पुनः लय पाते साधनात्मक आँदोलन के बिखरे स्वर

February 2000

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आध्यात्मिक साधना भारतवर्ष की राष्ट्रीय जीवनी शक्ति का मूल स्रोत हैं। किसी भी राष्ट्र का प्राणसंचार सामान्यक्रम में जिन नस-नाड़ियां से प्रवाहित होता है, वे हैं-शासन की शक्ति सैन्यशक्ति भी पुली-मिली रहती हैं और संक्षेप में यही राजनीतिक चेतना का पर्याय हैं। इसके अलावा आर्थिक शक्ति, सामाजिक शक्ति एवं साँस्कृतिक शक्ति के प्राणप्रवाह को एक छोर से सुदूर दूसरे छोर तक प्रवाहित किए रहता है। इसके चलते देश का कोई भी अंग-अवयव सूखने या मुरझाने नहीं पाता। हर जगह जीवन की उमंगें मुस्कराती रहती हैं। भारतीय परिवेश, परिदृश्य एवं परिप्रेक्ष्य में एक और महान् सत्य और शक्तिस्रोत अंतर्निहित हैं। एक ऐसी चेतना, जिससे सभी आध्यात्मिक चेतना हैं, जो भारत देश का अपना वैशिष्ट्य हैं।

जिन्होंने भारत एवं विश्व के इतिहास का सतही अध्ययन किया हैं, उनकी बात तो जाने दें, परंतु जो गंभीर अध्येता एवं प्रखर इतिहासवेत्ता है, ऐतिहासिक चेतना की प्रकृति एवं इसके सूक्ष्म तत्वों की जिन्हें परख हैं, वे इस तथ्य से भलीप्रकार सुपरिचित हैं। वे इस सत्य को पूरी तरह से जानते हैं कि भारत की नैसर्गिक प्रकृति आध्यात्मिक हैं। भारत में हमेशा से आध्यात्मिक राष्ट्रवाद ही पनपा एवं फल-फूल हैं। आध्यात्मिक चेतना की प्रखरता ने ही राष्ट्र को प्रखर जीवन दिया हैं। इसमें होने वाली अवगति ही राष्ट्रीय अवगति एवं अवनति का कारण बनी हैं। औरंगजेब ने अपनी क्रूर शासनपद्धति से राष्ट्र के इसी आध्यात्मिक प्राणप्रवाह को कुंठित और रुद्ध किया और समूचा राष्ट्रीय ढाँचा ही चरमरा गया।

इस चरमराए हुए सामाजिक एवं साँस्कृतिक जीवन में यदि कुछ प्राण बचे थे, वो भी महान् संतों की आध्यात्मिक साधनाओं के कारण। ये सभी संत अपने-अपने क्षेत्र और अंचल के अध्यात्म का प्राणदीप जलाए हुए थे। यह युग भक्ति का युग था। लगातार हो रहे अनाचारों-अत्याचारों एवं अन्यायी चीख-पुकारों के बीच ज्ञानचेतना का मंद पड़ना स्वाभाविक था। सामान्य जनता को जो नित्यप्रति लट-खसोट और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था, उसे वे भ्रम मानकर ब्रह्म की दुहाई कैसे दें? उन्हें तो उस ईश्वर की तलाश थी जो उनकी आर्त्त पुकार के सुने और जवाब दें, फिर वह चाहे निर्गुण हो या सगुण।

जनमानस की पीड़ा, कराह व व्यथा भरी पुकार को आध्यात्मिक चेतना से अनुप्राणित करने वाले दो तरह के साधनात्मक आँदोलन इस युग में सक्रिय हुए। इनमें से पहला था निर्गुण भक्ति का प्रचार करने वालों में नानक देव का पंथ अग्रणी था। हालांकि बाद के दिनों में इसमें भी सगुण भक्ति का प्रवेश हो गया। यह प्रवेश यों तो गुरु अमरदास के समय में ही हो गया था, परंतु बाद में यह तो एकदम साफ तौर पर नजर आने लगा। दादू ने

