सर्वोपरि सम्मान की अधिकारिणी याज्ञिका

May 1970

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विधाता ने अपने सेवकों को बुलाकर धरती से एक-एक उपहार लाने का आदेश दिया। उन्होंने कहा- “जिसका उपहार सर्वश्रेष्ठ होगा, उसी को प्रधान सेवक के पद पर नियुक्त किया जायेगा।”

आज्ञा मिलने की देर थी। सभी सेवक अच्छे उपहारों की तलाश में पृथ्वी की ओर दौड़ने लगे। सब इस प्रयत्न में थे कि ऐसा उपहार ले जाया जाये जो मेरी पदोन्नति शीघ्र ही हो जाये। एक-से-एक बहुमूल्य उपहार सेवकों ने लाकर सामने रखे, पर विधाता के चेहरे पर कहीं प्रसन्नता और सन्तोष की रेखा तक न थी। हिसाब लगाया गया, तो एक सेवक आना शेष था। उसकी प्रतीक्षा बड़ी आतुरता से की जा रही थी।

आखिर प्रतीक्षा की घड़ियाँ पूरी हुई और वह सेवक भी आ गया। वह कागज की एक पुड़िया विधाता को देकर नीचे डरते-डरते बैठ गया। वह सोच रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि देर से आने के कारण डाँट पड़े। उस सेवक की पुड़िया देखकर अन्य कितने ही सेवक मन में हँसने लगे, कोई उसकी मूर्खता पर प्रसन्न हो रहे थे। विधाता ने पुड़िया खोली- ‘अरे, यह क्या इस पुड़िया में मिट्टी बाँध लाये?’

“हाँ भगवन्! मैंने पृथ्वी का चप्पा-चप्पा छान मारा। शायद ही कोई स्थान रह गया हो, जहाँ मैं नहीं गया। मैंने इस बात की बड़ी कोशिश की कि ऐसा उपहार ले चलूँ जो आपके पसन्द आ जाये, पर कुछ समझ ही नहीं पड़ा। प्रभु! है तो यह मिट्टी ही, पर किसी साधारण स्थान की नहीं है। यह वह मिट्टी है जहाँ के लोगों ने धर्म और मानवता की रक्षा के लिये खुशी-खुशी अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।” सेवक ने हाथ जोड़कर कहा।

विधाता ने वह मिट्टी बड़ी श्रद्धा से अपने मस्तक पर लगा ली और कहा- “सेवकों! जब तक पृथ्वी पर ऐसे सन्त और सज्जन पुरुष बने रहेंगे तब तक धरती पर सुख-शान्ति की सम्भावनाएँ भी कम न होंगी।”


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