीं। इस परिवर्तन के लिए जिस विचार क्रान्ति की जरूरत है वह युग-निर्माण साहित्य जैसे ज्वलन्त उपकरणों से ही सम्भव है। इस दृष्टि से चल पुस्तकालय की योजना अद्वितीय है। स्थायी पुस्तकालय स्थापित करके भी देख लिये, वहाँ भी केवल घटिया चीजें पढ़ने वाले पहुँचते हैं। उत्कृष्टता की अभिरुचि है ही नहीं तो बेचारा पुस्तकालय भी क्या करे। इस अभिरुचि को जगाना हमारा आरम्भिक कर्म है। चल पुस्तकालय से ही यह प्रयोजन पूरा हो सकता है।
योजना यह है कि एक गाड़ी और साहित्य मँगाने के लिए लगभग एक हजार रुपये की पूँजी जुटाई जाय। प्रबुद्ध व्यक्ति अवकाश के दिन या अवकाश के समय इस गाड़ी को लेकर बाजारों और गली मुहल्लों में जाया करें। पहले विज्ञप्तियाँ पढ़ाने और लौटाने का क्रम चले। पीछे जिनमें रुचि जगती दीखे उन्हें ट्रैक्ट पढ़ने को दिये जायें और जो अधिक आकर्षित हों उन्हें अपना प्रिय साहित्य खरीदने- घर में पढ़ाने और पड़ोसियों को देने का अनुरोध किया जाय। इस प्रकार यह ‘चल-पुस्तकालय’ प्रचार और विक्रय दोनों की ही व्यवस्था बनाये रह सकते हैं। कोई उपयुक्त व्यक्ति मिल जाय तो पूरे समय के लिये उसकी नियुक्ति भी हो सकती है, वह स्वयं भी यह कार्य अपनी ओर से करता रह सकता है। ऐसा सम्भव न हो तो मिल-जुल कर यह चल पुस्तकालय गतिशील रखने का प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। युग-निर्माण शाखाओं का यह अति महत्वपूर्ण संस्थापन है। जो भावना को प्राथमिकता देते हों- उनके लिये भी विदाई वर्ष का हमारा अति महत्वपूर्ण स्मारक बनाने की दृष्टि से भी यह सस्ती किन्तु महंगे मन्दिर, धर्मशालाओं से लाख गुनी अधिक उपयोगी यह चल पुस्तकालयों की योजना है।
सर्वविदित है कि प्राचीन काल में राजसूय यज्ञ अश्वमेध जैसे होमात्मक कर्मकाण्ड के साथ-साथ अस्त-व्यस्त राजनैतिक परिस्थिति को नियंत्रित व्यवस्थित एवं सुसंचालित करने की प्रक्रिया के साथ-साथ सम्पन्न होते थे। उनमें देव पूजन के साथ-साथ संगतीकरण का प्रयोजन भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता था। इसी प्रकार गायत्री यज्ञ जैसे वाजपेय यज्ञों में आहुतियों मात्र का अग्निहोत्र ही न होता था वरन् तत्कालीन भावनात्मक अस्त-व्यस्तता का निरूपण, नियंत्रण एवं परिष्कार करना भी प्रमुख प्रयोजन रहता था। अपनी कार्य पद्धति में वे दोनों तत्व जुड़े हुए हैं जिनके मिलने से वाजपेय यज्ञों की उपयोगिता सिद्ध होती है।
अपने अभियान को यज्ञ आन्दोलन कहा जाता है। उसमें वायु शुद्धि, तत्वों का निवारण, मनो-विकारों का शमन, प्राण वर्षाएं (जल वर्षा मात्र नहीं), देव पूजन, मनुष्य में देवत्व का अभिवर्धन सूक्ष्म जगत में दिव्य चेतना का प्रवाह विश्व शान्ति आदि अनेक प्रत्यक्ष प्रयोजन जुड़े हुए हैं, साथ ही यज्ञीय जीवन जीने की प्रेरणा, दुष्प्रवृत्तियों का हवन और सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन भी जुड़ा हुआ है। यज्ञ संपर्क में आने वाले अपनी असुरता का एक अंश छोड़ें और देवत्व का एक अंश बढ़ायें यह प्रक्रिया भी पूर्ण करनी पड़ती है। मात्र आहुतियाँ देकर पुण्य फल का भागी हो जाना अपनी स्थिति के अनुसार सम्भव नहीं माना जाता। हर याज्ञिक को अपने जीवन में यज्ञीय आदर्श तत्वों को जितनी अधिक मात्रा में समाविष्ट कर सकना सम्भव हो उसके लिए भली प्रकार समझाया और दबाया जाता है। इस प्रकार दो पहियों से चलने वाला अपना रथ भले ही मन्दी गति से चल रहा हो पर अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए सुसंगत ढंग से गतिशील हो रहा है।
