भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति

May 1970

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आस्ट्रेलियाई समुद्र में दूर तक एक मूँगों की चट्टान पाई जाती है। इस भीमकाय चट्टान की जानकारी रखना प्रत्येक नाविक के लिये आवश्यक है क्योंकि यदि अनजाने कोई जहाज उधर भटक जाये तो वह उससे टकरा कर चूर-चूर हुये बिना नहीं रह पाता।

इस “मूँगों की चट्टान” का इतिहास भी प्रकृति का एक चमत्कार ही है। मूँगे के असंख्यात कीड़े अपना घर बनाते हैं, कालान्तर में एक पीढ़ी नष्ट हो जाती हैं पुराना घर खाली पड़ा रह जाता है। इसी तरह विकसित होते-होते एक मूँगे के परिवार ने इतनी बड़ी चट्टान का सुदृढ़ और भीमकाय रूप ले लिया। देखने-सुनने में यह आश्चर्य जैसा लगता है किन्तु इसकी सत्यता में तनिक भी सन्देह नहीं है।

भारतीय संस्कृति भी ऐसे ही एक आदि उद्गम से प्रारम्भ होती है। ईश्वरीय इच्छा से सनातन सत्ता में क्षोभ पैदा होना, रजोगुणी आपः सृष्टि का निर्माण अनेक ब्रह्माण्डों की रचना, पृथ्वी का अस्तित्व में आना, उसका आग्नेय रूप धीरे-धीरे ठण्डा पड़ना, हिरण्य गर्भ ब्रह्मा का आविर्भाव आदि पुरुष मनु का जन्म और फिर समाज विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे आज के विविधता पूर्ण पार्थिव जीवन में परिवर्तित हो गई। भारतवर्ष में उदित इस दर्शन और तत्वज्ञान के प्रकाश में मानव मात्र के कल्याण के लिये जो आदर्श और आचार संहितायें तैयार की गई उन्हें ही भारतीय संस्कृति कहते हैं यह संस्कृति ही आदि काल से विश्व संस्कृति के रूप में प्रतिष्ठित हुई है।

यह एक आश्चर्य ही है कि ब्रह्माण्ड के विकास के वैज्ञानिक सिद्धान्तों और भारतीय तत्वज्ञान में जबर्दस्त सामंजस्य है इसीलिये यह कहा जा सकता है कि न केवल समाज को सुव्यवस्थित रखने वाले जो तत्व अर्थात् अहिंसा प्रेम, दया, अस्तेय, सहयोग, सहिष्णुता, उदारता आदि वैज्ञानिक कसौटी पर खरे सिद्ध होते हैं वरन् आत्मा-परमात्मा, परलोक-पुनर्जन्म, कर्मफल, जीवन लक्ष्य, स्वर्ग मुक्ति और अमरत्व की प्राप्ति का सम्पूर्ण तत्व-दर्शन भी विज्ञान से पृथक नहीं है। जब हम इनकी वैज्ञानिक प्रतिदानों से, प्रमाण और मीमाँसाओं से तुलना करने लगते हैं तो यह विश्वास प्रगाढ़ हो उठता है कि भारतीय धर्म और संस्कृति का जन्म अपौरुषेय अर्थात् ईश्वरीय इच्छा से परिपूर्णता लिये हुये हुआ इसीलिये उसे शाश्वत, सनातन और विश्व संस्कृति भी कहते हैं। भारतीय संस्कृति अपने इस रूप में हिंदुओं की ही निधि नहीं वरन् सारे विश्व के लिये एक ऐसी आचार संहिता है, जिसके अनुरूप अपने जीवन को ढालकर देश काल और विभिन्न परिस्थितियों में बँटी जातियों, समाज और व्यक्ति इस पार्थिव जीवन को भी सफल बना सकते हैं और मरणोत्तर जीवन के प्रति भी पूर्ण निर्भय और निश्चिंत होकर इस पंच भौतिक शरीर का परित्याग कर सकते हैं।

इतना बढ़िया समन्वय संसार की किसी भी संस्कृति में नहीं हुआ। विभिन्न स्थानों पर रहते हुए अनेक लोगों ने अनेक प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं-प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म दर्शन लिपि, भाषा तथा कला का विकास कर तरह-तरह के धर्म और संस्कृतियाँ विकसित कीं वह पानी के बुलबुले की तरह बनती बिगड़ती रही; पर भारतीय संस्कृति आज भी चट्टान की तरह सुदृढ़ बनी हुई है जबकि पाश्चात्य संस्कृति के पैर लड़खड़ा उठे और उसने हिप्पीवाद जैसी विद्रूप सन्तति को जन्म देना प्रारम्भ कर दिया। तब भी भारतीय समाज अपनी वैयक्तिक, सामाजिक, पारिवारिक और यथाशक्य राजनैतिक परिस्थितियों पर भी शान्ति और व्यवस्थायें बनाये रखने में समर्थ दिखाई दे रही है।

मिस्र और बेबीलोन की संस्कृतियाँ कभी भारतीय संस्कृति की समता करती थीं, वे आज नष्ट प्रायः हो चुकीं। फिनिशयन, चाल्डियन, सिथियन संस्कृतियाँ अब पुराण काल के पन्नों में रह गई हैं? सरमेशिया, रुशमे आदि जातियाँ जो कभी अपनी-अपनी अलग संस्कृति बनाये हुये थीं वह अब दिखाई भी नहीं देती। ईसाई धर्म, इस्लाम, परसियन धर्म और संस्कृतियों का इतिहास बहुत थोड़े दिनों का है इतने दिनों में ही उनमें अन्तर्विरोध की भीषण ज्वालायें भड़की हैं वहाँ पर भारतीय संस्कृति ने इस युग में भी अपने गौरव को सुरक्षित किया हुआ है और अब तो वह पुनः विश्व-संस्कृति के रूप में विकसित होने जा रही है।

