चमत्कारिक शक्तियों का स्रोत मस्तिष्क

May 1970

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अपनी उंगलियों के नापने पर 96 अंगुल के इस मनुष्य शरीर का वैसे तो प्रत्येक अवयव गणितीय आधार पर बना और अनुशासित है पर जितना रहस्यपूर्ण यन्त्र इसका मस्तिष्क है, संसार का कोई भी यन्त्र न तो इतना जटिल, रहस्यपूर्ण है और न समर्थ। यों साधारणतया देखने में उसके मुख्य कार्य- 1. ज्ञानात्मक, 2. क्रियात्मक और 3. संयोजनात्मक हैं पर जब मस्तिष्क के रहस्यों की सूक्ष्मतम जानकारी प्राप्त करते हैं तो पता चलता है कि इन तीनों क्रियाओं को मस्तिष्क में इतना अधिक विकसित किया जा सकता है कि (1) संसार के किसी भी एक स्थान में बैठे-बैठे सम्पूर्ण ब्रह्माँड के किसी भी स्थान की चींटी से भी छोटी वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। (2) कहीं भी बैठे हुए किसी को कोई सन्देश भेज सकते हैं, कोई भार वाली वस्तु को उठाकर ला सकते हैं, किसी को मूर्छित कर सकते हैं, उस पर स्वामित्व और वशीकरण भी कर सकते हैं। अष्ट सिद्धियाँ और नव-निद्धियाँ वस्तुतः मस्तिष्क के ही चमत्कार हैं, जिन्हें मानसिक एकाग्रता और ध्यान द्वारा भारतीय योगियों ने प्राप्त किया था।

ईसा मसीह अपने शिष्यों के साथ यात्रा पर जा रहे थे। मार्ग में वे थक गये, एक स्थान पर उन्होंने अपने एक शिष्य से कहा- “तुम जाओ सामने जो गाँव दिखाई देता है, उसके अमुक स्थान पर एक गधा चरता मिलेगा तुम उसे सवारी के लिये ले आना।” शिष्य गया और उसे ले आया। लोग आश्चर्यचकित थे कि ईसा मसीह की इस दिव्य दृष्टि का रहस्य क्या है? पर यह रहस्य प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान है, बशर्ते कि हम भी उसे जागृत कर पायें।

जिन शक्तियों और सामर्थ्यों का ज्ञान हमारे भारतीय ऋषियों ने आज से करोड़ों वर्ष पूर्व बिना किसी यंत्र के प्राप्त किया था, आज विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र (बायोलॉजी) द्वारा उसे प्रमाणित किया जाना यह बताता है कि हमारी योग-साधनायें, जप और ध्यान की प्रणालियाँ समय का अपव्यय नहीं वरन् विश्व के यथार्थ को जानने की एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रणाली है।

मस्तिष्क नियंत्रण प्रयोगों द्वारा डॉ. जोजे डेलगाडो ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क के दस अरब न्यूरॉन्स के विस्तृत अध्ययन और नियंत्रण से न केवल प्राणधारी की भूख-प्यास, काम-वासना आदि पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है वरन् किसी के मन की बात जान लेना, अज्ञात रूप से कोई बिना तार के तार की तरह संदेश और प्रेरणायें भेजकर कोई भी कार्य करा लेना भी सम्भव है। न्यूरोन मस्तिष्क के शरीर और शरीर से मस्तिष्क में सन्देश लाने, ले जाने वाले बहुत सूक्ष्म कोषों (सेल्स) को कहते हैं, इनमें से बहुत पतले श्वेत धागे से निकले होते हैं, इन धागों से ही इन कोषों का परस्पर सम्बन्ध और मस्तिष्क में जाल-सा बिछा हुआ है। यह कोष जहाँ शरीर के अंगों से सम्बन्ध रखते हैं, वहाँ उन्हें ऊर्ध्वमुखी बना लेने से प्रत्येक कोषाणु सृष्टि के दस अरब नक्षत्रों के प्रतिनिधि का काम कर सकते हैं, इस प्रकार मस्तिष्क को ग्रह-नक्षत्रों का एक जगमगाता हुआ यंत्र कह सकते हैं।