इस वर्ष पाँच-पाँच कुण्ड के 200 गायत्री यज्ञों की विशाल शृंखला के अंतर्गत एक अखण्ड सहस्र कुण्डी महायज्ञ किया जाना है, जिनके साथ युग-निर्माण सम्मेलन भी जुड़े हुए होंगे। अग्निहोत्रों की दिव्य धर्म प्रक्रिया के साथ इनमें उस रीति को भी कुशलतापूर्वक मिलाया जाना चाहिए जिससे व्यक्ति का जीवन यज्ञमय बनें और सामाजिक जीवन में प्रेम परमार्थ की यज्ञ परम्परायें चल पड़ें।
यों अक्टूबर 70 में शिविर समाप्त होते ही मई 71 तक छह महीने तक सहस्र कुण्डी, शत कुण्डी यज्ञ करने के लिये जन उत्साह का बाँध टूटा पड़ रहा है। लगता है पाँच प्रान्तों में सहस्र कुण्डी प्रान्तीय गायत्री सम्मेलन होंगे और शत कुण्डी यज्ञों की एक बहुत बड़ी शृंखला चलेगी। फिर भी इन पाँच कुण्डी यज्ञों का अपना महत्व है। इनके माध्यम से ही छोटी देहातों तक में अपने महान आन्दोलन का प्रकाश पहुँचाया जा सकेगा। जिन लोगों ने कुछ महीने का समय देने की उदारता दिखाई है उस समय को इन यज्ञों को उत्पन्न करने व्यवस्थित करने तथा सफल बनाने के लिये योगदान देना है। हमें इन सभी छोटे-बड़े यज्ञों को मात्र अग्निहोत्र न रहने देकर समान जन चेतना जगाने का आधार बनाया जाना चाहिए।
अपने इस गायत्री यज्ञों के साथ-साथ ज्ञान यज्ञ की प्रक्रिया प्रधान रूप से जुड़ी रहेगी। इन यज्ञों के यजमानों को सक्रिय कार्यकर्ता की शर्त-1 घण्टा समय तथा दस पैसा की पूरी करने के लिये प्रोत्साहित किया जाय। इस माध्यम से हम अगणित नए सक्रिय कार्यकर्ता उत्पन्न कर सकते हैं। विज्ञप्तियों का वितरण, मिशन से संबद्ध प्रवचनों की सुव्यवस्थित तैयारी, गाँव की दीवारों को सद्वाक्यों से लिखना, एक घण्टा समय और दस पैसा देने वाले सदस्यों की संख्या-वृद्धि तथा ज्ञानयज्ञ के सच्चे प्रतीक ‘चल-पुस्तकालय’ की स्थापना जैसे कई प्रयोजन उनके साथ सम्मिलित हैं इसके लिये उनकी व्यवस्था में उपरोक्त तथ्यों का कुशलतापूर्वक समावेश करना होगा।
इन सम्मेलनों में ऐसे प्रवचनकर्ता ही आमन्त्रित किये जाने चाहिए, जिनको अपने मिशन का परिपूर्ण ज्ञान हो और योजना के संदर्भ में व्यवस्थित रीति से बोल सकें। अजनबी, अपने मिशन से अपरिचित लोगों को चाहे वे विद्वान या बाबाजी ही क्यों न समझे जाते हों, अपनी व्यास पीठों पर नहीं आने देना चाहिये। अजनबी लोग कई बार ऊट-पटाँग और अव्यवस्थित बकवाद करके सुनने वालों का समय खराब करते और निर्धारित विचारधारा से प्रतिकूल प्रतिपादन करते हैं। हमें इस संदर्भ में बहुत ही सावधान रहना चाहिए कि इतने प्रयत्नपूर्वक बुलाई गई जनता का बहूमूल्य समय केवल अपने प्रतिपादन के अतिरिक्त बेकार की बातें सुनने में नष्ट न होने पावे। अपने वक्ता हमें आप तैयार करने चाहिएं और जिससे प्रवचन कराना हो, उसे बहुत पहले से अपने विषयों की तैयारी करने के लिये कहना चाहिये।
