बुद्ध भगवान तब कुण्डिया नगर के कुण्डियाधान वन में विहार कर रहे थे। कोलिय पुत्री सुप्पवासा को आज सात वर्ष गर्भ धारण किये हो गये थे, किन्तु प्रसव हो ही नहीं रहा था। उदर में बच्चे का विकास बराबर हो रहा था, इसलिये सुप्पवासा के कष्ट की कोई सीमा न थी।
सुप्पवासा कुण्डिया नगर में ही थी। भगवान बुद्ध को नगर में आया सुनकर उसने अपने पति कोलिय पुत्र को बुलाकर कहा- “आर्य पुत्र! आप देख रहे हैं गर्भधारण किये सात वर्ष हो जाने के कारण मेरे कष्ट असह्य हो गये हैं। तथागत ने यहाँ पधारकर हम पर कृपा की है, आप उनके पास जाइये। वहाँ जाकर मेरा प्रणाम निवेदन कर कहना, सुप्पवासा ने आपकी कुशल मंगल पूछी है। स्वामी! महापुरुषों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने से क्षुद्र जीव भी करुणा और दया के अधिकारी हो जाते हैं। जब भगवान दयावश पूछें कि- “सुप्पवासा कैसी है? तो आप बताना कि उसके कष्टों का आप ही निवारण कर सकते हैं, सात वर्षों से गर्भ धारण करने के कारण वह बहुत थक गई और अशक्त हो चुकी है, उसकी रक्षा करिये।”
कोलिय पुत्र अपनी धर्मपत्नी के लिए बहुत दुःखी था। पत्नी की बात मानकर वह वहाँ पहुँचा, जहाँ अनेक आयुष्मान् श्रीमन्त सज्जन भगवान बुद्ध से वार्तालाप कर रहे थे। कोलिय पुत्र था तो निम्न वर्ग का, पर अनुशासन जानता था। सो एक ओर चुपचाप खड़ा रहा।
महाभिक्षु ने उसकी ओर देखा और करुणापूर्वक पास बुलाकर पूछा- “कहो आर्यपुत्र! अच्छे तो हो न?” प्रभु को प्रसन्न जानकर कोलिय पुत्र ने कहा- “भगवन्! सुप्पवासा ने आपको प्रणाम कहा है। आपकी कुशल मंगल पूछी है। उसे सात वर्ष गर्भ धारण किये हो गये, इस कारण बहुत दुख में है। आपकी कृपा हो जाये तो उसका कष्ट दूर हो जाये।”
भगवान बुद्ध की आँखें भर आई। उन्होंने कहा- “वत्स! जाओ सुप्पवासा को हमारा आशीर्वाद कहना। जब तुम वहाँ पहुँचोगे तो पाओगे कि उसने एक बच्चे को जन्म दिया है। अब उसे कोई कष्ट नहीं है।”
भगवान बुद्ध की दया और ऋद्धि का स्मरण कर सभी उपस्थित लोग श्रद्धा से भर गये।
कोलिय पुत्र लौटा तो सुप्पवासा गर्भधारण से मुक्त हो चुकी थी। कोलिय पुत्र की प्रसन्नता और आश्चर्य का ठिकाना न रहा। तभी सुप्पवासा ने उसे बुलाया और कहा- “स्वामी! यह कष्ट तथागत की कृपा से ही निवृत्त हुआ है। आप उनके पास पुनः जायें और कहें- “महाराज! सुप्पवासा ने आपको सम्पूर्ण बौद्ध भिक्षुओं के साथ सात दिन के लिये भोज दिया है। कल से आप भोजन सुप्पवासा के यहाँ ही करना।”
कोलिय पुत्र पुनः तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ और सुप्पवासा ने जो कुछ कहा था-वह उसी के सीधे-सादे शब्दों में निवेदन कर दिया। सब लोग असमंजस में पड़ गये, क्योंकि दूसरे दिन के लिये महामौदगलायन के शिष्य आबुस का निमन्त्रण पहले ही मिल चुका था। सुप्पवासा एक हरिजन कन्या थी। भगवान इनकार करते तो उसका अर्थ होता कि वह भी ऊँच-नीच का भेद-भाव करते हैं।
महामौदगलायन की ओर देखकर भगवान बुद्ध ने कहा- “आयुष्मान्! आप आबुस को कहें कि वह अपना निमन्त्रण आगे को बढ़ा दें। आबुस विचारशील व्यक्ति हैं, उन्हें समझाया जा सकता है पर सुप्पवासा की श्रद्धा को ठेस नहीं पहुँचाई जा सकती। वह दुखी हो जायेगी, इसलिए हम उनका निमन्त्रण पहले स्वीकार करते हैं।
अगले दिन से सात दिन तक भगवान बुद्ध ने सुप्पवासा के यहाँ ही भोजन किया और यह दिखा दिया-महान आत्मायें ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भेद-भाव नहीं करतीं।