महासंक्राँति का महापर्व

February 2000

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तीन संक्राँति पर्व पूरे चतुर्थ-अंतिम महासंक्राँति की वेला आ पहुँची। प्रायः सभी ओर से एक-सी आवाज आ रही थी कि नया जमाना आने वाला हैं-नया युग आ रहा हैं, किंतु विश्वस्तर पर चौथे व पाँचवे दशक में जो परिवर्तन हो रहे थे, वे किसी को भी निराश कर सकते थे। चौथे दशक में जहां विश्वयुद्ध चर्चा का विश्व था। तो ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका के शुभारंभ ने-अखण्ड घृतदीप की साक्षी में रहे एक प्रचंड तप ने अध्यात्म जगत् में परोक्ष स्तर पर एक विलक्षण भूमिका संपन्न करना आरंभ कर दी। इससे कोई ओर देख भले ही न पाया हो, किंतु तत्ववेत्ता परोक्ष का अध्ययन करने वाले मनीषी श्री अरविन्द रमण महर्षि न केवल देख रहे थे, वरन् ऋषि चेतना द्वारा संचालित इस कार्य में भागीदार भी थे।

भारत की आजादी तो राजनीतिक स्तर पर 1947 में मिली किंतु यह प्रयास बहुत पूर्व 1857 में गदर के माध्यम से 1893 से 1902 तक स्वामी विवेकानंद के सिंहनाद के माध्यम से 1916-17 में गाँधीजी के चम्परान् सत्याग्रह द्वारा बैरिस्टर से महात्मा बनने की प्रक्रिया द्वारा तथा 31 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु को बहौर में दी गई फाँसी के माध्यम से आरम्भ होकर 1942 में गति पकड़ चुके थे। यह वर्ष था भारत छोड़ो आन्दोलन का, जिसकी घोषणा 8 अगस्त को कि गई एवं इसी वर्ष हमारी आराध्यसत्ता परमपूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा इसे 21वीं सदी (वि.सं. 2000) के आगमन की वेला में सतयुग के नवयुग के आगमन का आगमन कहा गया।जहां जनवरी 1943 का अखण्ड ज्योति अंके ‘सतयुग अंक’ के रूप में प्रकाशित हुआ। वहाँ जनवरी 1943 का अंक संवत् 2000 अंक के रूप में छपा। “संदेश नहीं मैं स्वर्गलोक का लाई इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आई” का उद्घोष करने वाली अखण्ड ज्योति पत्रिका ने अब खुलकर नवयुग के समग्र धरित्री के लिये उज्ज्वल भविष्य के आवागमन का प्रतिपादन प्रस्तुत करना आरंभ कर दिया, जो आने वाले चौबीस वर्षों गति पकड़ते-पकड़ते ‘महाकाल की युगप्रत्यावर्तन प्रक्रिया’ के रूप में परिवर्तित होता चला गया।

1942 की जनवरी के विशेषाँक से एक छोटा सा अंश उद्धृत हैं, “आने वाला आ रहा हैं, वह सचमुच आ रहा हैं, क्योंकि वह अपनी प्रतिज्ञा में आप बंधा हुआ हैं- साधुता का परित्राण करने और दुष्टता का नाश करने की उसकी जिम्मेदारी है।” इससे भी और बुरा समय भला फिर कब आयेगा, जिसकी प्रतिक्षा में वह बैठा रहे। पाप और पशुता के वेदना से पीड़ित, जग-जननी, आद्यशक्ति नयनों से जल वर्षा कर रही हैं। प्रभू उसे आश्वासन देते हुये कह रहे हैं-मैं आ रहा हूँ। स्वार्थ और असत्य का साम्राज्य मिटाने के लिये, प्रबुद्ध आत्माओं में स्फुरणा पैदा कर प्रकाश की सुनहरी आभा प्रकट करने के लिये मैं आ रहा हूँ। भक्तों! घबराओ मत, मैं आ रहा हूँ।” एक प्रचंड संकल्प शक्ति के साथ 21वीं सदी के आगमन की प्रक्रिया के आरंभ होकर प्रायः साठ वर्षों पूरा होने की बात गुरु देव आज से प्रायः अट्ठावन-उन्नसट्ठ वर्ष पूर्व से कहते आ रहे हैं।

