वह महाराष्ट्र का एक बीहड़ वनप्रदेश था। बाँस वनों और लता–विटपों से संकुल इस क्षेत्र में मानवाचरण कभी-कभार ही भटक पाते थे। ऊँची पहाड़ियों, गहरी घाटियों और अगणित नदी-नालों ने इस इलाके की और भी दुर्गम बना दिया था। यहीं एक बड़ी गुफा लता-गुल्मों से इस तरह परिवेष्ठित थी कि दूर से किसी प्रवेशद्वार का आभास नहीं हो पाता था। गुफा के बाहर की भूमि समतल और साफ थी। वृक्षों की जड़ों में निर्मित वेदियाँ और उन पर निवेदित पूजा के फूलों की रंग–बिरंगी छटा मन को बाँध लती थी। वृक्षों की डालियों पर सूखते गेरुए वस्त्र और रज्जुओं से झूलते कमंडल और तूँबे अत्यंत मोहक और प्रभावकारी दृश्य उपस्थित कर रहे थे। यत्र-तत्र प्रज्वलित कुँडों से निस्सृत हवन सुगंध पूरे वातावरण को पूत-पुनीत कर रही थी, पर सबसे आश्चर्य में डालने वाले थे वृक्षों की जड़ों से दूर बने कुछ अखाड़े, जिनकी चूर्ण हो आई मिट्टी इनमें संपादित-नियमित मल्लयुद्ध की सूचना दे रही थी। कुछ वृक्षों से सटे खड़े काष्ठ निर्मित मुद्गल और भारोत्तोलन के लिए पड़े पाषाण–खंड सूचित कर रहे थे कि यह स्थान आत्मबल के साथ शरीरबल का भी साक्षी हैं।
कौन हैं वह अद्भुत तपस्वी, जो अपने शिष्यों के तन और मन दोनों को एक साथ माँजने को कृतसंकल्पित हैं? क्या हैं उसका लक्ष्य, जो अंदर और बाहर की समृद्धि के संगम पर ही प्राप्त हो सकते है? कैसा हैं उसका महाअभियान? और कौन है उसका सूत्रधार, जिसने इस एकाकी वन को अपने संचालन केंद्र के लिए चुन रखा हैं? ऐसे तमाम सवाल यहाँ किसी भी आने वाले को आलोड़ित करने लगते थे, हालांकि यहाँ तक आ पाना जनसामान्य के लिए इतना सुगम नहीं था।
फिर भी इन सबका उत्तर उस गुप्त गुफा में प्रवेश करने के पश्चात् स्पष्ट होने लगता था।
गुफा के बीचोंबीच एक गौरवर्ण, किचित प्रौढ़ साधक समाधिस्थ था। उसके तेजो दीप्त तन से फूटता प्रकाश-पुँज उस संपूर्ण गुफागतनर को आलोकित कर रहा था। मेरुदंड को किसी काष्ठदंड की तरह लबाकार किए अर्द्ध-उन्मीलति नेत्रों को नासिकाग्र पर टिकाए, पद्मासन में आसीन इस साधक को देखते ही मन अनायास श्रद्धापूर्ण हो जाता था। निश्चित ही यही वह व्यक्ति था, जिसके इंगित पर यहाँ के सारे क्रिया–कलापों का नियोजन होता था।
लगता था कि इन महायोगी को समाधिरथं हुए काफी देर हो गई थी। सामने ये दो वलष्इि व्यक्ति, जो निश्चित ही इनके शिष्य थे। और वे आतुरता से उनकी समाधि की समाप्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे।
बाहर आम्र, वट और शीशम, शाल वृक्षों का शाखाओं को अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें ने अंतिम स्पर्श किया था। नीड़ों को वापस बैठते पक्षियों का सायं कलरव वातावरण को संगीतमय कर रहा था। आश्रम की रँभाती गौएँ अपने नवजातों को निशापान निमंत्रण देने लगी थीं।
शिष्यों में से एक अत्यंत मंद स्वर में दूसरे से कह रहा था, लगता है अब समर्थ प्रभु की समाधि टूटने वाली हैं श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया जो पूर्णतया समाप्त हो गई थी, अब तीव्रता पकड़ रही हैं। समर्थ स्वामी आज दोपहर के पूर्व से ही समाधिस्थ हैं। मैं तो उन्हें शिवाजी महाराज के आगमन की सूचना देने आया था, पर यहाँ आकर देखा वे समाधिलीन हैं। लगता है कुछ विशेष बात हैं तभी..........।
“ठीक कहा तुमने।” ठीक उसी समय समर्थ गुरु रामदास प्रकृतिस्थ हो आए थे। बोल-”अफजल खाँ बड़ा भारी संकट बनकर आया हैं वत्स! वह हरे-भरे खेतों को उजाड़ रहा हैं। उसके बर्बर सैनिक नारियों कन्याओं का बलात्कार करते हैं, शिशुओं को संगीतों पर उछाल देते हैं। बड़ी दुस्सह स्थिति हो चली हैं .........।” समर्थ स्वामी जी से यह बातें कर रहे थे, तभी खबर आई कि शिवाजी महाराज पधार गए हैं।
समर्थ स्वामी के होंठों पर एक रहस्यात्मक मुस्कान तैर गई। उन्होंने अपनी आँखों से शिवाजी को अंदर लाने का और पहले से उपस्थित दोनों शिष्यों को बाहर जाने का इंगित किया।
