जीव-शास्त्री एक ओर-प्रकृति एक ओर

May 1970

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विचित्र प्रकार के जीव-जन्तुओं के लिये न्यूयार्क (अमेरिका) का चिड़ियाघर विश्व-प्रसिद्ध है। कई वर्ष पूर्व यहाँ एक ऐसा सर्प लाया गया, जिसके दो सिर थे। भारतवर्ष में एक ‘दुमुहा’ नामक सर्प पाया जाता है, इसके दोनों तरफ मुख होते हैं। किंवदन्ती है कि यह सर्प 6 माह एक तरफ के मुख से चलता है, 6 माह दूसरी ओर से। पर न्यूयार्क का सर्प था, जिसके एक ही तरफ दो मुख थे। दोनों मुख लगभग 3-3 इंच के थे। दोनों में दो दो आँखें, नाक, कान और जीभें भी थीं। श्वाँस और भोजन ग्रहण करने की नली भी दो थीं, जो आगे चलकर मिलतीं और एक हो जाती थी।

जीवित प्राणी की सूक्ष्मतम इकाई संस्कार कोष (जीन्स) के गहन अध्ययन के बाद जीव शास्त्रियों ने एक सिद्धान्त निश्चित किया है कि बच्चा जैसा कुछ बनता है, चाहे वह शरीर की बनावट, रंग-रूप हो अथवा उसके गुण स्वभाव सभी इन संस्कार कोषों पर निर्भर है। काले माता-पिता की सन्तान काली, श्वेत की श्वेत, दुर्गुणी की दुर्गुणी और सभ्य, सज्जन माता-पिता की सन्तान सुशील और सदाचारी। रासायनिक प्रतिक्रिया की भाँति जैसा कुछ ऊपर से मिलता है, आगे का प्राणि जगत वैसा ही बनता चला जाता है। लाल गुलाब के फूल को दूसरे वर्ण के गुलाब के फूल में तब तक नहीं बदला जा सकता, जब तक उससे भिन्न जाति के गुलाब से संकरण न कराया जाये।

एक ओर जीव-शास्त्रियों का यह मत दूसरी ओर यह अपवाद हमें यह सोचने के लिये बाध्य करता है कि प्रकृति जहाँ नियमितता पसन्द करती है, वहाँ उसमें एक विचार शक्ति भी काम करती है। अपनी इस स्वाधीनता को ही वह जब-तब ऐसे अनोखे निर्माणों के रूप में प्रकट करती रहती है। ऐसे अपवाद हमें यह सोचने को विवश करते हैं कि पदार्थ में भी एक मस्तिष्क काम करता है, जो रासायनिक चेतना से कहीं अधिक सशक्त और सम्वेदनशील है, वह जीव-शास्त्रियों के बनाये नियमों तक सीमित रहने के लिये बाध्य नहीं। उसकी क्रिया-पद्धति अपनी तरह की अनोखी और मनोविनोद से परिपूर्ण है।

साँप के कहीं दो सिर नहीं होते, इसलिये क्रमागत सन्तानों में भी अनन्त काल तक ऐसी विशेषता नहीं पाई जानी चाहिये थी, फिर सर्प के दो मुख क्यों हो गये। मजेदार बात तो यह थी कि दोनों मुखों के दो मस्तिष्क दो व्यक्तित्व भी थे। जब कभी एक मुख कोई शिकार पकड़ता लोभी व्यक्ति की तरह दूसरा भी उस पर झपट पड़ता। स्वार्थी व्यक्ति की भाँति प्रेम, समता, आत्मीयता और सहिष्णुता के सारे गुणों को भुलाकर पहला मुख दूसरे मुख से जूझ पड़ता और जब ‘जुआरी’ जिस तरह अपनी ही छाया से लड़ पड़ता है, दोनों सिरों में भयंकर युद्ध छिड़ जाता। कभी-कभी तो दोनों लहू-लुहान हो जाते। इस बीच शिकार भी हाथ से निकल जाता। साँसारिक समस्याओं में उलझा हुआ मनुष्य जिस प्रकार अन्तकाल में अपने पाप और भूलों के लिये पछताया करता है, दोनों सिर भी पछताते रहते। जबकि दोनों के पेट एक ही था, उन दोनों का लड़ना लोगों की दृष्टि में भारी मूर्खता थी पर मनुष्य भी तो वैसी ही भूल सदैव करता रहता है, एक ही आत्मा के अनेक अंश होकर एक दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति न रखकर मनुष्य जाति का निजी स्वार्थों के लिये परस्पर लड़ना भिड़ना इस सर्प की मूर्खता से कम नहीं। भले ही सर्प को जैसे ‘किंगस्नेक’ नाम दिया गया, मनुष्य को भी ‘बुद्धिशील प्राणी’ क्यों न कहा जाता हो, अपनी इस धूर्तता के लिये वह अन्ततः मूर्ख ही है। इस तरह की स्वार्थपरता के कारण मनुष्य जाति अन्ततः अपना अहित इस सर्प की तरह ही करती है।