वनपर्व (महाभारत) में ‘यक्ष-युधिष्ठिर संवाद’ में एक प्रश्न यक्ष पूछते हैं-जिनके समाधान में महाप्राज्ञ के इस विवेचन का सार निहित हैं। यक्ष पूछते हैं, हे यूधिष्ठिरी ब्राह्मणत्व किससे सिद्ध होता है, युधिष्ठिर उत्तर देते हैं-कुल, स्वाध्याय, शास्त्रश्रवण इनमें से कोई भी ब्राह्मणत्व का कारण नहीं हैं। आचार मात्र ही ब्राह्मणत्व का कारण नहीं हैं। जिसका सदाचार अक्षुण्ण हैं, उसने आना आत्मबोध कर लिया हैं, अज्ञान से वह दूर हैं, अतः उसे ही द्विज कहना चाहिए।

भी निर्गुण साधना की अलख जगाई हाबँई उन्होंने यह भी कहा कि परमात्मा सगुण हैं या निर्गुण इस चक्कर में मत उलझो। तुम तो उसे पुकारों। अपनी आत्मशक्ति जगाओ। अपनी आत्मचेतना को पहचानो तभी तुम्हारे कष्ट दूर होंगे

छादू पंथ की तरह ही निरंजन पंथ ने भी घायल जन-चेतना को मरहम लगाया, विद्वानों के अनुसार यह नाथ परंपरा की ही एक शाखा हैं। यह शाखा 17 सदी में उड़ीसा एवं सिलहट की भूमि में व्यापक तौर पर फैल गई। इस पंथ का आद्य आचार्य जगन को माना जाता है। एक नया पंथ हरिदास जी का उभरा। जिसे ‘करड़ा’ नाम से जाना गया। निर्गुण मत में इन्हीं दिनों बावरी साहिबा का एक नया स्वर फूटा। ये परम भक्तिमती महिला थीं। उन्होंने नारियों की व्यथा जानी और उसे दूर करने के लिए कटिबद्ध हुई। उनका पंथ बावरी पंथ के नाम से जाना गया। बावरी पंथ की ही भाँति मलक पंथ एवं सत्तनामी संप्रदाय भी इस साधनात्मक आँदोलन में शामिल हुए। प्रणामी संप्रदाय धरनीश्वरी संप्रदाय, दरियादासी संप्रदाय, बाबा, बली संप्रदाय, शिवनारायणी संप्रदाय, चरणदासी पंथ, गरीब पंथ, रामस्नेह संप्रदाय, सरभंगी पंथ आदि सभी को मानने वालों ने अपने निकटस्थ जनजीवन के बीच कष्टपीड़ित लोगों को ईश्वरीय चेतना की ओर उन्मुख-अभिमुख करने का प्रयास किया।

निर्गुण मत के माध्यम से अध्यात्म चेतना की दीप-शिखा जलने वाले संतों की भावनाएँ कितनी ही नेक क्यों न रहीं हों, परंतु सामान्य जन उनसे यही पूछता रहा ‘निर्गुण कौन देश को वासी?” निराकार भगवान् उनकी कैसे सुनेगा? किस तरह समझेगा और उन्हें कैसे प्रत्युत्तर देगा? ये पहेलियां हल नहीं हुई। इन्हीं पहेलियों को हल करने को सगुण भक्ति का प्रचलन चला। संक्रांति के दिनों में सगुण भक्ति ने जनचेतना को एक अपूर्व ऊर्जा एवं अद्भुत विश्वास प्रदान किया।

