उपदेशक इन दिनों प्रायः सर्वथा असफल इसीकारण हो रहे हैं कि उपदेशक जो दूसरों से कराना चाहते हैं, उसे निजी जीवन में समाविष्ट करके यह सिद्ध नहीं कर पाते कि जो कहा गया हैं, वह व्यावहारिक भी हैं। उपदेश यदि उचित, व्यावहारिक और लाभप्रद रहा होता, तो उपदेशों के अनुरूप प्रवक्ता ने सर्वप्रथम उस विधा को अपनाकर लाभान्वित किया होता। इस संदेह-असमंजस का निराकरण न कर पाने पर ही उपदेशकों के द्वारा बार-बार दिए जाने वाले भाषण भी विडंबना बनकर रह जाते हैं, श्रवणकर्ताओं के गल नहीं उतरते। ऐसे भाषण परामर्शों से भावुकों को अवाँछनीयता की दिशा में भड़कना, उत्तेजित करना तो संभव हैं, पर वह संभावना बनेगी ही नहीं कि उत्कृष्टता अपनाकर संयम बरतने और परामर्श-व्यवहार में लाने के लिए किसी को अग्रणी किया जा सके। यही कारण हैं कि इन दिनों तथाकथित नेताओं को अभिनेताओं की संज्ञा देकर लोग कौतुक जैसा मजा लेते हैं और इस कान सुनकर उस कान निकाल देते हैं, पल्ला झाड़ कर पड़े देते हैं।