भारतमाता बंदिनी कैसे बनी? इसका उत्तर अंग्रेजी शासकों की समय-समय पर हुई उन चर्चाओं का जानकर मिल सकता है कि यहाँ की शासनपद्धति किस प्रकार की हो, उसकी नीति और अंतिम ध्येय क्या हो और यहाँ के निवासियों के साथ उनका व्यवहार कैसा हो, उनके प्रति हमारा भाव क्या हो? इस पर उनकी आपस में जो बातें हुई, जो विचार, विमर्श हुआ, उसे जानने-समझने से सच्चाई सामने आ जाती हैं। अहमदशाह अलदाली द्वारा मराठों के पराजित होने के बाद, घटनाक्रम तेजी से बदले। इतिहास में अप्रत्याशित मोड़ आए। 23 अक्टूबर 1764 ई. को हुई बक्सर की लड़ाई में अँगरेजों द्वारा शाह आलम द्वितीय, शुजाउद्दौब और मीरकासिम पराजित हो गए। 1767 से 1769 के बीच प्रथम मैसूर युद्ध हुआ। 1780 से 1782 के बीच पहला मराठा युद्ध लड़ा गया। 14 सितंबर 1803 को द्वितीय मराठा युद्ध हुआ और अँगरेजों ने दिल्ली पर अपना कब्जा जमा लिया। हालांकि इसके पूर्व उन्हें 1790 से 1792 में महाराजा रणजीतसिंह और अँगरेजों के बीच अमृतसर की संधि हुई। 1814 ई. आते-आते पेशवाई नष्टप्राय हो गई। इसी के साथ अँगरेजों यह निश्चय होने लगा कि अब वे समूचे हिंदुस्तान पर अपना कब्जा जमा लगे।
अँगरेजों ने भारतवर्ष की जिन रियासतों अथवा जिन प्रान्तों पर विजय पाई, वह उन पर खूब आक्रमण करके नहीं अर्जित की, बल्कि आपस में फूट डालकर बाद में किसी एक दल का पक्ष लेकर अपनी कुटिल नीति के सहारे अपनी जड़े जमाई। भारतवर्ष के किसी भी प्रथम श्रेणी के राज्य पर चढ़ाई करके उस पर अपना स्वामित्व जमाने की हैसियत उनमें नहीं थी। उन्होंने तो कुटिलतापूर्वक रियासती शासन में फूट डाली और जब राज्य में दो पक्ष हो गए तो कमजोर पक्ष को अपना बल देकर उसे सत्ताधारी बन दिया। इसी तरह माँडलकों को सार्वभौम सत्ता के खिलाफ खड़ा कर दिया। सरदारों को राजा-नवाबों के खिलाफ भड़काया और कहीं-कहीं तो नामधारी राजा को अपनाकर प्रजा में ही फूट डलवा दी। अपनी भेदनीति द्वारा उन्होंने अधिकाँश राज्यों को पराजित किया। बंगाल विजय करने में तो उन्होंने मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं का और सरदार-सामंतों के खिलाफ व्यापारी वर्ग का दुरुपयोग करके धर्मद्वेष और वर्गद्वेष तक का भी उपयोग किया।
माउंट स्टुअर्ट एल्फिंस्टन ने 1818 में पेशवाई को खत्म करके हिंदुस्तान में अँगरेजों की सार्वभौमिकता स्थापित करने की और कदम बढ़ाए। वह मुँलाई प्राँत का पहला गवर्नर हुआ। इसी समय सर टामस मनरो मद्रास का गवर्नर था। इनमें से 1819 में एल्फिंस्टन ने सर जॉन मालकन को लिखा-”आज या कल सारा देश हम अपना बना ल यही वाँछनीय हैं।” अंग्रेज राजनीतिज्ञ इस बात को जानते थे कि भारतीय सद्गुण संपन्न हैं, उनमें बौद्धिक क्षमता है, शौर्य हैं, पराक्रम हैं। अगर यहाँ राज्य करना है तो आपस में लड़ाते रहना होगा। इनके संगठन को तोड़ना फिर संगठित न होने देना ही ब्रिटिश सत्ता को कायम रखने का उपाय हैं।
स्वामी रामतीर्थ से एक व्यक्ति ने पूछा-क्या संसार की विपत्तियाँ टालने और स्वर्गीय परिस्थितियों के अवतरण का कोई उपाय हैं?
