आगमन नए युग का समन्वय की दिशाधारा का

February 2000

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नया दर्शन ही नया युग बता है। कुरीतियों, मूढ़-मान्यताओं एवं अंधविश्वासों के अँधेरों से घिरे समाज की चेतना जब मंद लगती हैं, तो उसमें दार्शनिक चिंतन ही प्रखरता बता है। यद्यपि महात्मा कबीर की चेतना मूलतः आध्यात्मिक थी, परंतु वे समाज से विमुख न थे। अपने समय की सामाजिक चुनौतियों को स्वीकारने एवं इसके दायित्वों को निभाने को उनमें अपूर्व उत्साह था। हाँ यह वे अवश्य मानते थे कि प्रश्न चाहे निजी जीवन के हों या फिर सामाजिक जीवन के, उनका एकमात्र सही सार्थक एवं सटीक हल ‘अध्यात्म’ में ही निहित हैं। उनके दर्शन को आध्यात्मिक समाजवाद का नाम देना पूरी तरह समयोचित होगा। इस तरह आध्यात्मिक समाजवाद की दार्शनिक चिंतन प्रणाली के वे पहले द्रष्टा एवं संस्थापक थे इसी के आधार पर उन्होंने नवयुग के अभ्युदय की कल्पना की थी।

वह कहा करते थे कि यह सारा जगत् एक ही तत्व से उत्पन्न हैं इसलिए सभी प्रकार की भेद दृष्टि मिथ्या हैं। मानव-मानव में भेद तो परम अज्ञान का द्योतक हैं। अपनी इसी आध्यात्मिक दृष्टि से प्रेरित होकर उन्होंने जाति-पाँति, छुआछूत, ऊँच-नीच, और ब्राह्मण-शूद्र के भेद का जमकर विरोध किया। आज भी दुनिया के प्रायः सभी विख्यात समाजशास्त्री इस सत्य से एकमत हैं कि सभी तरह के भेदभाव को दूर कर ही एक सुँदर समाज का सृजन संभव हैं। हालांकि कोरा सामाजिक ज्ञान रखने वालों के लिए यह बता पाना निताँत असंभव हैं कि भेद मिटाने और एकता-समता लाने का वास्तविक आधार क्या होगा? महात्मा कबीर के लिए यह आधार मनका आध्यात्मिक ज्ञान था, जिसे वह सर्वजन सुलभ संभव मानते थे। वह अपनी धुन में गाते थे- “एक बूँद तैं सृष्टि रची हैं, को ब्राह्मण को सूदा।” यानि कि परमात्मा ने एक ही बूँद से सारी सृष्टि रची हैं ब्राह्मण और शूद्र का भेद क्यों?

उनका दार्शनिक चिंतन तो यही कहता था कि “एक नून तै सब जग कीआ, कौन भल कौन मंदे” अर्थात् एक ही नूर से सारा संसार रचा गया हैं, फिर भला कौन अच्छा है और कौन बुरा। छुआछूत का भेद भी उन्होंने इसी स्तर पर किया हैं। वह कहते हैं।

कहु पंडित सूचा कवन ठाऊ। जहां बैसि हउं भोजन खाऊ॥

माता जूठा पिता भी जूठा जूठे ही फल बगे। आवहिं जूठे जाँहि भी जूठे जूठे मरहिं अभागे॥

अगिनि भी जूठी पानी जूठा जूठे बैसि पकाया। जूठी करछी अन्न परोसा जूठै जूठा खाया॥

गोबरु जूठा चउका जूठा जूठै दीनी कारा। कहैं कबीर तेई जन सूचे जे हरि भजि तजेहि विकारा॥

अर्थात् पंडित तुम कहते हो कि पवित्र स्थान पर भोजन करना चाहिए। बताओ कौन-सा स्थान पवित्र हैं? विचार करने पर तो माता-पिता भी जूठे हैं और वृक्षों में लगने वाले सारे फल भी झूठे हैं। अग्नि और जल भी जूठे हैं। गोबर और चौका भी जूठा हैं और जूठी करछी से ही अन्न परोसा जाता है। वस्तुतः पवित्र और शुद्ध तो वे ही लोग हैं, जिन्होंने श्री हरि की भक्ति करके अपने मन के विकारों को दूर कर लिया हैं।

