उन्नीसवीं सदी भारत में एक नई संक्रांति लेकर आई। यह वह युग था, जब देश में इंग्लैंड की सत्ता राजनीतिक प्रभुत्व पूरी तरह से स्थापित कर चुकी थी। पराजित जाति सुलभ कई दोष भारतीय संस्कृति के प्रयास और गाँभर्य ने क्रमशः सिकुड़-सिमटकर तथा विनष्टप्राय होकर एक विकट परिस्थिति उत्पन्न कर दी थी। एक के बाद एक अत्यंत शक्तिशाली विदेशी भावों के घात-प्रतिघात से उन दिनों भारतवासियों का जीवन भयभीत हो गया था। ऐसी परिस्थिति में आत्मरक्षा के लिए वे अनेक अस्वाभाविक एवं अवाँछनीय उपायों का सहारा लेने के लिए बाध्य हो गए थे। साथ ही साथ बहरी देशों द्वारा भी भारत के ऊपर बहुत कुछ आरोपित हो गया था। इस क्रिया-प्रक्रिया में अनेकों कुप्रथाएँ देश में जन्म ले चुकी थीं अथवा लेने लगी थीं। धर्मांधता ने आध्यात्मिकता का आसन ग्रहण कर लिया। पुरोहितों को सामाजिक संरक्षण के लिए जातिभेद प्रथा के अलावा कुछ और नहीं सूझा। इसी तरह नारियों की परदाप्रथा भी अनिवार्य घोषित हो गई।
भारी विपत्ति के क्षण बन गए थे। धर्म के नाम पर एक अंतर्घाती अनाचार भारतीय समाज में आसीन हो और भोग व्यवस्था में मन लगाने से भारत में दरिद्रता बढ़ गई। रोग, अकालमृत्यु, दुर्भिक्ष आदि बढ़ने लगे और धर्म, शिक्षा, समाजव्यवस्था, उद्योग, वाणिज्य, संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों में उन दिनों भारत पतित और पथभ्राँत हो गया। कुछ ऐसा लगता था मानो भारतीयों की भारतीयता शीघ्र ही पूरी तरह मिट जाएगी। पश्चिमी शासन ही नहीं पश्चिमी विचारधाराएँ भी भारत-भारतीयों एवं भारतीयता के ऊपर अपना वर्चस्व स्थापित करने, उन्हें पूरी तरह आक्राँत करने में जुटी थीं। पश्चिमी विज्ञान का भारतवासियों के आध्यात्मिक ज्ञान एवं नीतियों का उपहास उड़ाने के लिए उतारू था। अंग्रेज चाहते भी यही थे कि साँस्कृतिक दृष्टि से पूर्वी देशवासियों के द्वारा पश्चिमी संस्कृति के सामने अपनी हीनता स्वीकार कराकर केवल ब्रह्म जगत् में ही नहीं, बल्कि मनोजगत में भी सदा लिए अधिकार जमा ले। अंग्रेज के साँस्कृतिक अभियान का उद्देश्य यही था कि भारतवासी अपने-अपने घर में भाषा और आकार अलग अस्तित्व बचाए रखकर भी अखिल भारतीय स्तर पर तथा अँगरेजों के साथ सामाजिक व्यवहार के समय हर प्रकार से पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण करें और उनके पिछलग्गु बन जाएँ। हो भी कुछ ऐसा ही रहा था।
उन्नीसवीं सदी में यूरोप में भी बहुत कुछ घटित हो रहा था। फ्राँस की राजक्राँति से नैपोलियन युग का आगमन हुआ था। साहित्य के क्षेत्र में बायरन, शैली, कीट्स अपना प्रभाव जमाए हुए थे। 1815 के बाद आधुनिक राजनीति के स्वर उभरे। 1848 ई. के आस-पास यूरोप में कई असफल क्राँतियों ने जन्म लिया, जो अंततः मानवीय इतिहास के लिए एक युगाँतरकारी घटना बनी। न्यूटन के सिद्धान्तों ने इसी काल में मशीनीयुग को जन्म दिया। 1859 ई. में चार्ल्स डार्विन की पुस्तक ‘द ओरिजन ऑफ स्पीसिज’ प्रकाशित हुई। इसके विकासवाद के क्राँतिकारी सिद्धाँत ने एकबारगी समूची दुनिया में वैचारिक
उथल-पुथल मचा दी। यद्यपि आधुनिक विज्ञान के कतिपय सिद्धांतों ने उन्नीसवीं सदी के काफी पहले ही जन्म ले लिया था, परंतु उनको अपनाने-व्यवहार में लाने की प्रक्रिया इसी युग में शुरू हुई। फ्राँस में जन्मे रूसो एवं वाल्टेयर के सिद्धाँत इन वैज्ञानिक सिद्धान्तों से मिलकर एक व्यापक हलचल को जन्म दे रहे थे। चारों ओर एक मस्तिष्कीय भूकंप आया हुआ था।
भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। वैज्ञानिक बातों के अलावा हाँलस, मिल, स्पेंसर आदि के विचार भी यहाँ प्रचलित हो रहे थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि अधकचरी बौद्धिकता की वजह से भरत देश का वायुमंडल कई प्रकार की विरोधी आलोचनाओं, भौतिकवाद और नास्तिकता के द्वारा विषाक्त हो गया था। एक ओर ईसाई मिशनरियाँ हिंदू धर्म की निंदा बार-बार उत्साह में भरकर कर रही।
