एक शिष्य ने आत्मज्ञान का शिक्षण लिया व अपने गुरु से बोला-एकाँत में बैठकर आत्मचिंतन करने में जो आनंद हैं, वह और कही नहीं। हे गुरुवर! उच्चस्तरीय साधना हेतु मैं पहाड़ों जैसी शाँति चाहता हूँ। गुरु ने कहा वत्स! पहाड़ों का परमार्थ अनिश्चित हैं। तू सुदूर क्षेत्रों में जा-जहां अज्ञान का तिमिर व्याप्त है। व्यक्ति दीनहीन स्थिति में अपना जीवनयापन कर रहें हैं। तू नगरों में जा-जहां अज्ञान मानव-मानव के बीच भेदभाव, छल, कपट और विषमता के बीज बो रहा हैं।
शिष्य बोला देव! वहां की संघर्ष यातनाएँ मुझसे झेली न जाएँगी, वहाँ का कोलाहल-क्रंदन मुझसे देखा न जायेगा। मुझे तो हिमालय से दूर ना जानें दें।
गुरुदेव की आंखें छलछला उठीं। तात्! जिस राष्ट्र के नागरिक-नन्हीं-नन्हीं संतानें भटक रहीं हों वहाँ के प्रबुद्ध व्यक्ति अपने आत्मकल्याण भर की, स्वार्थ की बात सोचें, यह अनैतिक हैं। ईश्वर को पाना है तो प्रकाश की साधना करो। जो अंधकार में भटक गए हैं, उन्हें ज्ञान का प्रकाश दो। चारों और अर्जित संपदा बिखेर दो। शिष्य चला पड़ा अपना मोह तोड़कर और मानवता के देवदूत के रूप में अग्रगामियों की टोली में सम्मिलित हो गया।