महात्मा कबीर के इस आध्यात्मिक समाजवादी चिंतन ने सामान्य जनता के साथ समकालीन संतों-विचारकों को भी प्रभावित किया। एक प्रसंग के अनुसार संवत् 1553 या 1554 में सिख पंथ के प्रवर्तक गुरुनानक देव जी की भेंट स्नान करते समय किसी नदी के किनारे उनसे हुई। इस भेंट ने नानकदेव जी को बहुत प्रभावित किया। वह कबीर का प्रभाव ही हैं कि गुरु ग्रंथ साहिब में कबीर की अनेकों रचनाएँ आज भी पढ़ी जा सकती हैं। इसके अलावा संत रैदास, दीपा, धन्ना, एवं सेन जैसे कबीर के समसामयिक संत उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते थे। कबीर के परवर्ती संतों में दादू, रज्जब, सुँदरदास, मलकदास, हरिदास, निंरजनी, उदादास, धर्मदास, दरियादास, गरीबदास, बूबसाहब, गुबल साहब आदि अनेक दासों ने कबीर को अपना आदर्श माना और उनके मत एवं पंथ का स्वीकार किया।

कई विख्यात इतिहासवेत्ताओं के अनुसार संत कबीर द्वारा प्रेरित-प्रवर्तित इस नए दर्शन की स्वीकारोक्ति दिनों-दिन बढ़ती गई। लोकमत ही नहीं राजमत भी इससे प्रभावित होने लगा। बाबर तो यहाँ आया ही था आक्राँता बनकर, उसने तो किसी भी प्रकार की सहिष्णुता की आशा ही नहीं थी। हुमायूं को अधिक दिनों तक शासन का मौका ही नहीं मिला। अकबर के विचार कबीर के दार्शनिक चिंतन से प्रभावित हुए बिना न रहे। यह महात्मा कबीर की चिंतनधारा ही थी, जिसमें निमग्न होकर शहंशाह अकबर धीरे-धीरे मुल्लाओं के प्रभाव से मुक्त हो गया। उसने हिंदुओं के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई। इतना ही नहीं, उसने युद्ध बंदियों को दास और मुसलमान बनाने की प्रथा पर 1562 ई. में रोक लगाई। हिंदुओं को तीर्थयात्रा कर से मुक्त कर दिया। वह हिंदुओं के प्रति इतना सहिष्णु हो गया था कि 1564 ई. में उसने जजिया समाप्त कर दिया। उसने अपनी भेदभावपूर्ण सभी नीतियों के समान ही हिंदुओं को भी दरजा दिया। उसने हिंदुओं की भावनाओं को ध्यान में रखकर स्वयं गौमाँस का प्रयोग और सार्वजनिक रूप से गौवध वर्जित कर दिया।

यह महात्मा कबीर के दार्शनिक चिंतन का ही चमत्कार था, जिसने अकबर के शासनकाल में नवयुग के अभ्युदय की कल्पना को साकार किया। कतिपय प्रख्यात इतिहासवेत्ता भी इस सच को स्वीकार करते हैं कि कबीर साहब के दार्शनिक चिंतन को स्वीकार करके ही अकबर ने परंपराओं की तुलना में विवेक को महत्व दिया। यही नहीं उसने धर्मान्ध व्यक्तियों के घृणाभाव को दूर करने के लिए और धार्मिक विद्वेष को समाप्त करने के लिए विभिन्न धर्मों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया और इसका नाम तवहीदेइबही (दैवी एकेश्वरवाद) रखा। यह विभिन्न धर्म के लोगों को सन्निकट बनाकर सामाजिक-धार्मिक भ्रातृ-संप्रदाय स्थापित करने का प्रयास था। इसकी रचना सुलहे कुल के सिद्धांत को आधार मानकर की गई थी। इसमें सभी धर्मों की अच्छी बातों को समावेश था।

सम्राट् अकबर के समय ही इतिहास लेखक मोहसन फानी के अनुसार इसी क्रम में बादशाह ने एक और प्रयास किया- ‘दीन-ऐ-इबही’ की स्थापना। यह सभी संप्रदायों में एकता और उनमें पारस्परिक समन्वय का प्रयास था। दीन-ऐ-इबही के प्रवर्तक के रूप में उसने सार्वजनिक सहिष्णुता की नीति अपनाकर राष्ट्रीय आदर्शवाद का उदाहरण प्रस्तुत किया। इतिहासकार मोहसन फानी ने अपने ग्रंथ ‘दबिस्तान ए मज़हब’ में दीन-ऐ-इबही के कुछ मुख्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया हैं-1. उदारता और उपकार 2. साँसारिक इच्छाओं से विरक्ति 3. अपराधी को क्षमा करना 4. प्रत्येक के लिए विनीत, कमोल और मधुर शब्दों का प्रयोग, 5. संपर्क में आने वाले सभी लोगों के साथ सद्व्यवहार करना 6. आत्मा को ईश्वरीय प्रेम में समर्पण करना। कबीर के दार्शनिक चिंतन को आत्मसात् करने वाले यह अच्छी तरह अनुभव कर सकते हैं कि दीनं-ऐ-इबही की उपर्युक्त सभी बातें इस निराले संत के कथन को दुहराने के सिवा कुछ नहीं हैं।