उपरोक्त चार संस्कारों को अपने यज्ञ आयोजनों के साथ जोड़कर हम इन धर्मानुष्ठानों को विश्व की एक महती आवश्यकता पूरी करने में लगा सकते हैं। (1) शिखा रक्षण (मुँडन संस्कार) की व्याख्या में विचार क्रान्ति, (2) यज्ञोपवीत के माध्यम से नैतिक क्रान्ति, (3) आदर्श विवाह संस्कारों के माध्यम से सामाजिक क्रान्ति और (4) वानप्रस्थ संस्कार का प्रचलन करके आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्रान्ति का बीजारोपण कर सकते हैं। यह प्रतीक देखने में छोटे लगते हैं पर गाँधीजी के नमक सत्याग्रह की तरह अन्ततः परतन्त्रता का आमूलचूल उन्मूलन करने में सफल हो सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि यज्ञ-व्यवस्था बनाने के साथ-साथ उपरोक्त चार संस्कार कराने वाले भी तैयार किये जाते रहें और यदि चार दिन के आयोजन हैं तो हर दिन उपरोक्त चार सम्मेलनों का क्रम चलाते हुए- उनके आदर्श-प्रदर्शन तथा मार्मिक प्रवचन जुटाने का प्रबन्ध कर सकते हैं। यहाँ यह भी ध्यान रखना है कि उपरोक्त प्रयोजन पर अपने मिशन के अनुरूप व्याख्या करने वाले प्रवचनकर्ता विशेष रूप से तैयार किये जायं। ऐसे ही उट-पटाँग कुछ भी बकते रहने वाले तथाकथित विद्वानों और बाबाजियों को जनता का समय बर्बाद करने के लिये बोलने को खड़ा न कर दिया जाय। चतुर्मुखी महाक्रान्ति के लिये आग फूँक सकने वाला समर्थ वक्ता ही अपने यज्ञों के मूल प्रयोजन की ओर जनता की मनोदशा मोड़ने में समर्थ हो सकते हैं। सो विशेष सतर्कतापूर्वक उनके लिये भी पहले से ही प्रबन्ध किया जाय। गायन, भजन और संगीत की व्यवस्था यदि की जानी है तो कुछ भी रेंकने लगने के बजाय उनका पहले से ही प्रशिक्षण कर रखना चाहिए।
हम कुछ ही महीनों बाद उग्र तपश्चर्या के लिये एकाँतवास के लिये चले जायेंगे। इससे कोई यह न समझ ले कि हम पलायनवादी बनकर सामने पड़े हुए कर्तव्यों से विमुख हो रहे हैं और व्यक्तिगत स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि की लिप्सा में संलग्न दूसरे स्वार्थी वैरागियों की तरह संसार को माया-मिथ्या बताकर कर्तव्यों से भाग खड़े होने की बात सोच रहे हैं। जिस रीति−नीति को हमने जीवन भर गालियाँ दी हैं और पानी पी-पीकर कोसा है, उसी को हम स्वयं अपना लें और पुरानी सारी मान्यताओं को पलट दें- यह नहीं हो सकता। हम अपनी शक्ति को अति प्रचण्ड करने भर की तैयारी में जा रहे हैं। स्थूल शरीर और स्थूल कार्यक्रमों की शक्ति स्वल्प एवं क्षणिक है। इतने बड़े अभियान के लिये एक भारी बिजली घर की जरूरत है, जो संबद्ध हजारों यन्त्रों को गति देता रहे। अब हम यन्त्र भर न रहकर लोगों की निगाह से दूर रहें, यह हो सकता है पर हर जागृत और जीवित आत्मा यह अनुभव करेगी कि हम उसकी अन्तरात्मा में बैठकर कुहराम मचा रहे हैं नर कीटक एवं नरपशु की जिन्दगी को नर-नारायण के रूप में परिणत होने की शक्ति देंगे। जो लड़खड़ा रहे होगे उन्हें संभालेंगे और जो संभल गये हैं उन्हें आगे बढ़ने के लिये आवश्यक उपकरणों से सुसज्जित करेंगे। हम जा जरूर रहे हैं पर