संक्राँति का प्रथम पर्व

February 2000

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सन् 1000 ई. भारत के भाग्यनिर्माण में निर्णायक वर्ष था। इसी साल महमूद गजनी ने अपना पहला आक्रमण किया। उसके इस पहले आक्रमण ने भारतवर्ष में सहस्राब्दी की प्रथम संक्राँति का बीज बोया। इतिहासकारों ने इस घटना को प्राचीन व मध्यकालीन ऐतिहासिक परिस्थितियों के बीच विभाजक रेखा माना। इस घटना के पूर्व जगद्गुरु शंकराचार्य के प्रयासों से देश की साँस्कृतिक चेतना अखंड रूप से विकसित हो रही थी। बीच में सिकंदर के विजय अभियान, यूयानी, कुषाण, शक, हूणों आदि के आक्रमण व सिंध में अरबों की घुसपैठ आदि से इसमें व्यवधान अवश्य आए, किंतु ये सभी घटनाक्रम अस्थायी थे। इसके समाप्त होते ही देश की सामाजिक एवं साँस्कृतिक चेतना ने इनके प्रभाव को सरलता से अपनी जीवनधारा में आत्मसात् कर लिया।

सन् 1000 ई. के बाद के कुछ दशकों में महमूद गजनी का अंतिम आक्रमण होने तक हुई भारी उथल-पुथल के बीच राष्ट्रीय चेतना लुप्त होने लगी थी। उत्तरी भारत को 150 वर्षों तक स्थिरता देने वाला कन्नौज का साम्राज्य विखंडित हो चुका था। पूर्वी भारत में पाल, चंद्र वर्मन और गंग आपस में संघर्ष कर रहे थे। दक्षिण में दो शतक तक शासन करने वाली राष्ट्रकुल की सत्ता भी बिखर चुकी थी। सामाजिक जड़ता एवं क्षेत्रीय आकाँक्षाओं के कारण राजा लोग अलग-अलग बँटे हुए थे। सन् 1178 ई. में पृथ्वीराज चौहान ने दिल्ली का शासन सँभाला इतना ही नहीं 11191 ई. में तराई के पहली लड़ाई में मोहम्मद गोरी को बुरी तरह पराजित भी किया, लेकिन 1192 में उन्हें आपसी फूट एवं विद्वेष के चलते गोरी से पराजित होना पड़ा। यद्यपि 1203 ई. में गजनी लौटते समय सिन्धु नदी के पास खोखर समूह के लोगों ने गोरी को हराने के साथ उसकी हत्या कर दी और इसी वर्ष 24 जून को कुतुबद्दीन ऐबक दिल्ली का पहला मुस्लिम सम्राट बना।

‘स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ में विल डूरेंट लिखते हैं-”भारत पर विदेशी आक्रांताओं की यह विजय विश्व इतिहास की सबसे रक्तरंजित कहानी हैं। आक्रांताओं ने सोमनाथ प्रभृति देवालयों का ही ध्वंस नहीं किया, यहाँ की साँस्कृतिक भावधारा को भी प्रदूषित करने की चेष्टा की।” इस बीच पश्चिमी जगत् में रोमन साम्राज्य के खंडित भग्नावशेषों के ऊपर आधुनिक यूरोप की नींव रखी जा रही थी। सन् 1000 ई. में अर्द्ध सभ्य यूरोप स्वयं को सुसभ्य बनाने की कोशिशों में जुट गया था। 11वीं, 12वीं, 13वीं शताब्दी में यूरोप में तो धर्मयुद्धों के नाम पर भीषणतम मारकाट की शृंखलाएं भी चलीं।

भारतवर्ष में तेरहवीं शताब्दी शुरू होने के बावजूद उथल-पुथल में कोई कमी नहीं आई थी। 1236 से 1240 ई. तक रजिया बेगम का शासनकाल रहा। 1247 से 1266 ई. में नसिरुद्दीन महमूद ने शासन किया। 1266 से 1287 ई. तक शासनसत्ता गयासुद्दीन बलवन के हाथों में रही। उसके अवसान के साथ ही अंततः गुलाम वंश का पतन हो गया।

इसके बाद शासनसत्ता खिलजियों के हाथ लगी। 1296 ई. में बलवन के पोते कैकोबाद की हत्या के साथ ही जलालुद्दीन खिलजी ने शासन सूत्र सँभाला। 3 अक्टूबर 1296 ई. को अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के शासन पर कब्जा जमाया और 2 जनवरी 1306 ई. को अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु होने के साथ खिलजी वंश का अवसान हो गया। इसके कुछ वर्षों बाद 8 सितम्बर 1320 ई. को गाजी मलिक तुगलक ने तुगलक वंश के शासन की स्थापना की। 1325 में मुहम्मद बिन तुगलक गद्दीनशीन हुआ। जिसके द्वारा अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद, बाद में दौलताबाद से दिल्ली लाने-ले-जाने के किस्से आज तक मशहूर है। इसी बीच दक्षिण भारत में 1336 ई. में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। इसी के कुछ वर्षों के अंतराल में दक्षिण भारत में ही बहमनी सल्तनत की स्थापना 1345 ई. में अलाउद्दीन बहमनीशाह ने की। इधर का तख्त 1351 ई. में मुहम्मद तुगलक का सिंध में निधन होने से खाली हो गया। देश की स्थिति लगातार की उलट-पुलट एवं हेर-फेर से बाद से बदतर होती जा रही थी।