डॉ. डेलगाडो ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिये कई सार्वजनिक प्रयोग करके भी दिखाये। अली नामक एक बन्दर को केला खाने के लिए दिया गया। जब वह केला खा रहा था, तब डॉ. डेलगाडो ने ‘इलेक्ट्रोएसी फैलोग्राफ’ के द्वारा बन्दर के मस्तिष्क को सन्देश दिया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिये तो बन्दर ने भूखा होते हुये भी केला फेंक दिया। ‘इलेक्ट्रोएंसी फैलोग्राफ’ एक ऐसा यंत्र है, जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भाव-तरंगों को अंकित कर लिया गया है। किसी भी प्रकार की भाव-तरंग को विद्युत शक्ति द्वारा तीव्र कर देते हैं तो मस्तिष्क के शेष सब भाव दब जाते हैं और वह ही भाव तीव्र हो उठने से मस्तिष्क केवल वही काम करने लगता है।

डॉ. डेलगाडो ने इस बात को एक अत्यन्त खतरनाक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध करके दिखाया। एक दिन उन्होंने इस प्रयोग की सार्वजनिक घोषणा कर दी। हजारों लोग एकत्रित हुए। सिर पर इलेक्ट्राड जड़े हुए दो खूँखार साँड़ लाये गये। इलेक्ट्राड एक प्रकार का एरियल है, जो रेडियो ट्रान्समीटर द्वारा छोड़ी गई तरंगों को पकड़ लेता है। जब दोनों साँड़ मैदान में आये तो उस समय की भयंकरता देखते ही बनती थी, लगता था दोनों साँड़ डेलगाडो का कचूमर निकाल देंगे पर वे जैसे ही डेलगाडो के पास पहुँचे उन्होंने अपने यंत्र से सन्देश भेजा कि युद्ध करने की अपेक्षा शान्त रहना अच्छा है तो बस फुँसकारते हुए दोनों साँड़ ऐसे प्रेम से खड़े हो गये, जैसे दो बकरियाँ खड़ी हों। उन्होंने कई ऐसे प्रयोग करके रोगियों को भी अच्छा किया।

सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क में 20 वॉट विद्युत शक्ति सदैव संचालित होती रहती है पर यदि किसी प्रविधि (प्रोसेस) से प्रत्येक न्यूरोन को सजग किया जा सके तो दस अरब न्यूरोन, दस अरब डायनमो का काम कर सकते हैं, उस गर्मी, उस प्रकाश, उस विद्युत क्षमता का पाठक अनुमान लगायें कितनी अधिक हो सकती होगी!

विज्ञान की यह जानकारियाँ बहुत ही सीमित हैं। मस्तिष्क सम्बन्धी भारतीय ऋषियों की शोधें इससे कहीं अधिक विकसित और आधुनिक हैं। हमारे यहाँ मस्तिष्क को देव-भूमि कहा जाता है। और बताया है कि मस्तिष्क में जो सहस्रदल कमल है, वहाँ इन्द्र और सविता विद्यमान हैं। सिर के पीछे के हिस्से में रुद्र और पूषण देवता बताये हैं। इनके कार्यों का विवरण देते हुये शास्त्राकार ने इन्द्र और सविता को चेतन शक्ति कहा है और रुद्र एवं पूषण को अचेतन। दरअसल वृहत मस्तिष्क (सेरेब्रम) ही वह स्थान है, जहाँ शरीर के सब भागों से हजारों नस-नाड़ियाँ आकर मिली हैं। यही स्थान शरीर पर नियंत्रण रखता है, जबकि पिछला मस्तिष्क स्मृति-शक्ति का केन्द्र है। अचेतन कार्यों के लिए यहीं से एक प्रकार के विद्युत प्रवाह आते रहते हैं।