एक दिन किसी बात पर दोनों सिर झगड़ बैठे। एक ने आवेश में आकर दूसरे को मुख में भर लिया। मनुष्य जाति जिस तरह धन से नहीं अघाती और अधिक, और अधिक की तृष्णा में सामाजिक विषमता उत्पन्न करती है, साँप ने उसी तृष्णा में दूसरे मुख को अन्त तक निगल लिया। चिड़ियाघर के अधिकारी दौड़े। किसी तरह दोनों को छुड़ाया पर दुर्गति ऐसी हो गई थी कि अन्ततः वह सर्प मर ही गया। लगता है प्रकृति ने मनुष्य जाति की दोरंगी स्थिति को समझने के लिये ही यह एक मनोविनोद पूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया था पर लोगों ने उससे कोई शिक्षा कहाँ ग्रहण की।

मनुष्य न समझे न सही पर प्रकृति तो उसे अपना समझदार बेटा मानती है, इसलिये दण्ड कम देती है, हँस-हँसकर समझाती ही अधिक है। ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत करती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि मिट्टी और पदार्थों से बने इस संसार को मृतक नहीं समझना चाहिये, यहाँ के प्रत्येक कण में एक मन है, मस्तिष्क है, जो मनुष्य के समान ही स्वाधीनता पूर्वक काम कर सकने में समर्थ है, नियमबद्ध तो वह केवल इसलिये है कि उसी से संसार का अस्तित्व बना हुआ है, यदि मनुष्य की भाँति प्रकृति भी उद्दण्ड और अनुशासन भंग कर स्वेच्छाचारिणी हो गई होती तो एक ही दिन में चन्द्रमा पृथ्वी से, पृथ्वी सूर्य से टकरा जाते। सब नक्षत्रों में विस्फोट हो जाता। पृथ्वी जल हो जाती, जल हवा में उड़ जाता। समूची प्रलय उमड़ पड़ती और सृष्टि का अन्त ही हो जाता। एक प्रकार से सृष्टि अनुशासन पर टिकी है और पंच-तत्व भी उसका नेक और ईमानदार बालक की भाँति पालन करते हैं।

बच्चा बुरा काम करता है, बुरा बोलता है, माँ उसे हँसकर समझाती है, इसमें वह अपने क्रोध से भी बच जाती है और बच्चे का मन भी भारी नहीं होता। यह उदाहरण प्रकृति के ऐसे विनोद को प्रकट करते हैं और संसार में सर्वत्र देखने को मिलते हैं।

बहुत दिन पहले जापान में एक मुर्गा उत्पन्न हुआ था। जैसे सब मुर्गे होते हैं, ऐसा ही यह भी था, किन्तु इस मुर्गे की पूँछ असामान्य रूप से लम्बी अर्थात् पूरे 30 फुट की लम्बी थी। जैसे किसी पेटू आलसी और मुफ्त का माल मारने वाले का पेट इतना मोटा हो जाता है कि उसका चलना-फिरना भी कठिन हो जाता है, अपनी इस अनावश्यक लम्बी पूँछ के कारण ‘याकोहामा काक’ नामक यह मुर्गा भी चल-फिर नहीं पाता था। एक पिंजरा बनाया गया था। उसमें बैठने के लिये एक ऊँची डाल जैसी बनाई गई थी, बेचारा दिन भर उसी में बैठा अपने पूर्वजन्मों की तृष्णा और संग्रह वृत्ति की याद करके दुखी होता रहता था। हिन्दू-जाति जिस तरह अनावश्यक रूढ़िवादी परम्पराओं की पूँछ लगाये सारे संसार को अपने पर हँसा रही है। इस मुर्गे को जो भी देखता हँसे बिना नहीं रहता था। कभी-कभी वह बाहर निकाला जाता था तो दो-तीन नौकर उसकी पूँछ ऊपर उठाकर चलते थे। तब थोड़ा बहुत घूम भी पाता था, नहीं तो बहुत पाकर भी वह गुमसुम बैठा ही रहता था। संसार में आने और आनन्द लूटने के कोई भी प्रयोजन यह मुर्गा लूट नहीं पाया। वह अपनी सम्पदा पर क्षुब्ध बना रहा और प्रकृति इस माध्यम से दूसरों को समझाती रही- “अनावश्यक भंडार भरने का यही फल होता है।

मनुष्य जाति यों शरीरों से भिन्न प्रतीत होती है पर इच्छायें, आकाँक्षायें, आवश्यकतायें सब की एक तरह की हैं। संसार में व्यवस्था बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि इच्छाओं और आवश्यकताओं के औचित्य पर विचार किया जाये। और सबको आवश्यकता के अनुसार जीवनदायी सुविधायें मिलती रहें। इसकी एक शर्त है, वह यह कि लोग अपने लिये कम से कम चाहें समाज के लिये अधिकतम देने की भावना रखें। देने वाला घाटे में नहीं रहता पर जिसे केवल अपनी ही सूझती है, वह अफ्रीका में कुछ दिन पूर्व मिले एक कछुये के समान जहाँ होता है, वहीं चक्कर काटता रहता है, वह न तो पैसे भर की प्रगति कर पाता है और न ही संसार में आने का कोई उपयोग कर पाता है।

