पूर्णता की चाहत ही सक्रियता की प्रेरणा हैं। इसी ऊर्जा से प्रत्येक जड़-चेतन गतिशील है। सागर से मिलने हेतु नदियाँ अहर्निश दौड़ने लगाती हैं। मानव शीलता का ध्येय भी हैं। समूची प्रकृति की सतत् विकासयात्रा इसीलिए हैं। वह सबको अपने आँचल में समेटे परमपुरुष से मिलकर अपनी पूर्णता पाने के लिए आतुर-आकृष्ट हैं।
सबको नियंत्रित करने वाला काल महेश्वर महाकाल में विलीन होकर पूर्णता पाना चाहता है। यह अवश्य है कि ये यात्राएँ छोटी-मोटी पूर्णताओं को पाती-लाँघती महापूर्णता में विसर्जित हो जाती हैं। वासंती उमंगों के बीच ऐसा आभास हो रहा हैं कि कुछ विशिष्ट होने जा रहा हैं। पिछले वसंतपर्वों की अपेक्षा यह वासंती आभा कहीं अधिक मोहक एवं सुरम्य हैं।
वसंत महोत्सव के साथ ही महापूर्णाहुति वर्ष की शुरुआत हो रही हैं। महाकाल की यज्ञवेदी में आहुति देकर दशाब्दी, शताब्दी एवं सहस्राब्दी स्वयं को पूर्ण कर रही हैं। वर्ष 1988 में अनिष्टों के निवारण एवं नवसृजन के लिए प्रारंभ की गई युगसंधि महापुरश्चरण साधना भी अपनी पूर्णता को पा रही हैं। नववर्ष 2000 इस साधना महोत्सव की पूर्णता का वर्ष हैं। वसंतपर्व से प्रारंभ हो रहा महापूर्णाहुति का यह उत्सव अपनी दृश्य व्यापकता से कहीं अधिक व्यापक हैं। इनका समूची शताब्दी-सहस्राब्दी में किए गए वे प्रयास-तप−साधनाएं शामिल हैं, जिनका उद्देश्य उज्ज्वल भविष्य की वासंती उमंगों को विस्तारित करना रहा हैं।
इसी वसंत से शुरू होने वाले प्रत्येक महापूर्णाहुति उपक्रम में भागीदारी प्रत्येक को महाकाल के लीला संदोह में साझीदार बनाने के साथ ही उन तपोनिष्ठ महान् आत्माओं के अक्षय तप एवं पुण्य का भागीदार बनाएगी, जो सहस्राब्दी में समय-समय पर मानवता के उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रयत्नशील रहे। यह महापूर्णाहुति उन सबकी सम्मिलित तप−साधना की पूर्णाहुति भी हैं। इसमें भागीदार अपने जीवन में महेश्वर महाकाल के अलौकिक अनुदानों के साथ वासंती उल्लास एवं उमंग लाने वाली सिद्ध होगी।