जब तक मस्तिष्क का यह चेतन भाग क्रियाशील रहता है। जन्म के समय भी शरीर रचना का विकास यहीं से होता है और इसके क्षतिग्रस्त होने पर ही सम्पूर्ण मृत्यु होती है। शारीरिक मृत्यु (क्लिनिकल डेथ) हो जाने पर भी जब तक यह भाग जीवित रहता है, तब तक व्यक्ति मुर्दा नहीं होता। इसके अनेक उदाहरण भी पाये गये हैं।

सन 1896 में कलकत्ता में फ्रैंक लेसनी नामक एक अंग्रेज का हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। उसके परिवार में कई औरों की भी हृदयगति रुकने से मृत्यु हुई थी, इसलिये उसकी मृत्यु निश्चित मानकर उसे ताबूत में बन्द कर कब्रिस्तान में गाढ़ दिया गया। उसके परिवार वाले उसे उटकमंड के सेंट जान चर्च के कब्रिस्तान में उसे गाढ़ना चाहते थे। किन्तु इसके लिये आवश्यक आज्ञा 6 माह बाद मिली।

जब ताबूत को बाहर निकला गया और रस्म के अनुसार उसे खोलकर देखा गया तो लोग घबड़ाकर पीछे हट गये, 6 माह पूर्व लाश जिस स्थिति में रखी थी, अब उससे बिलकुल भिन्न थी। लेसली की लाश चित्त और दोनों हाथों का क्रास बनाते हुए लिटाई गई थी, किन्तु अब वह औंधी पड़ी थी, पेन्ट और कमीज फाड़े हुए थे, मुख के पास खून गिरा था, कई जगह से उंगलियां चबाई हुई थीं।

मृत्यु के पूर्व डाक्टरों ने सारी परीक्षा ठीक-ठीक कर ली थी, कब्र और ताबूत के अन्दर कोई कीड़ा भी न जा सकता था, फिर यह स्थिति कैसे हुई। निःसंदेह उसकी अन्तिम चेतना जब मस्तिष्क के अदृश्य भाग में थी, तभी उसे दफना दिया गया पर जब चेतना लौटी होगी तो उस समय शरीर साँस लेने की स्थिति में न था। भय और क्रोध में ही उसने निकलने का प्रयत्न किया होगा, तभी कपड़े फटे होंगे और अन्त में रक्त-वमन के साथ उसकी मृत्यु हुई होगी।

एडिनबरा में लड़कियों के होस्टल में एक बार एक लड़की बीमार पड़ी। डाक्टरी उपचार के बावजूद उसके शरीर के जीवन के सब लक्षण लुप्त हो गये। नाड़ी चलना बन्द हो गई, श्वांस की गति रुक गई डाक्टरों ने लड़की को मृत घोषित कर दिया और उसकी अन्त्येष्टि की आज्ञा भी दे दी गई।

किन्तु सुप्रसिद्ध डाक्टरों की घोषणा के बाद भी होस्टल संरक्षिका (वार्डन) ने लड़की की अन्त्येष्टि क्रिया करने से इनकार कर दिया। उसने कहा- “इसके शरीर से जब तक दुर्गन्ध नहीं आती मैं इसे मृतक नहीं मानती, भले ही डॉक्टर कुछ कहें।” इस दिन तक लड़की उसी अवस्था में पड़ी रही। शरीर में सड़ने या दुर्गन्ध के कोई लक्षण नहीं थे। डॉक्टर इस घटना से स्वयं भी आश्चर्य-चकित थे। आश्चर्य उस समय और बढ़ गया, जब तेरहवें दिन लड़की जीवित हो गई और कुछ ही दिन में स्वस्थ भी हो गई।

