सहस्राब्दी की शुरुआत आचार्य शकर के अद्वैत अर्थात् परम एकत्व के संदेश को लेकर हुई जरूर, पर यह एकत्व टिका न रह सका। ज्यों-ज्यों काल देवता के पाँव आगे बढ़े, विभिन्न मत एवं विभिन्न पंथ में उपजे-पनपे। यह सच हैं कि आठवीं सदी में जन्मे आचार्य शंकर के आध्यात्मिक पुरुषार्थ से वेदाँत दर्शन सर्वोच्च में प्रतिष्ठित हो गया था, परंतु सहस्राब्दी का प्रारंभ ही विदेशी आक्राँतियों के आक्रमण से हुआ और ये हमले थमे नहीं, लगातार होते ही चले गए। ऐसे में देश के जन-जीवन का विचलित होना स्वाभाविक था। और यह हुआ भी। शंकर का ब्रह्म तो एक परम निरपेक्ष सत्ता थी, जिससे की जाने वाली सारी प्रार्थनाओं का कोई अर्थ न था।
दुःखी-संतप्त लोकमानस को ऐसे ईश्वर की खोज थी, जो उसे साँत्वना दे सके, सुरक्षा दे सके। बौद्ध एवं जैनदर्शन ने तो ऐसे भगवान को मार ही दिया था। जैमिनी की मीमाँसा एवं कपिल के साँख्य की स्थिति भी बेहतर नहीं थी। न्याय-वैशेषिक की भगवान भी स्रष्टा से अधिक कुछ नहीं था। अतएव एक नए पंथ की खोज थी। इस क्रम में ग्यारहवीं सदी में रामानुज ने शंकर के ज्ञान सिद्धांत एवं ब्रह्म सिद्धान्त की जगह अपने विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना की। सगुण ब्रह्म की चर्चा चल पड़ी। बारहवीं सदी तेलगू आचार्य निंबार्क ने द्वैताद्वैत मत की स्थापना की। शंकर एवं रामानुज की तरह अंतिम सत्य यहाँ भी एक ब्रह्म ही था, किन्तु जीव एवं जगत् की सत्ता को भी स्वीकारा गया। तेरहवीं सदी में केरल के माधवाचार्य ने द्वैतमत का प्रतिपादन किया। चौदहवीं एवं पंद्रहवीं सदी में बल्लभाचार्य ने शुद्धद्वैत मत का प्रतिपादन कर अपनी एक कड़ी और जोड़ी इन दार्शनिक मतों के अलावा शैव एवं शक्तिमत भी थे। इसमें से शैवमत का आविर्भाव तो बहुत पहले हो गया था। आदिकाल से ही शिव उपासना का प्रचलन महादेव तथा पशुपति के पूजन-अर्चन के रूप में रहा हैं। परंतु दूसरी सहस्राब्दी का प्रारंभ होने तक तो शैवमत भी अनेक मताँतरों में बँट गया। यही हाल शाक्तमत का भी हुआ। ये भी किसी से पीछे न रहे। कालचक्र की तेज गति के अनुरूप इसकी भी शाखा-प्रशाखाएँ होती गई। हालांकि इन दोनों से कहीं अधिक प्रभावी वैष्णव भक्ति आँदोलन रहा जो दक्षिण से उमड़कर महाराष्ट्र से गुजरात और राजस्थान होता हुआ समस्त भारत में फैल गया था।
हिंदुत्व के दायरे के भीतर उपासना भेद एवं वैचारिक मतभेद के आधार पर पनपे इन अनेक मत एवं पंथों के अलावा बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का भी अस्तित्व था। जैन धर्म के “शायद यह-शायद यह नहीं” का प्रतिपादन करने वाले स्यादवाद एवं बौद्धिमत के शून्यवाद ने और कुछ भले ही न किया हो, पर प्रचलित मतों की संख्या बढ़ाने में अपना योगदान तो किया ही था। इसमें भी जैनधर्म श्वेताँबर एवं दिगंबर के रूप में अपने को विभाजित कर चुका था। बौद्धमत में महायान, हिनयान, सहजायान एवं वज्रयान आदि अनेक नामों से बँटवारा हो गया था।
प्रायः इन सभी मतों के अपने-अपने ताँत्रिक समुदाय थे, जो वामाचार को बढ़ावा देने में लगें थे। बौद्धों के वज्रयान से ही नाथपंथ का उदय हुआ, जिसने परिष्कृत चिंतन एवं चरित्रनिष्ठ जीवन को महत्व दिया, लेकिन बाद में इसमें भी मत-मताँतर होने लगे।
बाहर से अपने वालों में इस्लाम एक संगठित एवं प्रबल मत था। यह अपना प्रचार करने में उतारू और उतावला था। उसे राजनीतिक समर्थन भी प्राप्त था। इस इस्लाम के अंतर्गत दो धाराएँ प्रमुख थीं। एक धारा कट्टर मुल्ला-मौलवियों द्वारा अनुशासित मुसलमानी मजहब की थी और दूसरी उन्हीं के साथ आए हुए सूफियों की। इन सूफियों का समाज पर शुरुआती दौर में अच्छा प्रभाव पड़ा। ये सीधे-साधे थे व ईश्वरोन्मुखी प्रेमसाधना में लीन रहते थे। इनका पंथ अद्वैत चिंतन से प्रभावित था।