है अवश्य! स्वामी जी बोले- बलिदान से विपत्ति टलती हैं-यह कहावत आज भी उतनी ही सच्ची हैं, जितनी प्राचीन पुण्यकाल में, ऐसा यज्ञ हमें इसी संसार में स्वर्ग दिला सकता है जिसमें देवताओं की तृप्ति के लिए किए गए यज्ञ में विद्वेष, ईर्ष्या, क्रोध और कृपणता का बलिदान दिया जाए।
फ्रेड्रिक जॉन शीअर नामक एक अंग्रेज लेखक ने सन् 1835 ई. में अपने ‘इंडियन आर्मी’ नामक लख में इसी बात का प्रतिपादन किया। उसने इसमें लिखा है कि “हिंदुस्तानियों में राष्ट्राभिमान तो हैं, पर वे कभी एक नहीं हो सकते, यह हमारे साम्राज्य की सामर्थ्य है।” इसी क्रम में उसने आगे लिखा- ‘परंतु यदि वे एका कर ले तो बहुत आसानी से हमारा नामोनिशान मिटा सकेंगे। ऐसा मुझे भय हैं।” यह भेदनीति एवं फूट डालने की कुटिलता अंत तक ब्रिटिश साम्राज्य का सर्वश्रेष्ठ हथियार बनी रही, यह बात सभी जानते हैं।
भारत को लंबे समय तक गुलाम बनाए रखने के लिए अंगरेजों ने एक और कुटिल नीति का आश्रय लिया यह नीति थी ब्रिटिश शिक्षापद्धति को बढ़ावा। इसके अंतर्गत उन बातों को पढ़ाया जाने लगा जो भारतीय ज्ञान और गौरव को भूलकर मन को यूरोपीय रंग में रँग दें। हालांकि पहले अंग्रेज शिक्षाप्रसार एवं मुद्रण स्वतंत्र दिए जाने के बारे में भयभीत थे। उन्हें यह लग रहा था कि पढ़-लिखकर भारतवासी उनके खिलाफ बगावत न कर दें। परंतु मेटकाफ ने उन्हें बताया कि डरने की बात नहीं हैं। भारतीयों को इस ढंग से पढ़ाओ कि वे हमेशा-हमेशा के लिए ब्रिटिश राजसत्ता के सेवक बने रहें। हुआ भी यही, मेटकाफ की नीति कारगर रही। जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पाई, वे इस बात का प्रचार करने लगे कि अंग्रेजी राज्य हमारे लिए बहुत जरूरी हैं। किसी भी बुद्धिमान मनुष्य को यह इच्छा नहीं करनी चाहिए कि अंग्रेज का राज्य यहाँ से चला जाए। अंग्रेज पढ़े-लिखे लोग 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रामाणिक प्रचारक बन गए। हिन्दी, संस्कृत व क्षत्रिय मुख्य भाषाएँ पृष्ठभूमि में चली गई। यह क्रम बाद भी चलता रहा।
अँगरेजों की यह भेदनीति यानि कि संगठन को विघटन में बदलने की कुटिल नीति तीव्रगति से चलती रही और उसी तीव्रगति से उनका साम्राज्य भी बढ़ता गया। परंतु 19वीं सदी के मध्य के आसपास स्थिति अचानक बिगड़ गई। इस बीच सन् 1845 में अँगरेजों और सिखों के बीच प्रथम युद्ध हुआ। 1848 ई. में द्वितीय युद्ध हुआ, परंतु स्थिति बिगड़ने का कारण अँगरेजों की वह गलती थी जो उन्होंने सन् 1857 में कर डाली। यह गलती अथवा भूल थी- भारतवर्ष की धर्मभावना के साथ छेड़छाड़ करना। इससे यहाँ के हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदाय उनसे नाराज हो गए। नानासाहब, तात्याटोपे, महारानी लक्ष्मीबाई, कुँवरसिंह जैसे राष्ट्रवादियों ने इस नाराजगी को प्रबल राष्ट्रवाद का स्वरूप दिया।
