साधना में कड़ाई-एक वरदान

May 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


कवि ‘दण्डी’ की साहित्य साधना चल रही थी। मार्गदर्शक थे उन्हीं के पिता। किसी भी दिशा में बढ़ना हो, श्रेष्ठ स्तर तक पहुँचने के लिए विशेष प्रयास, विशेष श्रम करना ही पड़ता है। खिलाड़ी बनना चाहें या पहलवान, वाणी का उपयोग हो या लेखनी का, ज्ञान-मार्गी बने या कर्ममार्गी-सभी के लिए एक ही सिद्धान्त है। जितना तपेगा उतना ही निखरेगा। जितना रगड़ खायेगा, उतनी ही चमक पायेगा। कवि दण्डी अपने समकालीन कवि कालिदास की प्रतिभा से अपनी उपलब्धियों को आगे ले जाना चाहते थे। वह स्वयं पूरी लगन से श्रम कर रहे थे और उनके पिता पूरी तत्परता से निर्देशन।

श्रेष्ठ साधक अपनी साधना में अपने मार्गदर्शक को प्रधानता देकर चलते हैं। मार्ग-दर्शक सन्तोष को ही अपनी प्रगति का चिन्ह मानते हैं। एक बार लक्ष्य निर्धारण करके फिर कितनी सीढ़ियाँ किस प्रकार चढ़ना है, यह मार्ग-दर्शक के ऊपर छोड़कर साधक लग जाते हैं, अपनी पूरी शक्ति के साथ निर्देश पूरा करने में। इस स्थिति में हर कदम पर उन्हें निर्देशक के सन्तोष का ही ध्यान रहता है। मानो वही मूल लक्ष्य हो।

कवि दण्डी इसी निष्ठा से लग गये अपनी साधना में। उनकी प्रतिभा निखरने लगी। हर प्रयास पर उन्हें प्रशंसा भी मिलती और आलोचना भी। प्रशंसा से उत्साह बढ़ाकर आलोचना से आत्म-शोधन करते हुए वह बढ़ रहे थे। परिचितों की दृष्टि में उनका स्तर बहुत उच्चकोटि का हो गया था। यह जानकर कवि दण्डी को प्रसन्नता हुई और वे आशा करने लगे, अपने मार्गदर्शक से अधिक साधुवाद की। किन्तु वहाँ कुछ उल्टी ही प्रतिक्रिया मिली। प्रशस्ति के स्थान पर आलोचना बढ़ गई। मन को बुरा लगा, परन्तु विनयी शिष्य की तरह निर्देशों का पालन करते रहे।

मोम जब नर्म रहता है तो किसी भी आकार में सहज ही मुड़ जाता है, न चटकता है और न बेडौल होता है। साधक की जब तक अपने स्वरूप के बारे में कोई मान्यता नहीं बनती-तब तक उसका अन्तःकरण भी नर्म मोम की तरह होता है। उसे कैसा भी मोड़ा-ढाला जावे-कोई कष्ट या प्रतिक्रिया अनुभव नहीं होती। किन्तु अपने स्वरूप की, प्रतिष्ठा की, कोई मान्यता-स्पष्ट या अस्पष्ट बनते ही वह अन्तःकरण अपनी लोच खो बैठता है। फिर परिवर्तन से अपनी मान्यता का स्वरूप हिलता-बिगड़ता सा लगता है और अनेक प्रतिक्रियायें उठने लगती हैं कवि दण्डी की स्थिति भी अब कुछ इसी प्रकार की हो गई थी। पिता के निर्देश, उनकी मीनमेख उन्हें अरुचिकर लगने लगी। कभी-कभी अन्दर रोष भी उत्पन्न होने लगा।

उनके पिता सब समझते हुए भी उस ओर ध्यान नहीं दे रहे थे। कुशल शिल्पी की तरह उनका ध्यान अपनी सुगढ़ मूर्ति की छोटी से छोटी त्रुटि पर पहुँचता था। पत्थर में मनुष्याकृति थोड़े प्रयास से ही उभर आती है। जनसाधारण तो नाक-नक्श देखकर संतुष्ट होने लगते हैं। किन्तु शिल्पी अपनी कल्पना का भाव उसमें भरने के लिए उन सुन्दर अंगों को भी बार-बार काटता छाँटता व घिसता रहता है। कवि दण्डी के पिता अपना कर्तव्य भली प्रकार समझते थे। शिष्य के पथ्य-कुपथ्य का उन्हें ध्यान था। इसी कारण वह अधिक तत्परता से, अधिक बारीकी से अपने कार्य में लगे थे।

उधर शिष्य अधीर हो उठा। उसे लग रहा था-”कब मेरी श्रेष्ठता, पूर्णता प्रमाणित करके अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का अवसर दिया जावे। कब लोगों की प्रशंसा और श्रद्धा का भाजन बनूँ?” किन्तु उनके हर प्रयास पर पिता द्वारा श्रेष्ठता स्वीकार करने के स्थान पर दोषों की सूची बढ़ा दी जाती, बहिर्मुखी होने देने के स्थान पर और अधिक एकान्त सेवन के लिए दबाव दिया जाता।