कुछ देर में शिवाजी अंदर आ गए। भूमि पर माथा रखकर समर्थ को प्रणाम निवेदित किया और उनके आदेश पर जमीन पर पड़े कुशासन पर बैठ गए। मोहक व्यक्तित्व था शिवाजी का। कसी हुई माँसपेशियाँ। चौड़ा दमकता ललाट। आग के समान चमकता गौरवर्ण, सिर पर उलटे हुए घने काल केश और उन पर चढ़ी हुई पगड़ी, उनकी प्रभा को शतगुणित कर रहे थे। आसन पर बैठे हुए उनकी आंखें समर्थ स्वामी की ओर टिकी थी।
“तुम बहुत अच्छा कर रहे हो शिखा।” समर्थ सद्गुरु कहने लगे-”युगपरिवर्तन प्रबल पराक्रम से होता है। देश और जाति की इस अधोगति से व्यथित होकर ही मैंने अपना यह अभियान चलाया हैं, जिसके द्वारा मैं इस आर्यभूमि के उद्धार के लिए कृतसंकल्प हूँ। केवल शरीर से कुछ नहीं बनता वत्स, न केवल मन और आत्मा से, तन, मन और आत्मा तीनों का संस्कार करो, तो व्यक्ति संस्कारित होता है। जब व्यक्ति संस्कारित होता है हैं तो समाज समृद्ध होता है। जब समाज समृद्ध होता है तो राष्ट्र कालपुरुष की तरह विराट् और महान् बन जाता है। पुष्ट शरीर के अंदर ही स्वस्थ मन बनता है और स्वस्थ म नहीं निष्कलुष आत्मा का आश्रय हैं। इसीलिए मैंने हनुमान का आदर्श स्वयं अपनाया हैं और जन-जन के सामने रखा हैं। हनुमान शरीरबल, मनोबल, आत्मबल तीनों का साक्षात् स्वरूप हैं। वे वज्रदेह, महाज्ञानी और प्रभू के प्रियभक्त हैं। तभी तो वे ‘दनुज वन कृशानुँ ‘ दैत्यों के वन को जलने वाली आग हैं, वत्स! तुम अफजल खाँ की सेना पर ‘दनुज बन कृशानुँ’ बनकर टूट पड़ो।
“आपको सब पता है गुरुदेव,” शिवाजी को आश्चर्य हो रहा था कि समर्थ स्वामी को अभी से तुरंत की बातें कैसे पता चली।
समर्थ मुस्कराए और कहने लगे-”हमने अपनी समाधि में अफजल खाँ की सारी बर्बर करतूतें देख ली हैं। तुम्हारे आगमन का कारण भी हमें समाधि में ज्ञात हो गया था। चिंता मत करो शिवा! देश को तुम्हारी चिंता की नहीं, शौर्य की आवश्यकता है। समय की धारा को युगप्रवाह को मोड़ने के लिए महापराक्रम की जरूरत हैं। मेरे लिए यह पराक्रम कठोर तप−साधना में प्रवृत्त रहना है, तुम्हारे लिए यही पराक्रम अत्याचारियों-अन्यायियों से महासंघर्ष हैं। इस संघर्ष में तुम्हारी विजय होगी। अफजल का वध तुम्हारे हाथों होगा। अब जाओ शिवा, कर्तव्य तुम्हें पुकार रहा हैं। भवानी तुम्हारा मंगल करे- “शुभास्ते सन्तु पन्थानः” तुम्हारा मार्ग निष्कंटक रहे। यह कहकर समर्थ उठ खड़े हुए।
शिवाजी ने भूमिक होकर अपना प्रमाण निवेदित किया और कर्त्तव्य पर पड़े पड़े। अब उनका व्यक्तित्व समर्थ की तपसामर्थ्य से ओत-प्रोत था। महायोगी समर्थ सद्गुरु की तप क्तत्व समर्थ की तपसामर्थ्य से ओत-प्रोत था। महायोगी समर्थ सद्गुरु की तप ऊर्जा उनमें प्रवाहित हो रही थी। उनकी तपशक्ति को शौर्यपुँज बन दिया था। उनके महापराक्रम की प्रचंड ज्वाला में अफजल खाँ पतंगे की तरह भस्म हो गया। युगपरिवर्तन के लिए उमंगे उनके इस महापराक्रम की महिमा महाकवि भूषण स्वरों में मुखरित हो उठी-
इंद्र जिमि जेभ पर बाड़व सुअंब पर, रावण संदर्भ पर रघुकुल राज है। यौन वारिपाह पर शंभु रतिनाह पर, ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं। दावा द्रुमदंड पर, चीता मृग झुँड पर, भूषण वितुँड पर जैसे मृगराज हैं। तेजतम अंस पर, कान्हा जिमि कंस पर, ज्यों म्लच्छ वंश पर शेर शिवराज हैं।
अशोक ने कंलगि विजय तो की, पर उसके अतः का हाहाकार शाँत नहीं हुआ। भारी रक्तपात व विनाश से प्राप्त यह सफलता उसे शाँति नहीं दे पाई। बुद्ध की शरण में जाते ही उसका जीवनक्रम बदले गया। धर्मचक्र प्रवर्तन के शुभ प्रयोजन में उसने स्वयं को नियोजित कर दिया। अहंता की विकृति पर कठोर अंकुश ने जिस समर्पण भाव को जन्म दिया, उसने उसे बुद्ध रूपी आदर्शवादी परमात्मसत्ता से जोड़कर महान् चक्रवर्ती-सम्राट् अशोक के रूप अमर कर दिया।