इन बातों को मानने, स्वीकार करने एवं प्रयास करने से समूचे देश में सहिष्णुता एवं सद्भाव का वातावरण तो बना ही, साथ ही कब-संस्कृति एवं ज्ञान-विज्ञान की थी खूब प्रगति हुई। संपन्नता एवं समृद्धि की दृष्टि से भी यह काल सर्वोपरि साबित हुआ। इतिहासकारों ने अकबर के काल को भारतीय इतिहास में साँस्कृतिक पुनरुत्थान का युग कहा। असंदिग्ध रूप से यह एक नए युग की शुरुआत थी। इसकी प्रभा जहांगीर एवं शाहजहां के शासनकाल में भी दिखाई देती रही। इतिहासकार अलदुल हमीद बहौरी एवं चंद्रभान ब्रह्मन ने शहंशाह शाहजहां के काल को मुगल का स्वर्णयुग भी कहा। इसी समय शाहजहां के ज्येष्ठ पुत्र दारा ने उपनिषद् भगवद्गीता एवं योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों का अनुवाद किया, परंतु औरंगजेब के आगमन के साथ ही अकबर के शासनकाल में प्रारंभ हुआ नवयुग अब अस्त होने लगा। अभ्युदय के उजाले को रात का अँधेरा ढँकने लगा। इतिहास के वे फल फिर से किसी की प्रतिक्षा में आतुर हो उठे।

हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा

जो दूसरों से कहना और कराना हैं, उसे कार्यान्वित करने के लिए शुभारंभ अपने साथ से ही करना चाहिए और जो निश्चय किया हैं, उस पर दृढ़तापूर्वक आरुढ़ रहना चाहिए। बेपैंदी के लोटे की तरह इधर से उधर लुढ़ककर अपने को उपहासास्पद नहीं बनाना चाहिए। संकल्पों को, निर्धारित निश्चयों को उस दिशा में तो पूरा किया ही जाना चाहिए, जब वे सुधार, संयम जैसे आदर्शवादी पक्ष के साथ जुड़े हों। रामायण की यह चौपाई हर प्रामाणिक व्यक्ति को ध्यान में रखे ही रहना चाहिए, जिसमें कहा गया हैं “प्राण जाहिं पर वचन न जाहिं” नित नई प्रतिज्ञाएँ करने वाले और जोश ठंडा होते ही गिरगिट की तरह कुछ-से कुछ बन जाने वाले लोग अपनी हँसी कराते और अविश्वास का वातावरण बनाते हैं

परिवर्तन के क्षणों में सतत् मुखरित कबीर के स्वर

वह नए मानव का विद्रोह था। स्वतंत्रता बुद्धि की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए मनुष्य ने पहली पुकार उठाई थी। विचारक्राँति के स्वर में परिवर्तन के क्षण मुस्कराए थे। वद दीन जनता का पहला स्पष्ट स्वर निनाद था। उसे लोगों ने दबाने की बहुतेरी कोशिशें कीं, पर वह दब सका। दबता तो भी कैसे?

वह तो मेहनत की कमाई पर पलने वाला आदमी था। जाति भी नहीं, कुल भी नहीं, धनहीन, परंतु अपराजित। उस दिन वह खाने बैठा था। पत्नि रोटी लेकर आई। सिर्फ दो रोटियाँ थी। उसमें से एक छोटे बेटे को दी। आधी खुद ली और आधी उसे दी। पति को रोटी का आधा टुकड़ा देते समय उसके चेहरे पर संताप गहरा गया। जैसे वह कह रही हो, ऐसे कब तक चलेगा, आधी रोटी और पूरा दिन.......?

रोटी को हाथों में लेते हुए वह हँसे, जैसे उन्होंने पत्नि के मन की बात समझ ली हो। बोल तुम दुःखी क्यों होती हों बेटी? सुनो

आधी अरु रूखी भली, सारी सों सन्ताप। जो चाहेगा चुपड़ी, बहुत करेगा पाप॥

बेटी भी उनकी इस बात पर मुस्करा दी। तीनों ने पानी के साथ रोटी खाई। रोटी खाकर अभी वह उठे ही थे कि बाहर से आवाज आई-कबीर! लगता है किसी ने पुकारा था। उन्होंने बाहर झाँककर देखा, चह तो मंझन थे, उन्हीं के अपने पड़ोसी। इन्हें देखकर वह कहने लगे अरे मंझने भाई, बीच दोपहर कहाँ पड़े पड़े?

