15 करोड़ मील लम्बी पूँछ वाले ब्रह्मकीट-धूमकेतु

May 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


प्रकाश की लम्बी रेखा, बुहारी की तरह पूँछ वाला एक तारा कभी आकाश में दिखाई दे जाता है तो भारतवर्ष ही नहीं, सारे विश्व में बेचैनी फैल जाती है। यह तारा जिसे धूमकेतु या पुच्छल तारा कहते हैं, अशुभ और अनिष्ट का सूचक समझा जाता है। जब भी यह निकलता है, लोग युद्ध, अकाल, महामारी जैसी आशंकाओं से भयभीत हो उठते हैं। पुच्छल तारा मानव जाति के लिए व्याधि और विनाश का ही प्रतीक माना जाता है।

इस विश्वास के पीछे कितना कुछ सत्य है, यह तो बहुत दिन बाद पता चलेगा, किन्तु यह तारा सृष्टि का एक विलक्षण आश्चर्य अवश्य है। कहते हैं प्राचीनकाल में योगियों और सिद्ध महात्माओं के शरीर से ‘ब्रह्मकीट’ नामक एक कीड़ा निकला करता था, वह चाहे जहाँ जाकर किसी को भी नष्ट कर दिया करता था। महासती गौरी एक बार अपने पिता दक्ष प्रजापति के घर यज्ञ देखने गई थीं। वहाँ उन्होंने अपने पति शंकर का अपमान देखा था, यज्ञकुण्डों में ही जल मरी थीं। यह समाचार जब शंकर भगवान को मिला तो उन्होंने भी ऐसे ही ‘वीरभद्र’ नामक एक जन्तु अपनी जटाओं से निकालकर भेजा था, जिसने दक्ष का यज्ञ विध्वंस कर उसका सिर काट लिया था।

सम्भव है तब मानसिक शक्तियों के संहारक उपयोग का योगियों को ज्ञान रहा हो और इस तरह का कोई ज्योति-पुरुष उत्पन्न करना सम्भव रहा हो जिस तरह यह पुच्छल तारा या धूमकेतु सूर्य भगवान के शरीर से अचानक प्रकट होता है और पृथ्वी पर रहने वाले लोगों को डरा-धमका देता है।

यह पुच्छल तारा साधारण मनुष्यों के लिये ही भय और आश्चर्य का विषय नहीं रहा, वैज्ञानिकों ने भी उसे बड़े कौतूहल की दृष्टि से देखा है। अनेक वैज्ञानिक उसकी विशद जानकारी करने के लिये प्रयत्नशील रहे हैं। प्रसिद्ध खगोलविद् न्यूटन, जिनका मस्तिष्क पिण्डीय जगत में सदैव भ्रमण किया करता था- गुरुत्वाकर्षण जैसा सिद्धाँत उन्होंने ही बनाया था- ने धूमकेतुओं के अनेक आश्चर्यों की खोज की। टाइकाब्राहे और डॉ. हेली ने धूमकेतु ताराओं का विशेष अध्ययन किया और कहा-प्रकृति के अनेक रहस्यपूर्ण करतबों में से एक यह धूमकेतु भी है। इसकी आकृति, प्रकृति, गुण, कर्म और निवास-विश्राम का उसी प्रकार कुछ ठिकाना नहीं, जिस प्रकार आज के भारतीय साधुओं का। चाहे जब, चाहे जहाँ निकल पड़ते हैं और निरुद्देश्य इधर-उधर लोगों से टकराते रहते हैं।