यह भारतवर्ष की स्वतंत्रता के लिए पहला व्यापक महाअभियान था। इसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी गई। 1857 ई. में ब्रिटिश सत्ता पर प्रबल मर्माघात हुआ। परंतु जहां तात्याटोपे और महारानी लक्ष्मीबाई जैसे देशप्रेमी व्यक्तित्व थे, वहीं अँगरेजों का सहयोग करने वाले विघटनकारी तत्व भी थे। यह महासंग्राम सफल न हो सका। 1857 ई. को बर्ड कैनिंग ब्रिटिश साम्राज्य के वायसराय के रूप में सत्तासीन हुए। अब भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया।
1857 ई. में हुए स्वतंत्रता के इस संग्राम से ब्रिटिश राज्य कैसे बच गया, इसकी मीमाँसा सर जॉन सीली ने कुछ इस प्रकार की-”एक जाति के खिलाफ दूसरी जाति को लड़ाकर ही बहुताँश में यह गदर मिटाया हैं।” जॉन सीली ने अपने ये उद्गार अपने ही एक ग्रंथ ‘द एक्सपैन्शन ऑफ इंग्लड’ में व्यक्त किए हैं। उसने आगे लिखा-”जब तक यहाँ के लोग सरकार की आलोचना करने और उसके खिलाफ बगावत करने के आदी नहीं हो जा सकती हैं, परंतु यदि हालत बदले गए और किसी भी तरह यहाँ के लोगों में संघर्ष की भावना पैदा हो गई, उन्हें संगठित होकर रहना, संगठित होकर काम करना आ गया तो मैं इतना ही नहीं कहता कि हमारा प्रभुत्व के कायम रहने की आशा भी बिल्कुल छोड़ देनी चाहिए।”
वीरभद्रों की जरूरत है
अगले दिनों अनेकों दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन की आवश्यकता पड़ेगी। उसके लिए ऐसे गाँडीवधारियों की, जो अर्जुन की तरह कौरवों की अक्षौहिणी सेनाओं को धराशायी कर दे आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे हनुमानों की जरूरत होगी, जो एक लाख नाती वाली लंका को पूँछ से जलाकर खाक कर दे। कलाकारों की आवश्यकता है, जो चैतन्य महाप्रभु, मीरा, सूर, कबीर की भावनाओं को इस प्रकार लहरा सकें, जैसे सपेरा साँप को लहराता है। धनवानों की जरूरत हैं जो अपने पैसे को विलास में खरच करने के लिए लुटा सकें। राजनीतिज्ञों की जरूरत हैं जो गाँधी, रूसो और कार्लमार्क्स तथा लेनिन की तरह अपने संपर्क के प्रजाजनों को ऐसे मार्ग पर चला सकें, जिसकी पहले कभी भी आशा नहीं की गई थी।
यहाँ समरसता उत्पन्न करने, विभिन्न जातियों के बीच भावनात्मक ऐक्य स्थापित करने का एक ही सूत्र था-साँस्कृतिक क्राँति। ऐसी साँस्कृतिक क्राँति जो आध्यात्मिक भावापन्न हो। नवजागरण काल में राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन आदि ने यही सूत्र खोजने शुरू किए थे। उनके इन प्रयासों से भारतीयता अंगड़ाई लेने लगी थी। एक नई संक्राँति के स्वर सुने जाने लगे थे। यह वर्तमान सहस्राब्दी की तृतीय संक्राँति थी, जो भारतव्यापी ही नहीं विश्वव्यापी होने का अभियान रच रही थी।