गली के उस मोड़ पर जोगी तमाशा कर रहें हैं। सुनते हैं उनमें से एक तो आसन लगाकर उड़ जाता है। एक कहता हैं-यह सब जोग की शक्ति है, परंतु जोग करना है तो नारी से दूर रहो। नारी तो नरक की खान है। तुम भी चले कबीर! उनकी बातें सुनेंगे और मजेदार तमाशा देखेंगे।

कबीर फक्कड़ हंसी हँसे। अरे! तमाशे में तमाशा क्या देखना भाई, यह दुनिया भी तो एक तमाशा है। पर जब मंझन नहीं माने तो पड़े पड़े। कुछ दूर चलने के बाद देखा-सचमुच में कुछ जोगी पास खड़ी भीड़ को अपने चमत्कार दिखा रहे थे। थोड़ी देर तो वह भी मजे से देखते रहे, फिर बोल पड़े -

आसन उड़ए कौन बड़ाई। जैसे काग चील्ह मँडराई॥

जैसी मिस्त तैसी हैं नारी। राजपाट सब गिनै उजारी॥

जैसे नरक तस चंदन माना। बाउर तस रहै सयाना॥

के लिए बहिश्त का प्रयोग उन नारी विरोधियों के लिए उठा। उनके मार्ग को उन्होंने विनाशमार्ग कहा। उन्हें बुद्धिहीन तक कह दिया। कहा-कबीर साहब ठीक कहते हैं। इन में क्या धरा हैं। असली चीज तो भगवान् से प्रेम हैं मन की निर्मलता और जीवन की पवित्रता है। जनमानस बदले रहा था। काशी में परिवर्तन तरंगें उठ रही थी।

बुद्ध से आनंद ने कहा-जहां हम जा रहे हैं, वहाँ तो बहुत विरोधी हैं। हम कैसे उनका सामना करेंगे? बुद्ध ने कहा- भदंत! अधिक से अधिक वे गाली देंगे। बस चल, तो मारेंगे। पर यदि हम आत्मबल संपन्न हैं, अपने उद्देश्य पर दृढ़ हैं तो बिना हमारे आवेश में आए हमारे विरोधी शाँत हो जाएँगे। इन शब्दों ने शिष्यों का मनोबल बढ़ा दिया व वे दुगुने साहस से परिव्रज्या पर पड़े पड़े।

वहाँ की राहों पर कबीर की ललकारें रोज ही गूँजती आबाल-वृद्ध सुनते। उनमें विद्रोह-सा जाग उठता। कबीर के शब्द पुराने विश्वासों को झकझोर उठते। नए भावों के सिंह अंधकारमयी दिमागी गुफाओं में भूखे से गरजने लगते और बाहर आकर रूढ़ियों के शिकार करने को व्याकुल हो उठते। सारी काशी उनकी बात सुनकर झूमती थी। परंतु मुल्ला और पंडित नहीं सुनते। यह जुलाहा। नीच! धर्म और मज़हब के विरुद्ध बोलता है। पर कबीर तो अक्खड़ थे। भरी सड़क पर भीड़ के बीच गाने लगे-

मेटहूँ काहु ने वेद पढ़ाया, सुनति कराय तुरक नहिं आया।

नारी गोचित गर्भ प्रसूती, स्वाँग करै बहुतै करतूती।

तहिया हम तुम एकै बेहू, ऐकै प्राण बियायल मोहूँ।

पथ पर लोगों में हलचल मच गई। पंडित चिल्लाया-पापी है। मुल्ला चिल्लाया-काफिर भी नहीं, दोखला का रास्ता है। और जनता में विचारक्राँति का झंडा फहराने लगा। कबीर ने आदिनाथ किया था।

उन्होंने गर्जन किया कि इस देश में कोई हिन्दू और मुसलमान नहीं। उन्होंने पुराने अहंकार और नए अहंकार दोनों पर समान रूप से चोट की। उन्होंने कहा मनुष्य-मनुष्य हैं। उन्होंने नारा दिया-मानव एक समान है। उनके इन स्वरों के समर्थन में प्रचंड जन-रच आ मिला।