इसी समय 1398 ई. में तैमूर वंश का जोरदार आक्रमण हुआ और चारों और तबाही के नजारे दिखाई देने लगे। तभी 14वीं सदी के प्रवेश के दूसरे दशक में खिर्जा खान ने सैयद वंश का शासन स्थापित किया, लेकिन यह ज्यादा समय तक टिक न सका और 1451 ई. में पहले अफ़गान सुलतान के रूप में बहलोत लोदी गद्दीनशीन हुआ, इसके बाद सिकंदर लोदी का शासन आया। सिकंदर लोदी के बाद शासनसत्ता इलराहिम लोदी के हाथों में आई 21 अप्रैल 1526 को इलराहिम लोदी और बाबर के बीच पानीपत की पहली लड़ाई हुई। इसमें इलराहिम लोदी को पराजित होना पड़ा। 16 मई 1527 को हुई कनवाह की लड़ाई में मेवाड़ के राणासाँगा की भी हार हुई। 6 मई 1429 को घघरा की लड़ाई में महमूद लोदी को भी बाबर के हाथों पराजित होना पड़ा। बाबर की इस विजय से ही मुगल साम्राज्य की नींव मजबूत हुई।

मुगल साम्राज्य की स्थापना से कुछ पहले सिकंदर लोदी के समय कबीर का आविर्भाव 15वीं सदी में हुआ। भारतीय इतिहास में यह समय राजनीतिक उथल-पुथल और संक्राँति का समय माना जाता है। यूरोप में भी यह समय पर्याप्त उथल-पुथल से भरा था। 1336 से 1443 ई. तक इंग्लैंड और फ्राँस के बीच लगभग सौ वर्षीय युद्ध लड़ा गया। इस सौ वर्षीय युद्ध के अंत तक फ्राँस राजतंत्र काफी सशक्त हो गया, लेकिन इंग्लैंड की शक्ति भी कुछ कम नहीं हुई। भारत की स्थिति इन दिनों कुछ ज्यादा ही विषम थी। इस समय उत्तर भारत के राजपूत वंश प्रायः अपना प्रभाव खो चुके थे। दिल्ली में मुसलमानों का शासन स्थापित हो चुका था। उत्तर भारत में केन्द्रीय शक्ति का अभाव था। जौनपुर, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, कामरूप, मालवा, गुजरात, कश्मीर, मेवाड़, मारवाड़, और, ग्वालियर, आदि कई स्वतंत्र राज्य कायम हो चुके थे।

दिल्ली की राजसत्ता भी आखिर इन सदियों में कहाँ स्थिर रह सकी। कुछ वर्षों में पाँच राजवंश-गुबमवंश, खिलजीवंश, तुगलकवंश, सैयदवंश, और बेदीवंश स्थापित और विघटित हुए। दिल्ली सल्तनत में गुबमवंश का काल इसका ऊषाकाल, खिलजीवंश का काल इसका मध्यतनकाल, तुगलकवंश का काल इसका पतन काल एवं बेदीवंश का काल इसके अंधकारगमन काल साबित हुआ। संक्राँति का जो पहला स्पंदन गजनी के आक्रमण के समय उठा था, वह थमा नहीं, उत्तरोत्तर बढ़ता गया। संक्राँति की पहली लहर जो सोमनाथ के मंदिर के ध्वंस के समय में उठीं थी वह और व्यापक एवं विशाल होती गई।

उथल-पुथल की यह भयावहता राजनीतिक परिदृश्य तक ही सीमित न रही, इसका असर समाज एवं संस्कृति पर भी पड़ा। परस्पर घृणा एवं विद्वेष उत्तरोत्तर बढ़े, छुआछूत और अधिक पनपा। संकीर्णता की खाइयाँ पटने के स्थान पर अधिक चौड़ी हुई। अपने को बड़ा मानकर औरों को छोटा दिखाने की प्रवृत्ति इतनी अधिक पनपी कि पूरा समाज ही इससे घिर गया। यह वह समाज था, जिसे समन्वय के संदेश की आवश्यकता थी। इस समय ऐसे महामानव की आवश्यकता थी, जो सभी को, हिन्दू-मुसलमान को प्यार से समझाए और फटकार कर सही राह पर ले जाए, जो हिन्दू और मुसलमान दोनों का ही हो। इतना ही नहीं जो हिन्दू और मुसलमान से बढ़कर एक इनसान हो। महात्मा कबीर कुछ ऐसे ही थे। नियति ने उन्हें संक्राँति के इस प्रथम पर्व का पुरोधा बनाया था।


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