अगले ही दिनों एक अत्यन्त प्रबल और अदृश्य शक्ति के रूप में वापिस लौट रहे हैं। सृजनात्मक एवं संघर्षात्मक अभियानों का नेतृत्व दूसरे लोग करेंगे पर बाजीगर की उँगलियों की तरह अगणित नर पुतलियों को नचाने में हमारी भूमिका भली प्रकार सम्पादित होती रहेगी, भले ही उसे कोई जाने या न जाने। हमारी तपश्चर्या भी वस्तुतः नव निर्माण के महा अभियान की तैयारी के लिये अभीष्ट शक्ति जुटाने की प्रक्रिया भर है। हमें जिस प्रयोजन के लिए भेजा गया है उसे पूरा किये बिना एक कदम भी पीछे हटने वाले नहीं है। युग-परिवर्तन की महान प्रक्रिया अधूरी नहीं रहने दी जा सकती। उसको नियोजित करने के लिये प्रतिभाओं को आगे लाया ही जायेगा। उन्हें इच्छा या अनिच्छा से- देर या सवेर से आगे आना ही पड़ेगा।
हर यज्ञ की स्मृति में एक चल पुस्तकालय की स्थापना का कार्यक्रम पूर्व नियोजित रहना चाहिये। यज्ञ के अन्य खर्चों के साथ एक हजार रुपये में बन सकने वाले चल पुस्तकालय को भी जोड़े रखना चाहिए। प्रयत्न अधिक संग्रह का किया जाय और खर्च बहुत किफायत के साथ। ऐसा करने पर कुछ बचत हो सकती है और उसे स्थानीय आवश्यकताओं के लिये रोकने की अपेक्षा गायत्री तपोभूमि की महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों को सुदृढ़ बनाने के लिये दे देना चाहिए। केन्द्र दुर्बल रहा तो शाखाओं में भी प्रखरता न आयेगी। इस वर्ष हमें अपनी सारी मनोभावनाएं संग्रहित कर केन्द्र को समर्थ और स्वावलम्बी बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए और यज्ञ-आयोजनों से कुछ बचाना हो तो उसे पूरे का पूरा ही मथुरा भेज देना चाहिए।
कहना न होगा कि इस युग की अति महत्वपूर्ण विचारधाराओं में से युग निर्माण की विचारधारा को प्रमुख स्थान मिलना है। रूसो के प्रजातन्त्र सिद्धान्त, मार्क्स के साम्यवाद सिद्धान्त से कुछ बढ़ा-चढ़ा ही अपना ‘व्यावहारिक अध्यात्मवाद’ है। यदि इसका प्रकाश व्यापक हो सका होता तो आज करोड़ों इस प्रक्रिया का अनुसरण कर रहे होते। साधनों के अभाव में विचारधारा केवल हिन्दी भाषी जनता तक सीमित रही है। और उसी छोटे क्षेत्र में जो कुछ बन पड़ा है, किया गया है। अब उसे व्यापक बनाया जाना है तो संसार की सभी प्रमुख भाषाओं में इस ज्ञान गंगा की धारा बहानी होगी, फिलहाल भारतीय जनता को तो इसकी पूरी जानकारी होनी ही चाहिए। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए अंग्रेजी, गुजराती, तेलगू, कन्नड़, मलयालम और सिन्धी भाषा में इसका अनुवाद-प्रकाशन आवश्यक है। तैयारी सब है, केवल पैसे के अभाव में प्रगति रुकी पड़ी है। एक भाषा का टाइप मँगाने, प्रेस लगाने में ही न्यूनतम 4-5 हजार रुपया लग जाता है। उपरोक्त सब भाषाओं के लिये तो बहुत पूँजी चाहिए। इसे हम कहाँ से लायें? कहाँ से पायें? तथाकथित दानी लोग अपनी विज्ञापनबाजी, वाहवाही में तथा सस्ते स्वर्ग-टिकट खरीदने में ही कुछ दे सकते हैं अथवा राजनैतिक दलों से कुछ सीधा स्वार्थ साधन हो जाये वहाँ उनका पैसा जा सकता है। अपने केवल विवेक के आधार पर ही ऊँचा समझे जाने वाले प्रदर्शन रहित के लिये, आज का ‘धनी’ कुछ देने वाला नहीं हैं इसलिए हम छोटे लोग मिलकर ही इस अभाव की पूर्ति करेंगे और बूँद-बूँद से घट भरेंगे। यज्ञों की बचत इस प्रयोजन की पूर्ति में बहुत सहायक हो सकती है। जहाँ पहले बचे पैसे पड़े हों, उन्हें भी इस कार्य के लिये दिया जाना चाहिए।
