एक साधु द्वार पर बैठे तीन भाइयों को उपदेश कर रहे थे-वत्स! संसार में सन्तोष ही सुख है। जो कछुये की तरह अपने हाथ-पाँव सब ओर से समेट कर आत्म-लीन हो जाता है, ऐसे निरुद्योगी पुरुष के लिये संसार में किसी प्रकार का दुःख नहीं रहता।
घर के भीतर बुहारी लगा रही माँ के कानों में साधु की यह वाणी पड़ी तो वह चौकन्ना हो उठी। बाहर आई और तीनों लड़कों को खड़ा करके छोटे से बोली ले यह घड़ा पानी भर कर ला, मझले से कहा- उठा यह झाड़ू और घर-बाहर की बुहारी कर, अन्तिम तीसरे को टोकरी देते हुये उसके कहा-तू चल और सब कूड़ा उठाकर बाहर फेंक।
और अन्त में साधु की ओर देखकर उस कर्मावती ने उपदेश दिया-महात्मन्! निरुद्योगी मैंने बहुत देखे हैं, कई पड़ौस में ही बीमारी से ग्रस्त ऋण भार से दबे शैतान की दुकान खोले पड़े हैं, अब मेरे बच्चों को भी वह विष वारुण पिलाने की अपेक्षा आप ही निरुद्योगी बने रहिये और इन्हें कुछ उद्योग करने दीजिये।
गाँव वालो ने कहा-महात्मन् आपका उपदेश झूठा और इस माँ का उपदेश सच्चा। साधु उदास मन जंगल की ओर चल पड़े और अपने निरुद्योगी सिद्धान्त पर देर तक पश्चाताप करते रहे।