सगुण साधना का प्रचार करने वालों में रामनंद और उनका रामानंदी संप्रदाय सबसे अवतरित हुआ। इस क्रम में रसिक संप्रदाय, वल्लभ संप्रदाय एवं महाप्रभु चैतन्य द्वारा प्रेरित-परिवर्तन गौड़िय संप्रदाय ने मुरझाए जनजीवन को अपने भक्तिरस से नवचेतना देने का काम किया। निंबार्क संप्रदाय, मध्य संप्रदाय आदि संप्रदायों के प्रवर्तक आयार्च एवं उनकी परंपरा को मानने वाले साधक, संत भी सगुण भक्ति का प्रचार करने में पीछे नहीं रहे। तुलसी और सूर इस काल के संत भले ही न रह हों, परंतु उनकी तपचेतना इस युग में भी अपना प्रकाश-प्रभाव बिखेरती रही। इसी तरह राजस्थान की भक्तिमती संत मीराबाई भी काल की सीमा का अतिक्रमण कर इन दिनों भी नारी चेतना की प्रखर ज्योतिपुंज बनीं रहीं।

महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय ने सगुण भक्ति की ज्योति जलाई। वारकरी संप्रदाय के संतों एवं भक्तों ने आध्यात्मिक साधना को जो गति दी, वह इस युग में ही नहीं हर युग के लिए उदाहरण हैं। नामदेव, एकनाथ, ज्ञानेश्वर, जनार्दन पंत, विसोबा खेचर, सावंतामाली जैसे वंदनीय संत इसी भूमि में हुए। मुक्ताबाई, जानबाई, सहजोबाई जैसी धर्मप्राण नारियों ने भी अपनी साधना से आध्यात्मिक चेतना को नई प्रखरता दी। संक्राँति के इस द्वितीय पर्व पर वारकरी संप्रदाय के संतों में जो सबसे अग्रणी रहे, वे हैं-तुकाराम जी अपनी भगवद्भक्ति से स्वयं भक्ति का एक अनुपम आदर्श बन गए।

आध्यात्मिक साधना के ये स्वर समूचे भारत में, इसके उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम के कोने में फैल-बिखरें थे। इनमें ऊर्जा तो थी, पर संगठन नहीं था। साधना के इन स्वरों में ज्ञान था, भक्ति की वितनलता थी, जनजीवन में समाई तड़प थी, प्रत्येक हृदय से उठाने वाली पुकार का दरद था, परंतु परिस्थितियों की चुनौती को स्वीकार करने का साहस नहीं था। इसमें अत्याचार और अनाचार को ललकार की क्षमता न थी। साधना के इन स्वरों में हुँकार का वह गर्जन न था, जिसे सुनकर अत्याचारियों के कलेजे काँप उठें। उसके दिल दहल जाएँ, सीने फट जाएँ उनके पाँव के नीचे की जमीन खिसक जाए और वे पीछे मुड़ने और भाग निकलने को विवश हो जाएँ। यह ललकार और हुँकार ही समर्थ गुरु रामदास के तपस्वी जीवन का पर्याय थी, जिन्होंने इस युग में अध्यात्मिक साधना को नए स्वर दिए। उनके स्वरों में वह ओज था, जिसका स्पर्श पाकर मराठा शिवाजी जननायक बन गए। उनका व्यक्तित्व प्रत्येक भारतीय का आदर्श बन गया। समर्थ के पुरुषार्थ में वह समर्थ गर्जन था, जिसने औरंगजेब की कमर झुका दी। समर्थ सद्गुरु रामदास का समूचा जीवन-संगठन का संदेश था। उनके इस संदेश को सुनकर साधनात्मक आँदोलनों के बिखरें स्वरों को पुनः अपनी लय मिलने लगी और भारत देश की राष्ट्रीय जीवनी शक्ति फिर से सक्रिय होने लगी।

अपनी साधना की सफलता का श्रेय आप किसे देते हैं, एक व्यक्ति ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस से पूछा। उन्होंने उत्तर दिया- हर असफल साधक को। सौ कैसे? उस व्यक्ति ने पुनः प्रश्न किया। परमहंस ने कहा-मैंने जब भी देखा तो यह मालूम करने की कोशिश की कि वह किन कारणों से असफल हुआ। पीछे उन अनुभवों का लाभ उठाकर मैं उन अवरोधों से बचता और साधनामार्ग पर आरुढ़ होता चला गया।


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