सबसे बड़ी विडंबना इस बात की हुई कि इन सभी मतों एवं पंथों में समय के साथ बाह्याडंबर बढ़ता गया। इस बाह्याडंबर के साथ ही इनमें पारस्परिक टकराव के स्वर भी मुखर होते गए। सामान्य जनता तो इन सभी को आदर देती थी, परंतु उसका बौद्धिक स्तर सामान्य होने कारण उसमें भ्रम एवं संदेहों में बढ़ोतरी हो गई। वह टोना-टोटका, शगुन-अपशकुन, भूत-प्रेत, झाड़-फूँक,तंत्र-मंत्र, और जादू-मंतर के चक्कर में कुछ इस कदर उलझ गई कि उसमें ने तो राष्ट्रीय भावना बची न ही साँस्कृतिक चेतना। धर्म के नाम पर वह प्राणोत्सर्ग अवश्य कर सकती थी, पर धर्म का मर्म समझने में असमर्थ थी।
इन विभिन्न मतों एवं विभिन्न पंथों में टकराव इतना बढ़ गया कि भेद एवं विद्वेष की चिनगारियाँ सर्वत्र फैलने लगी। अभेद एवं अद्वैत, प्रेम एवं करुणा की राह दिखाने वालों के अनुयायियों के पास केवल भेद एवं विद्वेष, घृणा एवं जुगुप्सा ही बची रह गई। गोरक्ष के नादयोगी जिन पर चरित्रवान् नागरिक बनाने की जिम्मेदारी थी, छोटे-मोटे चमत्कार प्रदर्शित करके जनता को प्रभावित करने लगे। बाहर से आने वालों के मजहब में हिंसा, स्वार्थ एवं कट्टरता का प्राधान्य था। जैन अहिंसा का महत्व देते थे, किन्तु हिंसा से बचने के लिए वे जो कुछ करते थे, वह स्वयं प्रदर्शन की वस्तु बन गया था।
बौद्ध सिद्धों में अनेक प्रकार के अनाचार प्रविष्ट हो गए थे। उनका सहजयान गुतय साधना का केन्द्र बन गया था और वहाँ मद्य-मैथुन की पूर्ण स्वतंत्रता थी। ब्रह्मवादी ब्राह्मण संध्या, तर्पण एवं षट्कर्म में लीन रहते थे। उनमें ब्रह्मचर्य का इतना बाहुल्य था कि वे जीवन जीने की कला से विमुख हो चुके थे। शैवों में अनेक संप्रदाय हो चुके थे और वे योगियों के अभ्युदय के पूर्व ही अपनी गतिमयता खो चुके थे। सूफी संत भी यहाँ आकर झाड़-फूँक करने लगे तरह-तरह के चमत्कारों एवं करामातों पर उनका विश्वास बढ़ गया। वैष्णवों में भी छाप-तिलक लगाकर जनता को मात्र वैशिष्ट्य से प्रभावित करने की वृत्ति बढ़ रही थी।
यह स्थिति केवल भारतवर्ष तक ही सीमित नहीं थी। पश्चिमी देश भी मत व मतवाद के चक्रव्यूह में फँसते-उलझते जा रहे थे। वहाँ ईसाईयत जहाँ एक ओर बढ़ी वहीं दूसरी ओर बँटी भी। यह दूसरी शताब्दी का प्रारंभिक दौर था, जब आधुनिक यूरोप की नींव रखी गई। यह समय कुछ ऐसा था कि कालचक्र भारत महादेश को अपनी धुरी बनाकर समूचे विश्व में एक संक्राँति को जन्म दे रहा था।
सहस्राब्दी की प्रथम से विभिन्न मतों एवं पंथों के बीच जो दरारें पनपीं, वे मिटी नहीं, उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई। इनका टकराव इनके समुदायों तक ही सीमित न रहा, समूचा जनमानस आँदोलन-आलोड़ित होता चला गया। सामान्यजन को जिनसे मार्गदर्शन-पथप्रदर्शन की आशा-अपेक्षा थी वे या तो लड़ने में जुड़े थे या फिर अपने उद्धत अहं को प्रदर्शन करने में। सहस्राब्दी की चौथी-पांचवीं सदी के आने तक विद्वेष की ये चिनगारियाँ ज्वालाओं में बदल गई। ये ज्वालाएँ सहस्राब्दी की प्रथम संक्राँति की ज्वालाएँ थी, जो अदृश्य के किसी पीयूष स्रोत को आमंत्रित कर रही थी।
राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों की भारतव्यापी शृंखला के बाद दीपयज्ञों के विराट् आन्दोलनों की घोषणा, क्राँतिधर्मी साहित्य के निर्माण के शुभारंभ के साथ ही बाहर वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण की विधिवत् शुरुआत तथा महाकाल के वासंती संदेश के साथ अपनी स्थूल काया को निर्धारित अवधि में महाप्रयाण द्वारा सूक्ष्म में विलीन करने की घोषणा भी इसी अखण्ड दीपक की साक्षी में हुई हैं। अखण्ड दीपक युगपरिवर्तन के इतिहास का, नई सहस्राब्दी के परिवर्तन वेला के आगमन का एवं नवयुग-सतयुग के शुभारंभ का साक्षी हैं। महापूर्णाहुति वर्ष की इस वेला में यह विशेषाँक इस अखण्ड दीपक के 75वें वर्ष में प्रवेश के साथ उस गुरुसत्ता के चरणों में समर्पित हैं, जो श्रद्धा एवं प्रज्ञा का समन्वित रूप हैं, जिसने युगपरिवर्तन की पृष्ठभूमि विनिर्मित कर श्रेय लूटने के लिए हम सभी को निमित्त बना दिया है। उस पावन प्रज्ञापुरुष को शत-शत नमन हैं।