आवश्यकता ही शेष नहीं (kahani)

February 2000

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एक बार एक शिष्य द्वारा अपने गुरुदेव से यह पूछे जाने पर कि मनुष्य को पुरुषार्थ क्यों करना पड़ता हैं? भगवान् अपने अनुदान देकर उन्हें पीड़ा -कष्ट से बचाता क्यों नहीं हैं? संत बोल वत्स! यह संसार विधि’-विधानों से चलता है। याचक, भिखारी तो कई हैं, पर यदि विधाता ने कुपात्रों को व्यर्थ वितरण आरंभ कर दिया तो कर्म की स्वावलंबन की आत्मसुधार की कोई आवश्यकता ही शेष नहीं रह जाएगी।


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