निश्चित ही नवयुग के आगमन की वेला में संक्राँति का कुछ वर्षों का समय जो कष्ट और पीड़ा की पराकाष्ठा का होता है। हरियुग जन-जन को झेलना पड़ता है। हमें भी विगत साठ वर्षों में उनका सामना करना पड़ा। पहले ही तीन संक्राँतियों में जो प्रक्रिया चली आ रही थी, उस में बौद्धिक गुलामी राजनीतिक परतंत्रता के चलते क्राँतिकारी गतिविधियाँ समष्टिगत स्तर पर न होकर छुटपुट प्रयासों के रूप में होती रही, लेकिन उन्होंने वातावरण विनिर्मित किया। उस समय जो जन-जन के कष्ट झेला, उससे कहीं अधिक 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध के साठ वर्षों में झेलना पड़ा हैं, तभी तो “अखण्ड ज्योति” के माध्यम से महाकाल का संदेशवाहक कहता हैं-”भगवान् भूतनाथ अपनी चतुरंगिणी सेना को लेकर नए युग के स्वागत की तैयारी में जुटे हैं। गौरीबल्लभ ने आनंद से विभोर होकर अपना तीसरा नेत्र खोल दिया हैं और कल्प–कल्पाँतरों से भरे हुए कालकूट की कुछ बूँद नीलकंठ से निकलकर इस पाप−पंक के ऊपर छिड़क दी हैं, ताकि बढ़े हुए झाड़–झंखाड़ जल भुन जाएँ-कँटीली भूमि साफ हो जाए। कितने ही वीरभद्र अपने आकाश चुँबी फावड़े लेकर जुटे हैं ताकि सफाई हो जाए, क्योंकि अवतार आ रहा हैं। स्वागत के लिए सफाई अनिवार्य हैं।” (अखण्ड ज्योति जनवरी 19’42, पृष्ठ 6)

एक संदेश था कि “इस वेला में हम आत्मशोधन करें-अपनी दुर्भावनाओं को बारीकी से खोजें, निकाल बाहर करें। अपना जीवन यज्ञमय बना लें, श्रेष्ठ साधक बना लें, जिससे सदैव धर्ममय विचार प्रसारित हों एक से दस तक पहुँचकर यह विचार क्राँति कि आग जन-जन तक फैला दे” (अखण्ड ज्योति जनवरी 1943) एक गौर करने की बात हैं। आजादी की पूर्णवेला में जब चारों और उथल-पुथल मची थी। द्वितीय विश्वयुद्ध पराकाष्ठा पर था, साधनों का जो दैनंदिन जीवन में प्रयोग आते हैं अकाल सा होता जा रहा था, एक परोक्ष जगत् आध्यात्मिक क्राँति का सूत्रपात होने जा रहा था। इसी को वह विकल्प बनाना था, जिसके सहारे यह नवयुग आ सके, जो पूरे भारत ही नहीं, सारे विश्व को संस्कृतिमय बना सके। छोटी सी शुरुआत उज्ज्वल संस्कृति के संकल्प के साथ व्यक्तिनिर्माण की प्रक्रिया का बीजारोपण, एक सुसंस्कृत समाज के लिए सही इकाई के निर्माण का कार्य शुरू हो चुका था। बहुत छोटे से स्तर पर होने से इतिहासवेत्ताओं की दृष्टि में तो यह आ नहीं सकी, पर जो भी उसे देख पा रहे थे, अपनी सूक्ष्मदृष्टि से समक्ष भी रहे थे व भागीदारी कर रहे थे।

1947 में भारत को आजादी मिली, जो चिरप्रतीक्षित थी- 1948 में उसे महात्मा गाँधी एवं 1950 में श्री अरविन्द तथा सरदार पटेल के महाप्रयाण से कठोर आघात सहने पड़े। महासंक्राँति के महानायक आचार्य श्रीराम का पुरुषार्थ निर्बाध गति से पड़े रहा था। इसी बीच यहूदी राष्ट्र इजराइल 14 मई 1948 को जन्म ले चुका था एवं भविष्य के पाँच दशकों में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करने वाली ‘नाटो’ की स्थापना 4 अप्रैल 1949 को हो चुकी थी। इसके द्वारा वह शीतयुद्ध आरंभ हो गया था, जिसे भविष्य में एक महाशक्ति के पतन एवं पूर्व के राष्ट्रों विशेषतः भारत-जापान चीन के उत्कर्ष की भूमिका निभानी थी।