कभी-कभी दिखाई देने वाले इन धूमकेतुओं की संख्या कम नहीं हजारों की संख्या में है तथा सूर्य के आस-पास और सौरमण्डल के बाहर भी चक्कर काटते रहते हैं। हमें जो धूमकेतु दिखाई देते हैं वह सब शंकर की जटाओं से एकाएक प्रादुर्भूत पुत्रों की तरह सूर्य की सन्तानें हैं। वह किस तरह पैदा हो जाते हैं, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित जानकारी नहीं है पर अब तक सूर्य के ऐसे 32 प्रकाश पुत्रों का पता चला है। आज्ञाकारी पुत्र की तरह यह भी सूर्य की ही परिक्रमा लम्बे वृत्त में किया करते हैं। हेली, फाये, ओल्वेरस, ब्रोरसेन, इन्के, टुटल आदि धूमकेतु 3 वर्ष से लेकर 100 वर्ष की अवधि में सूर्य की परिक्रमा कर लेते हैं। कुछ धूमकेतु 150 वर्ष तक में सूर्य की परिक्रमा पूरी करते हैं। जब कभी ये पृथ्वी के वायुमण्डल में आ जाते हैं- हमें दिखाई देने लगते हैं। हैले, धूमकेतु तो हर 76 वर्ष बाद आता रहता है। अनुमान है कि 17 वर्ष बाद 1986 में फिर उदित होगा। इससे पहले वह 1910 में आया था। द्वितीय विश्वयुद्ध की तैयारियाँ तभी हुई थीं। इसी से लोग अनुमान लगाते हैं कि अगले दिनों तृतीय विश्वयुद्ध की तैयारियाँ हों तो कुछ आश्चर्य नहीं। सम्भव है तब मानव जाति पर बड़े संकट आयें, पर यदि ऐसा हुआ ही तो आगे का संसार एक नये अध्याय से ही प्रारम्भ होगा, जिसमें सब लोग प्रेम, मैत्री, सहयोग और सहानुभूति का व्यवहार करते हुए सुखी रहेंगे। अनैतिकता और अनाचार का कूड़ा-करकट इस दाह-क्रिया में ही जल-वल जायेगा, विनाश की आशंका के साथ यह शुभ भी निश्चित रूप से जुड़ा अनुभव किया जाना चाहिए।

यों धूमकेतु कोई ऐसा दानव नहीं, जो मनुष्यों की तरह मारकाट मचाता हो। यह भी गैस, खनिज, चट्टानों तथा हिमकणों में बने विचित्र प्रकार का तारा ही है। सबसे आश्चर्यजनक इसकी पूँछ है, जिसकी लम्बाई लाखों-करोड़ों मील तक नापी गई है। 1811 में धूमकेतु दिखाई दिया था, उसकी पूंछ 10 करोड़ मील लम्बी थी जबकि 1843 में जो धूमकेतु दिखाई दिया था खगोल शास्त्रियों के अनुसार उसकी पूँछ की लम्बाई 15 करोड़ मील से भी बड़ी थी।

कई धूमकेतु कई पूँछ वाले भी होते हैं। आकाश में इतनी दूर तक फैली हुई पूँछ के बीच से फाड़कर पृथ्वी और दूसरे ग्रह अपनी परिक्रमायें करते रहते हैं। सम्भव है पूँछ में पाई जाने वाली गैसें अदृश्य रूप से लोगों के मस्तिष्क और शरीर में ऐसी प्रतिक्रियायें उत्पन्न करती हों, जिनसे शरीर और सामाजिक जीवन में दूषित तत्वों की अभिवृद्धि होती हो और इसी से यह अनिष्टकारक समझे जाते हों, पर ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता जो बलात् मनुष्य की इच्छाशक्ति को मोड़ सकता हो या विध्वंस उपस्थित कर सकता हो। इसकी आकृति ही भयंकर होती है। भार तो बहुत ही कम होता है इसलिए इनसे टकराने का कोई डर नहीं रहता। दक्षिण अफ्रीका में कुछ ऐसे जन्तु पाये जाते हैं जो दुश्मन को देखकर ऐसी भयंकर आकृति बना लेते हैं कि दुश्मन उसे देखते ही भयभीत हो जाता है और वहाँ से भाग जाता है। अपनी इस डराने वाली कला के द्वारा वह अपनी जीवन रक्षा कर लेता है, सम्भव है प्रकृति ने धूमकेतु नामक इस ब्रह्मकीट को इसीलिए उत्पन्न किया हो कि उसकी दानवी आकृति से लोग डरें और सनातन नियमों की-यथा दया, क्षमा, उदारता आदि-की रक्षा करें, वैसे इसका भार पृथ्वी के भार से करोड़ों गुना कम अर्थात् नगण्य जैसा ही होता है जबकि लम्बाई के अनुपात में उन्हें कई अरब टन का होना चाहिए था।