जिनके पास थोड़ा समय बच सके वे इस साल विशेष रूप से नव निर्माण की नींव चलाने वाले इस महान वर्ष की सफलता के लिए लगा दें। साथियों को कुछ दिन के लिये काम सौंपा जा सकता है, छुट्टियां ली जा सकती हैं। बीमारी या दूसरी मुसीबत आ जाने पर भी ढेरों समय यों ही चला जाता है, इस बार उदारतापूर्वक वैसा करना चाहिए। हमने अपने गुरु को भगवान के रूप में देखा है और उससे कुछ माँगने की अपेक्षा ऊँचे से ऊँचा समर्पण प्रस्तुत करने का ही साहस किया है। अब तक की जीवन-अवधि तथा यदि कुछ भौतिक सम्पदा थी तो उन्हीं के चरणों पर चढ़ाई है। ईश्वर भक्ति या गुरुभक्ति में पाने का नहीं, देने का ही तत्वज्ञान सन्निहित है। जिनकी समझ में यह बात आ जाय, वे इस परीक्षा जैसे समय में- आपत्ति धर्म जैसी आवश्यकता अनुभव करते हुए कुछ समय निकालें।
काम कितने ही करने को पड़े हैं। संस्था का नया संगठन होना है। अब एक घण्टा समय और दस पैसे देने वाले सक्रिय व्यक्ति ही संगठन के सदस्य रहेंगे। इसलिए सदस्यों की संख्या बढ़ाना आवश्यक है। पुराने लोगों में से कुछ तो निकल ही सकते हैं। शेष प्रबुद्ध वर्ग में से नये लाने पड़ेंगे, यह संगठन कार्य अपने क्षेत्र में यह समयदानी ही जन-संपर्क स्थापित कर सकते हैं। ‘चल पुस्तकालय’ की स्थापना का इस वर्ष एक बड़ा लक्ष्य है। किन्हीं माध्यमों से इसके लिये पूँजी जुटाना और उन्हें सुचारु रूप से चलाने का क्रम बिठाना एक बहुत बड़ा काम है, जिन्हें समयदानी ही करेंगे। शिविरों में आने के लिये अन्तिम मिलन के लिये प्रतिभाशाली व्यक्तियों को प्रेरित करना और उन्हें घसीटकर लाना भी छोटा नहीं, बड़ा काम है जिसके लिये काफी समय लगाया जायगा। इस वर्ष 5 कुण्डी 200 यज्ञ होने वाले हैं। इसके अतिरिक्त शतकुण्डी 40 और सहस्रकुंडी 5 यज्ञ भी होने जा रहें हैं। इनके लिये काम करना भी समयदान से ही सम्भव है। सुयोग्य प्रतिभाएँ अन्य भाषाओं में अनुवाद करने का कार्य कर सकती हैं और केन्द्रीय कार्यक्रमों में इस वर्ष अति विशालता आ जाने से उन्हें भी संभालने की जरूरत है। ऐसे अनेक कार्यों में सहयोग कर सकने वाले समयदानी नव निर्माण की नींव में अपनी उदारता को अर्पण कर उसे इतनी मजबूत बना सकते हैं, जिस पर युग परिवर्तनकारी महान प्रक्रिया का दुर्ग खड़ा किया जा सके।
समय की तरह ही मिशन को पैसे की भी जरूरत है। जहाँ वह क्षुद्र प्रयोजनों में लगा है, वहाँ से उठाकर उसे महान प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त किया जाना चाहिए। (1) अगले दिनों हमें एक महान क्रान्तिकारी शिक्षा-योजना का शिलान्यास, संगठन और प्रसारण करना है, उसके लिये विश्व-विद्यालय स्तर का एक समर्थ तन्त्र खड़ा करना है। (2) हिन्दु समाज में जिस प्रकार धर्म मंच के माध्यम से हम क्रान्तिकारी परिवर्तन कर रहे हैं, उसी प्रकार अन्य धर्मों की परम्पराओं को साथ लेते हुए उसी वर्ग के लोगों द्वारा वैसा ही प्रयोग करना है जैसा हम अपने समाज के लिये कर रहे हैं। ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, यहूदी, पारसी आदि संसार के विभिन्न धर्मों के लिये ‘उद्देश्य एक स्वरूप अनेक’ का प्रयोग करना है। (3) कला की कामुक एवं विनाशोन्मुख प्रवृत्तियों को मोड़कर उसे एक नई दिशा देनी है। साहित्य, संगीत, काव्य, चित्र, अभिनय आदि कला के सभी पक्षों का परिष्कार कर उसे विनाश के चंगुल से विमुक्त कर विकास में नियोजित करना है। फिल्म उद्योग को भी नई दिशा दी जानी है। (4) अनीति और अनाचार, मूढ़ता और मूर्खता-कुरीतियों और कुनीतियों के विरुद्ध व्यापक संघर्ष मोर्चे खोलने हैं, जिनमें विवाहोत्सव से लेकर अपराधी मनोवृत्ति तक हर मोर्चे पर शाँति सैनिकों द्वारा जूझना है। इसलिये विरोध असहयोग, सत्याग्रह से लेकर घिराव तक के हर शस्त्र को काम में लाया जाना है।
अगले वर्ष इन चार मोर्चों पर अपनी चतुरंगिणी सेना लड़ेगी। राजनीतिज्ञों और सैनिकों ने इतिहास के आरम्भ से ही अस्त्र-शस्त्रों से लड़ी जाने वाली बहुत-सी लड़ाइयाँ लड़ी हैं। दो महायुद्ध तो गत पचास वर्षों में ही हो चुके हैं। उसके परिणाम देखे जा चुके। तीसरे अणु युद्ध की तैयारी है। कहा जाता है कि इसके बाद चौथा युद्ध लड़ा गया तो वह ईंट-पत्थरों से लड़ा जायगा क्योंकि जब मनुष्य जाति अपनी अब तक की समस्त उपलब्धियाँ इस तीसरे युद्ध में समाप्त कर चुकी होगी।
एक नया युद्ध हम लड़ेंगे। परशुराम की तरह लोक मानस में जमी हुई अवाँछनीयता को विचार अस्त्रों से हम काटेंगे। सिर काटने का मतलब विचार बदलना भी है। परशुराम की पुनरावृत्ति हम करेंगे। जन-जन के मन-मन पर गहराई तक मढ़े हुए अज्ञान और अनाचार के आसुरी झण्डे हम उखाड़ फेकेंगे। इस युग का सबसे बड़ा और सबसे अन्तिम युद्ध हमारा ही होगा, जिसमें भारत- एक देश न होगा महाभारत बनेगा और उसका दार्शनिक साम्राज्य विश्व के कोने-कोने में पहुंचेगा। निष्कलंक अवतार यही है। सद्भावनाओं का चक्रवर्ती सार्वभौम साम्राज्य जिस युग अवतारी निष्कलंक भगवान द्वारा होने वाला है वह और कोई नहीं विशुद्ध रूप में अपना युग-निर्माण आन्दोलन ही है।
महान सम्भावनाएँ हम उत्पन्न करेंगे। उसके लिये सचाई और सद्भावना भरे उत्कृष्ट तपनिष्ठों की जरूरत है। इसी को इन दिनों विरजा और बीना जा रहा है। विदाई वर्ष का प्रयोजन यह है कि प्रतिभाओं और विभूतियों को आमन्त्रित, प्रशिक्षित एवं परिवर्तित कर उस प्रयोजन में लगा दिया जाय जिससे संस्कृति की रात्रि लंका को असुरता के चंगुल से छुड़ाने के लिये चतुर मनुष्य न मिल सकने पर रीछ वानरों को एकत्रित एवं प्रेरित किया गया था।
इस ऐतिहासिक घड़ी, में हमारे सुसंस्कारी परिजन अपने अवतरण को सार्थक बनाने के लिये कुछ महान भूमिका सम्पादित कर सकें, इसीलिये विदाई वर्ष हर किसी को बार-बार विविध विधि उद्बोधन प्रस्तुत करने में संलग्न है। आशा है यह प्रयास निरर्थक न जायेगा। कुछ आत्माएँ अपनी निद्रा छोड़कर सक्रियता की ओर अवश्य बढ़ेंगी। कौन क्यों करता है, इसी की प्रतीक्षा और कसौटी इस विशेष वर्ष के रूप में सामने आ खड़ी हुई है।