1943 का वर्ष बड़ा ही युगाँतरकारी कहा जा सकता है, जहां प्रथम प्रजातंत्र की स्थापना के साथ राष्ट्रवादी आजादी के वातावरण में साँस लेने लगे थे, वहाँ शेरपा तेनजिंग नोर्के एवं एडमंड हिलेरी द्वारा विश्व की सर्वोच्च चोटी हिमालय के गौरीशंकर (माउंट एवरेस्ट) पर आरोहण एक संकल्प-जिजीविषा का प्रतीक बन गया। आध्यात्मिक स्तर पर एक विशिष्ट पुरुषार्थ तब संपन्न हुआ, जब उसी वर्ष गायत्री जयंती के पावन दिन गायत्री तपोभूमि मथुरा की विधिवत स्थापना होकर गुरुसत्ता के चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों की पूर्णाहुति संपन्न हुई। प्रथम गुरुदीक्षा यहाँ चौबीस दिन के जल उपवास के बाद परमपूज्य गुरुदेव ने दी एवं गायत्री शक्ति एवं यज्ञविज्ञान के दो स्तंभों द्वारा संस्कृति को दिग्दिगंत तक फैलाने का संदेश भी गुँजायमान हुआ। महर्षि दुर्वासा तक फैलाने की तपःस्थली पर अखण्ड अग्नि एवं चौबीस सौ तीर्थों की जलरज के साथ स्थापित गायत्री तपोभूमि साक्षी बनी, 1958 के सहस्र कुँडी यज्ञ की। यह एक विलक्षण वाजपेय स्तर का आश्वमेधिक अनुष्ठान था, चेतना जगत् में प्रचंड विस्फोट कर सौरशक्ति के संदोहन द्वारा उस ऊर्जा का उत्पादन किया, जिसने विराट् गायत्री परिवार की आधारशिला रख दी। इन दिनों जब अमेरिका व रूस रूपी दो महाशक्तियों अंतरिक्ष में पाँव पसार रही थीं, हमारी गुरुसत्ता सविता देवता की सूक्ष्म हलचलों का अध्ययन कर उसके आधिदैविक एवं आध्यात्मिक स्वरूप के द्वारा अधिक से अधिक व्यक्तियों को उस प्रक्रिया में गतिशील बना रही थी, जिसे युगपरिवर्तन का मुख्य आधार बनना था।

इस महासंक्राँति के प्रारंभिक चरणों की मूल धुरी गायत्री महाविद्या रही हैं, जिसे प्रतिबंधों से मुक्त कर आचार्य श्री ने जन-जन के लिए सुलभ बना दिया। वर्णों जातियों-लिंगभेदों की विषमता से भरे समाज में धर्मदिग्गजों के विरोध के बावजूद गायत्री महामंत्र को हर व्यक्ति के लिए ब्राह्मणत्व अर्जित करने का साधन बना देना इस दशक ही नहीं, इस सहस्राब्दी की एक महत्वपूर्ण घटना एवं उपलब्धि हैं। गायत्री महाविज्ञान के रूप में एक विश्वकोश स्तर के ग्रंथ का निर्माण, संदर्भों-शास्त्रोक्त प्रमाणों सहित सभी को आश्वासन कि जो भी वे कर रहे हैं, उन्हें सन्मार्ग पर-प्रतिभा के उन्नयन के पथ पर ल जाएगा, हमारी अवतारी गुरुसत्ता का प्रचंडतम पुरुषार्थ कहा जा सकता है।

सन् 1960 आते-आते विश्वस्तर पर समस्याएँ बढ़ती जा रही थीं। भारत किसी तरह आजादी की स्थिति में कदम आगे बढ़ा ही रहा था कि दलाई जामा को राजनीतिक शरण (31-3-59) देने के साथ कटू हुए संबंधों के चलते पंचशील के वेश में 19 सितंबर 1962 को को चीन भारत की सीमा पर आक्रमण कर बैठा। भारी नुकसान व भूक्षेत्र की हानि झेलते भारतवर्ष ने इन्हीं दिनों शीतयुद्ध गहराते देखा। 20 अगस्त 1961 को बलिन की दीवार खड़ी हो गई, जिसे अंततः 1989 में गिरना था, किंतु इसके निर्माण के साथ तानाशाही मार्क्सवादी साम्यवाद-सांस्कृतिक क्राँति के तूफान में घिरा चीन, पूँजीवादी अमेरिका व पश्चिमी यूरोप को खुली चुनौती देने लगा था। इन्हीं दिनों सन् 59,60,61 की अवधि में परमपूज्य गुरुदेव हिमालय प्रचंड तप हेतु पड़े गए। आर्षग्रंथों के पुनरुद्धार से लेकर कठोर तपश्चर्या द्वार उन्होंने वातावरण परिष्कार की प्रक्रिया संपन्न की। चीन युद्ध के दौरान भारतवासियों से राष्ट्रधर्म के निर्वाह के साथ विशिष्ट साधनाएँ संपन्न करवाई। पंचकोशी साधनाएँ के प्रशिक्षण सत्र भी इसी बीच गायत्री तपोभूमि पर संपन्न होने लगे। युगनिर्माण योजना के सूत्रधार हमारे परमपूज्य गुरुदेव ने हिमालय की तप अवधि से बैठते ही युगपरिवर्तन की प्रक्रिया के प्राण युगनिर्माण सत्संकल्प की घोषणा की। नवयुग के संविधान के रूप में प्रसारित इस घोषणा पत्र के 18 सूत्रों में युगगीता के अठारह अध्यायों के मर्म छिपा पड़ा हैं। महासंक्राँति के महानायक ने महासमर की घोषणा कर वैश्विक स्तर पर पड़े रहे घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में भारतवर्ष की नई भूमिका दृश्यपटल पर रख दी थी।


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