सन् 2000 का आगमन हो चुका हैं। इसी के साथ हममें से हर एक मन सवाल भी अंकुरित हो रहा है कि कैसा रहा अब तक का इस सहस्राब्दी का सफर? 20001 का आरंभ हो इसके पूर्व सोचें कि इन पिछले एक हजार सालों में हम कहाँ से चलाकर कहाँ जा पहुँचे हैं? निस्संदेह दस शताब्दियों की यात्रा कई दृष्टियों से रोमाँचक रहीं हैं। इस दौरान यूरोपीय देशों की तरह हमारा विकास क्षैतिज नहीं हुआ। हमें दो-दो सभ्यताओं-संस्कृतियों की चुनौती का सामना करना पड़ा। विडंबना यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत से पहले तक हमारे राजनीतिक तंत्र की भूमिका इसका सामना करने में गौरवपूर्ण नहीं रही। हालाँकि इन राजनीतिक विषमताओं के दौरान भी हमारा साँस्कृतिक तंत्र पर्याप्त व्यापक एवं सुदृढ़ रहा हैं। तभी अपने ऊपर होने वाले प्रत्येक आपात एवं सुदृढ़ रहा हैं। यह उत्तरोत्तर निखरता चला गया और इन आघात करने व्यापकता में से भी, बिना किसी भेदभाव के सबको अपनी व्यापकता में सम्मोहित करने की चेष्टा की।
सन् 1000 में महमूद गजनी के आक्रमण से इस सहस्राब्दी की शुरुआत हुई थी। उस समय बँटे-निखरे राजतंत्र के बावजूद वह साँस्कृतिक एकता अवश्य थी, जिसे आचार्य शंकर ने इस सहस्राब्दी में मात्र एक सदी पहले स्थापित किया था। आचार्य शंकर द्वारा छोड़ी गई विरासत के बलबूते यहाँ का सामाजिक बिखराव एवं विद्वेष के चलते यहाँ गोरी एवं गुलाम, खिलजी, तैमूर और लोदी आते गए और 16 मई 1527 को बाबर ने इस देश के इतिहास को एक नया मोड़ दिया। इस बीच भारतवर्ष के साँस्कृतिक क्षितिज पर रामानुज, गौरख-व्यक्तित्व उभरे, जो लोकजीवन को
अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा एवं साँस्कृतिक संवेदना से नवप्राण देते रहे।
बाबर ने यहाँ आकर जिस शासनतंत्र की स्थापना की, उसका खात्मा अँगरेजों ने किया। एक विदेशी शासन का अंत दूसरे विदेशी शासन द्वारा होना भारत के इतिहास की सबसे बड़ी दुःखद घटना हैं। मुगल गए, अंग्रेज आए। मुगलों की तुलना में अंग्रेजी शासन ज्यादा पूर्व, ज्यादा शक्तिशाली और ज्यादा महत्त्वाकांक्षी थे हालाँकि उनकी यह महत्वाकांक्षा ही भारत की राजनीतिक एकता का आधार बनी। आधार बनी। लेकिन मुगल शासन अंग्रेजी शासन में एक खास फर्क था। मुगल शासन में प्रजा से लिया गया धन देश में ही खरच होता था, पर अंग्रेजी शासन में भारत का धन इंग्लैंड जाने लगा। इससे जहाँ मुगल शासन में भारत की आर्थिक स्थिति निरंतर बेहतर होती गई, वहीं अंग्रेजी शासन में भारत निरंतर दरिद्र होता गया। मुगलों के काल में देश के साँस्कृतिक क्षितिज पर समर्थ गुरु रामदास, तुकाराम जैसे देवपुरुष अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा बिखेरते रहे। अँगरेजों के समय यह कार्य श्री रामकृष्ण परमहंस ने संपन्न किया, जिनके महान् शिष्य विवेकानंद की विचारधारा ने देश को आलोड़ित-आँदोलित किया और राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष ने तीव्रता पाई।
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के महानायक महात्मा गाँधी ने जिस अभूतपूर्व जन-आंदोलन को जन्म दिया, उसकी महाशक्ति के सम्मुख अँगरेजों को झुकना पड़ा। सहस्राब्दी के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि संघर्ष के स्वर किसी शासक और शासक के बीच नहीं, शासक एवं जनता के बीच मुखर हुए। विजय देश की जनता की हुई। 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। हालाँकि अँगरेजों की फूट डालो नीति यहाँ भी अपना काम कर गई और देश को राजनीतिक तौर पर ही नहीं, सामाजिक तौर पर भी बँटना पड़ा। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बँटवारे में ही विभाजन की इतिश्री नहीं हुई। जातीय, क्षेत्रीय, साँप्रदायिक दीवारें भी उठ खड़ी हुई। इन्हीं विषमताओं के बीच हमारे गुरुदेव-आराध्य संस्कृति पुरुष आचार्य श्रीराम शर्मा जी के महान् व्यक्तित्व का उदय हुआ। उनका व्यक्तित्व नवयुग के अभ्युदय की घोषणा थी। उनके स्वरों में इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य मुखर हुआ। उन्होंने आधी सदी से भी अधिक समय किए अपने प्रयासों एवं अपनी अभूतपूर्व तप−साधना से प्राप्त दिव्य क्षमताओं के बल पर इस सत्य का उद्घाटन किया कि अगली सहस्राब्दी की प्रथम सदी में ही भारत अपने खोए गौरव को पुनः प्राप्त करके ही रहेगा। सहस्राब्दी के इस सफर के बारे में यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि आचार्य शंकर द्वारा सौंपी गई विरासत को लेकर देश ने सन् 1000 में अपनी जिस संघर्ष यात्रा की शुरुआत की, उसकी परिसमाप्ति एवं सतयुग की वापसी की प्रक्रिया आचार्य श्रीराम शर्मा की तप-साधना से प्रारंभ हुई सृजनात्मक में संपन्न होगी।