धन यहाँ न सही कहीं और सही

May 1970

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एक व्यक्ति के पास बहुत धन था, पर स्वभाव से वह था कंजूस। न स्वयं खा-पी सके और न किसी को दे ही सके। घर में अपने धन को इसलिये नहीं रखता था कि कोई चोर-डाकु न चुरा ले। अतः गाँव के बाहर एक जंगल में गड्ढा करके अपना सारा धन गाड़ आया। दूसरे-तीसरे दिन जाता और उस स्थान को चुपचाप देख आता। उसे अपने पर बड़ा गर्व था।

एक बार एक चोर को शक हुआ, वह कंजूस के पीछे-छिपे चुपचाप गया और छिपकर देख आया। उसे समझते देर न लगी कि स्थान पर अवश्य कोई मूल्यवान वस्तु दबी है। जब कंजूस चक्कर लगाकर घर चला आया तो उस चोर ने खुदाई करके सारा धन प्राप्त कर लिया और वहाँ से रफूचक्कर हो गया।

दूसरे दिन जब वह कंजूस फिर अपने छिपे धन को देखने गया तो उसे जमीन खुदी हुई दिखाई दी। आस-पास मिट्टी का ढेर लग रहा था और बीच में एक खाली गड्ढा था। उसका सारा धन जा चुका था। इतनी बड़ी हानि वह सहन नहीं कर सका। माथा पकड़कर जोर से रोने-चिल्लाने लगा- “हाय मैं तो लुट गया, मेरे सारे जीवन की कमाई चोर ले गये।”

रोना-चिल्लाना सुनकर जंगल में रहने वाले आस-पास के कई आदमी आ गये। उन्होंने पूछकर सारी स्थिति जानी। एक आदमी ने समझाते हुये कहा- “सेठ जी! धन तो आपके काम पहले भी न आया था, और न आपके जीवन में आ सकता था। हाँ उस पर आपका अधिकार अवश्य था और उसे यहाँ छिपाकर रख छोड़ा था। अब यदि यहाँ से कहीं और जगह चला गया तो आपको कौन-सी हानि हो गई, क्योंकि आपके लिए तो वह बेकार ही था। ऐसी स्थिति में दुःखी होने की क्या आवश्यकता है।”


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