सन्त हरिदास ने सिख राजा रणजीतसिंह के आग्रह पर अँग्रेज जनरल बेन्दुरा को 10 दिन और 40 दिन की योग समाधि जमीन में जीवित गड़कर दिखाई थी। जब वे मिट्टी से निकले थे, तब उनका चोटी के पास वाला स्थान अग्नि की तरह गर्म था।

यह स्थान सप्तधार सोम ‘रोदसी’ कहलाता है। रोदसी का अर्थ होता है दो खण्डों वाला-दोनों खण्ड इन्द्र और सविता, मध्य भाग को अन्तरिक्ष और अनुपमस्तिष्क को पृथ्वी कहा है। इनमें क्रमशः अग्नि, स्वर्गद्वार, अत्रि, द्रोणकलश और अश्विनी आदि सात प्रमुख शक्तियाँ काम करती हैं। इन सात शक्तियों को पैरासेल्सस ने भी अपोलो और डेविड दो भागों में विभक्त किया है। और स्वीकार किया है कि यह सात पुष्प मस्तिष्क की सूक्ष्म आध्यात्मिक भावनाओं से सम्बन्ध रखते हैं। इन सात भागों को शरीर रचना शास्त्र अब सात शून्य स्थानों (वेन्ट्रिकिल्स) के रूप में जानने लगा है। पहला, दूसरा और चौथा खाली स्थान मस्तिष्क के दायें और बायें। तीसरा उसके नीचे पीनियल और पिचुट्री ग्रन्थि से जुड़ा होता है। पाँचवाँ तीसरे के नीचे सेरीबेलम के स्थान पर है, छठवाँ मस्तिष्क से निकलता है एवं नीचे रीढ़ में होता हुआ सैक्रोकोक्सिजियल गैग्लियन अर्थात् रीढ़ के निचले भाग में पहुँचता है। सातवाँ खोपड़ी के दायें भाग में बादल की तरह छाया रहता है।

वरुण देवता को तीनों लोकों में व्याप्त बताया गया है-

यस्य श्वेता विचक्षणा विस्रो भूमीरधिक्षितः थिरुत्तराणि पप्रतुः वरुणस्य ध्रुवंसदः। स सप्तानाभिरज्यति॥

अर्थात्- वरुण देव की रहस्यमयी इस धारणा किये हुये शिरायें तीनों लोकों में व्याप्त हैं तीनों उत्तर दिशा के स्नायु-केन्द्रों से बँधी हैं, यहीं वरुणदेव का मूल निवास है और यहीं से निकले हुए सात स्नायु केन्द्र सारे शरीर और मानसिक चेतना का नियंत्रण करते हैं। शरीर रचना शास्त्रियों ने भी इसे सेरीब्रो स्पाइनल फ्लूइड के नाम से स्वीकार किया है और यह माना है कि इसमें 99 प्रतिशत जल ही होता है, एक प्रतिशत विभिन्न लवण होते हैं।

विज्ञान और अध्यात्म की यह तुलनात्मक जानकारियाँ यद्यपि अपूर्ण हैं पर वे एक ऐसे दर्शन के द्वार अवश्य खोलती हैं, जिसमें वैज्ञानिक भी यह स्वीकार कर सकते हैं कि मनुष्य मस्तिष्क से नितान्त शरीर ही नहीं वरन् एक विचार विज्ञान भी है और उस दिशा में शोध के लिये अभी विज्ञान का सारा क्षेत्र अधूरा पड़ा है। लोग चाहें तो उसे आध्यात्मिक और योगिक क्रियाओं द्वारा खोजकर एक महत्तम शक्ति के स्वामी होने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं। देवताओं के नाम से विख्यात इन खाली स्थानों (केन्द्रिकिल्स) में शक्ति के अज्ञात स्रोत छुपे हुये हैं, उन्हें खोज कर मनुष्य वह शक्तियाँ अर्जित कर सकता है, जिनका वर्णन इस लेख की प्रारम्भिक पंक्तियों में किया गया है।


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