भीड़ को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा-यह देश अपना हैं। हम विदेशियों के रंग में रंगेंगे नहीं, क्योंकि वे भटके हुए हैं, यह देश कुलीन उच्चवर्णों की संस्कृति का भी नहीं हैं, जिसे ही सब कुछ मान लिया जाए, जिनके अन्याय और पाप को धर्म संस्कृति के नाम पर बचाया जाए। हमें तो एक नए मनुष्य के लिए नई जमीन तैयार करनी हैं। जिसमें विदेशियों की विलासिता और प्रदर्शन न हो। जहां उच्चवर्णों का दंभ न हो। जहां ऊँच-नीच की जगह सिर्फ इनसान हो।

कबीर ने जो कहा, वह सत्य था जनता का। मनुष्य का। अपराजित मनुष्य का।

जो पिस रहा था, पर कबीर की फौलादी आवाज ने समाज की रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, मूढ़मान्यताओं, जातिधर्म की दीवारों और अत्याचारियों की तलवारों को दिग्भ्राँत कर दिया।

कबीर की पुकार जनता की रोटी के साथ बढ़ने लगी। और फिर गजब हुआ। वे निम्न कहीं जाने वाली जातियाँ जो इस्लाम के अधिकार की चकमक में मुसलमान हो गई उन्होंने भी फिर से अपनी पुरातन गरिमा को पहचाना। उन्होंने स्वीकार किया कि वे भटक गई थीं और फिर वे कबीर के विचारों की छाप में आने लगीं। वहीं क्यों नए-पुराने हिंदू-मुसलमान, अमीर-गरीब जो भी इंसान थे, जिन्हें सच्चाई की तलाश थी, वे सब उनके सान्निध्य में आने लगें। जन-जन में नई चेतना फैलने लगी।

काशी उस समय भारत का हृदय भी थी। वहाँ सब धर्म अपने-अपने मठ किए बैठे थे। केवल कबीर के पास कुछ नहीं था, केवल शब्द था। वह इसी शब्द को ब्रह्म कहा करते थे-शब्दब्रह्म की ही तरह उनके शब्दों का विस्तार अनंत था। इसमें समाई उनकी चेतना भी ब्रह्म की ही भाँति अनंत थी, अमिट और अजर-अमर थी। इसे न मरना था, न मरी। न मिटना था, न मिटी। यह तो चिरयुवा और शाश्वत थी। वह कहा करते-

राम मरै तो मैं मरुं, नाही मरैं बबय। मैं तो राम का बालका, जो मरै न मारा जाय॥ उनके शब्दों के दीप से उनकों दीप जल।

मंझन को भी उनकी संगत ने साधु बना दिया। तमाशायी वृत्ति से अब उसमें जिज्ञासावृत्ति जाग-उठी। एक दिन उसने कबीर से पूछा-आप जिस परिवर्तन की बात कहते हैं, जिस एकता-समता के नए युग की अलख जगाते हैं, वह कब आएगा।

एक बार एक भक्त ने नानक से पूछा-आप कहते हैं कि सब पैसे वाले एक से नहीं होते। इसका क्या तात्पर्य हैं? नानक बोल-उत्तम लोग वे हैं जो उपार्जन को सत्प्रयोजनों के निमित्त खरच कर देते हैं, जमा करते हैं, पर सदुपयोग करना भी जानते हैं। तीसरी श्रेणी उनकी हैं, जो कमाते नहीं-कहीं से पा जाते हैं और उड़ा जाते हैं। ऐसे वेग संसार में पतन का कारण बनते हैं।

मंझन के इस सवाल ने कबीर को गंभीर कर दिया। जिस कबीर को लोग अक्खड़ और फक्कड़ कहते थे, उनकी आँखों में युगद्रष्टा की चमक आ गई। मुखमंडल पर ब्रह्मर्षि का सा तेज झलक उठा। वह कहने लगे-विचारों से ही क्राँति होती हैं। नया दर्शन ही नया युग बता है। परिवर्तन तो होकर रहेगा।

परंतु कब तक? कब तक देश के आँगन में आहें और सिसकियाँ गूँजती रहेंगी? कब तक नारी को अपमानित होना पड़ेगा?

मेरे न रहने के पाँच सौ सालों का समापन आते-आते सब कुछ बदले जाएगा। देश बदलेगा, जमाना बदलेगा, नया युग आएगा, परंतु चिंता न करो, मंझन बीच में भी अच्छा समय आएगा।

सन् 1518 में कबीर ने अपना शरीर त्याग दिया। परंतु परिवर्तन के इन क्षणों में उनके स्वर अभी भी वैसे ही हैं-तेजोदीप्त, प्रखर, अनिंद्य, अपराजित....।


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