इस कछुए के साथ भी प्रकृति ने गहरी मजाक की थी। गोल आकृति वाले इस कछुये के भी दो सिर थे। दोनों के लिये दो-दो पैरों का विभाजन प्रकृति ने कर दिया था। पर उनमें कभी समझौता नहीं हो सका। एक सिर पूर्व की ओर तैरना चाहता तो दूसरा पश्चिम को। परिणाम यह होता कि वह जहाँ का तहाँ चक्कर काटता रह जाता। भारतवर्ष को स्वतंत्रता प्राप्त किये आज 22 वर्ष हो गये पर अपनी खींचा-तानी प्रवृत्ति के कारण यहाँ के निवासी जितने दुःखी, पराधीनता में थे, स्वाधीनता में उस कछुये के समान ही हैं-उससे भी अधिक। स्वतंत्रता दूसरे मुख की तरह सिद्ध हो रही है, जो उसे वहीं की वहीं घुमा रही है, जबकि होना चाहिये था कि यहाँ के लोग प्राप्त अवसर, सुविधा और साधनों का बहुमुखी उपयोग करते स्वयं भी चलते औरों को भी चलने देते तो आज सर्वतोन्मुखी उन्नति के दर्शन होते। प्रकृति हँसकर रह गई पर मनुष्य का दुर्भाग्य कि वह कछुये के समान इधर जाऊँ या उधर इसी उधेड़-बुन में पड़ा है।

प्रकृति केवल इन जीवों से ही मनोविनोद नहीं करती वरन् वह मनुष्यों के साथ भी ऐसे खिलवाड़ करती और यह समझती है कि मनुष्य की प्रकृतियाँ निम्नगामी हों तो वह एक प्रकार से पशु ही है। सामान्य रूप से वह भले ही मनुष्य लगता हो।

दण्डकारण्य क्षेत्र (जगदलपुर) के एक कबायली परिवार में नर सैया नामक गोंड के एक पुत्र हुआ, जिसकी छोटी-पूँछ भी थी। यह लड़का जिसका नाम हनमैया रखा गया, जब 14 वर्ष की आयु का हुआ, तो उसकी पूँछ काफी बढ़ गई। बस्तर में महारानी अस्पताल के सिविल सर्जन डॉ. ए. सी. गौड ने लड़के की परीक्षा करके बताया कि लड़के के सामान्य रूप से हाथ पैर बढ़ने के साथ-साथ पूँछ भी बढ़ रही है। पूँछ गोलाकार है और रीढ़ की सबसे नीचे तिकोनी हड्डी के एक इंच ऊपर है, लड़का जब चलता है, तब वह पेण्डुलम की तरह हिलती है।

लम्बर्च (द. अफ्रीका) में एक स्त्री ने असमय प्रसव में एक बच्चे को जन्म दिया, जिसका मुख भैंस के बच्चे की तरह था उसके शरीर में बाल भी थे और काफी बड़े मालूम पड़ते थे।

इसी प्रकार सहपऊ (मथुरा) से दो मील दूर गाँव कौकना खुर्द के श्री नेत्रपाल के यहाँ एक ऐसे बच्चे ने जन्म लिया, जिसके सर पर तीन सींग थे तथा दो आँख थीं, सर पर गड्ढा था। जन्म से थोड़ी देर बाद ही मर गया। पशु जैसी त्वचा, लम्बे नाक, कान और दीर्घाकार मुख वाली एक कन्या ने मद्रास के बाल-कल्याण केन्द्र में जन्म लिया। इसे देखने के लिये इतनी भीड़ इकट्ठी हो गई कि पुलिस बुलानी पड़ी।

यह उदाहरण जहाँ प्राणि-शास्त्रियों द्वारा नियत सिद्धान्तों का खंडन करते हैं, वहीं यह बताते हैं कि प्रकृति का मस्तिष्क निरन्तर हँसता हुआ लोगों को सिखाता, समझाता रहता है। जब वह यह समझती है कि उसकी परावाणी समझना मनुष्य के वश की बात नहीं, तब वह ऐसे विचित्र खेल भी दिखाती है पर तो भी यदि मनुष्य अपनी भूलें नहीं सुधारता, अपने मनुष्य शरीर में आने का उद्देश्य पूरा नहीं करता तो वह अन्त में प्रकृति के कोप का भाजन भी बनता है। तब वह अपने दूसरे समर्थ हथियार प्राकृतिक प्रकोप, युद्ध, महामारी और प्रलय के दृश्य उपस्थित कर मनुष्य को सीधी तरह सोचने और करने को बाध्य करती है। अब यह हमारे अपने वश की बात है कि हम उसके वात्सल्य का लाभ अपने आचरण सुधार कर लें या अपना मार्ग न सुधार कर उसे दण्ड ही देने को बाध्य करें।



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