दण्डी का रोष बढ़ने लगा। विकृत अहंकार सिद्धाँत और लक्ष्य दोनों पर हावी हो गया। सामने तो मर्यादावश कुछ न कहते, किन्तु इधर-उधर अपना असंतोष व्यक्त करने लगे। किन्तु पिता पर किसी बात का मानो कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था। अन्य व्यक्तियों से प्रशंसा एवं सद्भावना मिलती, किन्तु पिता ‘कठोर के कठोर!” दण्डी को अपने अहंकार तुष्टि में एकमात्र बाधक अब वही दिखने लगे। उन्हें यहाँ तक लगने लगा कि “इनके रहते मेरा सन्तोष सम्भव नहीं।”

व्यक्ति जब ज्ञान सम्मोह स्थिति में भ्रमित होता है, तब ऐसी ही स्थिति हो जाती है। विवेक कुण्ठित हो जाता है- तथा हित-अहित भूल जाता है। एकमात्र अपना अहंकार एवं उसकी तुष्टि ही सर्वोपरि दीखने लगती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति भयंकर से भयंकर निर्णय भी ले डालता है। अपनी सारी साधना को निरर्थक करने वाले कदम उठाने को तत्पर हो जाता है। कवि दण्डी भी उसी प्रवाह में बह उठे। उन्होंने निर्णय कर लिया अपनी राह के काँटे को उखाड़ फेंकने का। पिता मार्ग-दर्शक गुरु की हत्या...। भयंकर अविवेकपूर्ण कुकृत्य। किन्तु उस समय विचार कहाँ था, नशा था- जो सोचने नहीं देता।

रात्रि के पूर्व ही वे छिप गये पिता के शयन-कक्ष में ‘सशस्त्र’। घड़ी भर में भयंकर घटना हो सकती थी। किन्तु नियति को कुछ और ही करना था। शयन के पूर्व दण्डी की माता पति को प्रणाम करने पहुँची। संयोग से उन्होंने दण्डी का प्रसंग ही छेड़ दिया। माँ ने पुत्र का पक्ष लेते हुए उसके प्रति कड़ाई की शिकायत की, पुत्र की बढ़ती हुई प्रतिभा की सराहना की और पति से उनके कठोर व्यवहार का कारण पूछा। दण्डी श्वाँस रोककर सब सुनने लगे।

दण्डी की छद्म उपस्थिति से अनभिज्ञ पिता का स्नेह उबल पड़ा। मार्गदर्शक की कठोरता हट गई। भरे नेत्रों एवं गदगद वाणी से वे अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगे। प्रशस्ति करते हुए बोले- “भद्रे! सच पूछा जाये तो दण्डी मेरी सीमा से भी आगे जा चुका है। कोई भी पिता अपने ऐसे पुत्र पर गर्व कर सकता है...।” दण्डी के कान इससे अधिक न सुन सके। वह स्तब्ध, आश्चर्यचकित सोच रहे थे- “इतना स्नेह इतनी श्रेष्ठ मान्यता... फिर इतनी कठोरता क्यों?”

पुनः कानों ने सुनना प्रारम्भ किया...। अब पिता नहीं गुरु बोल रहे थे- “किन्तु देवि! मेरा कर्तव्य कठोर है। दण्डी की असाधारण क्षमता को यों ही नहीं छोड़ा जा सकता। उसका लक्ष्य भी कालिदास की प्रतिभा से आगे जाने का है। इस अवसर पर मेरी थोड़ी-सी भी ढील सदा के लिए उसकी प्रगति की सम्भावना समाप्त कर सकती है। पिता की तरलता पुत्र का अहित न कर दे-इस कारण गुरु भाव से अधिक कठोर बनना ही पड़ता है। दण्डी इस कठोर साधना के योग्य नहीं है, ऐसा मेरा पित्र हृदय स्वीकार नहीं करता। यदि वह सह सका, तो लक्ष्य पा लेगा। अन्यथा मेरा तिरस्कार करेगा तो भी उसका जो स्तर है, वह तो बना ही रहेगा। मैं क्यों उसके बारे में हीन कल्पना लाकर अपना कर्त्तव्य छोड़ूँ?”

दण्डी की मानो समाधि लग गई। सारा शरीर रोमाँचित हो रहा था-नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। कब माता चली गई, कब पिता सो गये, उन्हें कुछ भान न हो सका। सारी रात वह एकटक अपने पिता को- अपने मार्गदर्शक को देखते रहे-मनुष्य है या देवता! क्या देवता भी इतने उज्ज्वल हो सकते हैं...? आँसू झरते रहे कलुष धुलता रहा।

प्रातःकाल से दण्डी अद्वितीय निष्ठावान साधक था। पिता के स्वकर्तव्य-निष्ठ-स्वरूप ने शिष्य की भ्रान्ति मिटा दी-और शिष्य जो निष्ठापूर्वक स्वकर्तव्य साधना में लगा तो गुरु की कठोरता गलकर बह गई। और दण्डी वह समर्थ कवि ‘दण्डी’ बन सके कि स्वयं माँ सरस्वती ने उनकी श्रेष्ठता स्वीकार की। हर उत्कृष्टता की प्राप्ति के पीछे कठोर साधना का इतिहास छिपा रहता है।



<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118