खगोलशास्त्रियों ने अनुमान लगाकर बताया है कि एक कमरे की एक घन इंच हवा में जितना पदार्थ होता है। धूमकेतु की पूँछ में उतना पदार्थ एक घन मील में होता है। चमक तो गैसों की होती है। इसका सिर भी उतने भार का नहीं होता, जितना दिखाई पड़ता है। यह छोटी-छोटी गोली के आकार जैसे धूल-कणों से बना होता है और यह टुकड़े भी एक घन मील में कोई सौ-पचास की ही संख्या में होते हैं।

सिरा सूर्य की ओर और पूँछ विपरीत दिशा में ऐसा लगता है जैसे सूर्य अपनी इच्छा-शक्ति से उसे धकेल रहा हो। सूर्य से वह बहुत दूर रहकर चक्कर काटता है। यह दूरी 40 करोड़ मील तक होती है, सन् 1843 में जो धूमकेतु दिखाई दिया था वह सूर्य के 43 हजार मील पास तक चला गया था। इससे पहले 3 करोड़ मील की दूरी तक ही वह आ पाया था। धूमकेतु जब सूर्य के पास आता है तभी उसकी पूँछ चमकती और लम्बी होती दिखाई देती है। सूर्य का प्रकाश पड़ने के कारण ही ऐसा होता है। जैसे-जैसे वह दूर हटता है पूँछ छोटी होती हुई बाजीगर के खेल की तरह सिर में ही लुप्त हो जाती है। कई बार यह पूँछ दूसरे ग्रह-पिण्डों के संपर्क में आकर उधर ही आकर्षित होकर नष्ट हो जाती है इससे यदि यह कहा जाये कि धूमकेतुओं के विकिरण का अदृश्य प्रभाव प्राणीय जीवन पर पड़ सकता है तो उसे नितान्त असत्य नहीं मानना चाहिए।

धूमकेतु केवल सूर्य की सन्तान हों, ऐसी बात नहीं नवग्रहों में कई के पास यह सन्तानें हैं। शनि धूमकेतुओं की संख्या 6, नेपच्यून की 8 है। इसी प्रकार बृहस्पति के घर में अनुमानतः 18 पुच्छल तारे चक्कर काटते रहते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार इनमें किसी प्रकार के जीवन की सम्भावना नहीं है, क्योंकि इनका घनत्व इतना विरल है कि उसमें प्राणियों का रहना सम्भव नहीं है।

यहाँ गुरुत्वाकर्षण वायु-मण्डल की सुरक्षा नहीं रख सकता, प्राणी और पौधे वहीं रह सकते हैं जहाँ ऑक्सीजन और कार्बनडाई-ऑक्साइड पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों, यह दोनों गैसें वहीं रह सकती हैं जहाँ गुरुत्वाकर्षण कम न हो। इसलिये यह एक प्रकार की प्राणी विहीन आकाश की सन्तरणडडडडडडडड नौकाएँ भर हैं जो इधर-उधर चक्कर काटती रहती हैं।

कुछ भी हो यह प्रकृति का आश्चर्य ही है। प्रकृति ने इन्हें यदि किसी उद्देश्य से बनाया होगा तो वह उद्देश्य सचमुच कम आश्चर्यजनक न होगा। सम्भव है आगे का विज्ञान इस सम्बन्ध में कुछ अधिक जानकारी दे सके।

यह पंक्तियाँ कम्पोज होने तक ‘बैनेट’ नामक पुच्छल तारे का प्राकट्य भी हो गया। इसे सारे विश्व में अशुभ माना जा रहा है। ऐसा विश्वास है कि यह विश्व में एक नये महाभारत का अग्र घोषक है। भीषण रक्तपात, भूकम्प, तूफान, वायु-दुर्घटनायें बढ़ेंगी, राजनैतिक विवाद बढ़ेंगे, पर भारतवर्ष के लिये यह शुभ है। भारतवर्ष का सम्मान बहुत बढ़ जायेगा और उन्नति की परिस्थितियाँ विकसित होंगी।



<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118