भक्तिभावना अंदर तक ही सीमित न रह। वह परमार्थ हेतु सत्कर्मों के रूप में अभिव्यक्त हो तो ही वह सार्थक हैं। वृत्ति कृपण जैसी हो तो कुबेरों का खजाना भी व्यर्थ हैं। उदार के लिए तो प्रतिकूल परिस्थिति में भी परमार्थ की आकुलता रहती हैं।