भारतीय संस्कृति किसी जातीय तथ्य पर आधारित नहीं है। जिस तरह आज का राष्ट्र-संघ अमेरिका से संचालित होता है उसी प्रकार धर्म और संस्कृति के सभी परिवर्तन व अपरिवर्तनशील अंग अर्थात् रहन-सहन, आहार-विहार, वेष-भूषा, शिक्षा-दीक्षा, गृहस्थ-दाम्पत्य, पूजा, उपासना, सामाजिक नियमोपनियम, जातीय संगठन और राज्य संचालन आदि का निर्धारण भारतवर्ष से होता रहा है। भारत में जन्म होने के कारण उसे भारतीय संस्कृति कहते हैं किन्तु वह सारे विश्व की संस्कृति रही है दुनिया भर की जातियाँ यहाँ के मार्गदर्शन पर काम करती थीं, संस्कृति का अपरिवर्तनीय पहलू जिसे धर्म या तत्वदर्शन कहना चाहिये वह तो मूल रूप से यहीं से विकसित हुआ है सामाजिक व्यवस्थायें और आचार संहिताओं में परिवर्तन कर लेने के कारण वे पृथक से दिखाई देने लगे हों यह एक अलग बात हैं अन्यथा भारतीय वाङ्मय में आये नाम-शक, आन्ध्र, चंदन, असुर राक्षस, कपि, महिष दैत्य, दानव नाग, कैवर्त्त, निषाद, किरात, पुलिंद पारद, पल्लव, दस्यु, खस, द्रविड़ पौण्ड्र, औण्ड्र, कम्भोज दरद, शबर आदि नाम इस बात के प्रमाण हैं कि उनका सम्बन्ध यहाँ से सदैव जुड़ा रहा है वे या तो साधनों की खोज में बाहर गई और बस गई या बाहर बसी हुई जातियों से विकसित होती रहीं पर उन्होंने धार्मिक दृष्टि से अपना सम्बन्ध भारतीय संस्कृति से सदैव जोड़ कर रखा था और जब भी उनमें से कोई विदेश से चलकर भारत आ जाता था तो यहाँ उन्हें पहले की ही तरह सम्मानित किया जाता था। थोड़े दिन उनके आचार-विचार आदि की-परीक्षा की जाती थी और तब फिर उन्हें गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्यों के रूप में स्वीकार कर लिया जाता था। धीरे-धीर वे हिन्दुओं में ही पूरी तरह घुल मिल जाते थे। उन्हीं में अनेक विवाह आदि सम्बन्ध भी होने लगते थे। इस तरह भारतीय संस्कृति उस समुद्र की तरह रही है जिससे संसार की सभी जातियाँ सैकड़ों नदियों की तरह आकर मिलीं पर समुद्र अपनी गम्भीरता, विशालता, एकता, अविच्छिन्नता, शान्ति कान्ति और समृद्धि में अपनी सत्ता को अलग ही बनाये रहा। अनेक साँस्कृतिक क्रान्तियों के बाद भी भारतीय संस्कृति स्थिर बनी रही। सामाजिक रीति-रिवाज बदलते जरूर रहे, बदलना आवश्यक भी था और है भी पर उसके सिद्धान्त जो मानव मात्र की एकता और कल्याण की दृष्टि से बनाये गये वह अन्त तक- अब तक स्थिर और अपरिवर्तनीय रहे और रहेंगे।

भारतीय संस्कृति का विदेशों में विकास उसकी अपनी महिमा और उदारता के कारण हुआ है तथापि कई बार ऐसा शस्त्र और शौर्य से भी किया गया है। “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” ‘हम संसार को सभ्य बनायेंगे” ऐसा इस देश का लक्ष्य रहा है। उसके लिये भारतीय संस्कृति द्वारा प्रवाहित ज्ञान-धारायें जब काम नहीं कर सकीं तो अस्त्र भी उठाये गये हैं और उसके लिये सारे विश्व ने साथ भी दिया है। महाभारत का युद्ध हुआ था उसमें काबुल, कन्धार, जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहल, आर्यदेश (आयरलैण्ड), पाताल (अमेरिका) आदि देशों के सम्मिलित होने का वर्णन है यह विश्व युद्ध था।

भारतीय संस्कृति माता है और विश्व के तमाम देश, अनेक संस्कृतियाँ और जातियाँ उसके पुत्र-पुत्री, पोता-पोती की तरह हैं। घर सबका यही था, भाषा सबकी यहीं की- संस्कृत थी, और संस्कृति भी यहीं की थी जो कालान्तर में बदलते-बदलते और बढ़ते-बढ़ते अनेक रूप और प्रकारों में उसकी तरह हो गई जैसे आस्ट्रेलियाई मूँगों की दूर-दूर तक फैली हुई चट्टान।

आज जब सारा संसार भेद-भाव, स्वार्थ-पाखण्ड, छल-कपट, हिंसा और जोर-जबर्दस्ती की विद्रूप सभ्यता में उतर आया है तब भारतीय संस्कृति ही एक और अन्तिम समर्थ संस्कृति है जिसकी छाया में बैठकर हम विश्व की सम्पूर्ण जातियाँ अपने आपको एक ही ईश्वर के पुत्र भाई-भाई मानेंगी और मानवतावादी सिद्धान्तों के परिपालन के लिये विवश होंगी।


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