थीं तथा छल-बल कौशल से हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करने में दृढ़प्रतिज्ञ होकर लगी हुई थी। दूसरी ओर धर्म विमुख श्रद्धा-भक्ति, गुरुपरंपरा, इतिहास-पुराण, रीति-नीति आदि सबको लुप्त कर देने को जैसे निश्चय कर चुका था। पश्चिमी की दार्शनिक विचारधाराएँ भी कुछ ऐसा ही करने पर उतारू थीं इस पश्चिमी धर्म-दर्शन एवं विज्ञान के तिहरे आक्रमण के समक्ष टिके रहना आसान नहीं था। तथापि भारत एक प्राचीन देश हैं। यह पृथ्वी पर परमेश्वर के अवतरण की भूमि हैं। समूची धरती में संव्याप्त आध्यात्मिक चेतना का ध्रुवकेन्द्र हिमालय यहीं हैं। इसने अपने हृदय में हजारों वर्षों से अतीत गौरव को संजोए रखा हैं तथा पूर्वकालीन ब्रह्मर्षियों-महर्षियों के द्वारा दिखाए गए पथ पर चलकर युगोपयोगी नई साधन पद्धतियों का आविष्कार किया है। यह देश किसी भी तरह नष्ट नहीं हो सकता। भारत के भाग्यविधाता-परमेश्वर ऐसा होने नहीं देंगे।
इस वजह से संक्राँति की इस वेला में एक नए युगप्रवाह ने जन्म लिया। ‘संभवामि युगे-युगे’ के स्वर पुनः मूर्त हुए। यह उसी प्रखर चेतना का जन्म था, जो पहले कबीर के रूप में आकर युगसमस्याओं के समाधान प्रस्तुत कर चुकी थी। जिसने सहस्राब्दी की द्वितीय संक्राँति के अवसर पर समर्थ गुरु रामदास के रूप में आकर राष्ट्रीय पौरुष को ललकारा था। अपनी सामर्थ्य से समूचे देश को समर्थ बनाया था। अबकी बार फिर से वही दिव्य सत्ता बंगाल के एक छोटे से गाँव में सन् 1836 ई. में अवतरित हुई। उसकी अवतारलीला की पृष्ठभूमि पहले से बनाई जा रही थी।
इसी प्रयास के रूप में राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में ‘आत्मीय समाज’ की स्थापना की। यही बाद में 1828 ई. में ‘युनिटेरियन एसोसिएयन’ बनी तथा और भी बाद में इसको ही महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ने ब्रह्मसमाज नाम दिया। परवर्तीकाल में केशवचंद्र सेन एवं विजयकृष्ण गोस्वामी के नेतृत्व में इसकी दो धाराएँ साधारण ब्रह्मसमाज एवं नवविधान समाज का रूप लेकर प्रवाहित हुई। इसके अलावा और भी अन्य धार्मिक-सामाजिक आँदोलन सक्रिय हुए। उनमें नेटिव एज्यूकेशन सोसाइटी, गुप्त समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी, नामधारी आँदोलन, सैयद अहमद खाँ का मुस्लिम जागरण, सत्यव्रत समाश्रमी का वैदिक सभ्यता का पुनर्जागरण, सर्वमंगल सभा, आर्यधर्म प्रचारिणी सभा, सनातन पंथियों का आँदोलन काफी अग्रणी रहे। सभी के सम्मिलित प्रयासों से भारत की जनचेतना में एक अनूठी जागरण की लहर छाने लगी। संक्राँति का युग जागरण का युग बनने लगा। यह जागरण भारत के अस्तित्व एवं अस्मिता का जागरण था।
हालांकि ये सभी स्वर जागरण के थे, परंतु इनमें पारस्परिक मेल–मिलाप न था, स्वाभाविक लय न थी। प्रायः इन सभी में आध्यात्मिक भावधारा अंतर्निहित थी, परंतु समन्वय न था। उलटे कभी-कभी तो विरोध मुखर हो उठता था। इस प्रयास में एक बहुत बड़ी कमी यह भी थी कि उनमें प्रायः बहुसंख्यक जनों के स्वरों में उतनी बातें उनके अनुभूति का ओज और तेज न था। उनकी बातें उनके अपने शास्त्रवचनों, धर्मग्रन्थों के पन्नों में लिखे वाक्यों पर आधारित थीं। स्वाभाविक हैं, ऐसे में उस महान् व्यक्तित्व की खोज होती, जो इन सबको एक साथ अपनी अनुभूति का बल दे सके। इन सभी आँदोलनों में अपने तप से प्राण उड़ेल सके। जो यह बताए कि धर्म केवल कहने अथवा प्रचारित करने की बात नहीं, बल्कि अनुभूति की वस्तु हैं और यह अनुभूति ही सामाजिक, आर्थिक एवं साँस्कृतिक आदि सभी मानवीय व्यवस्थाओं में नई चेतना उड़ेलती हैं, उनमें नए प्राण का संचार करती हैं। सन् 1836 ई. में बंगाल के कमारपुकुर गाँव में गदाधर के नाम से अवतार लने वाली वह दिव्यसत्ता ठाकुर श्री रामकृष्ण के नाम से दक्षिणेश्वर में यही अनुभूति सँजो रही थी। अपनी कठोर तप−साधना से वह सभी साधनापद्धतियों में समन्वय की स्थापना करने जुटी थी, ताकि इस संक्राँतिकाल में एक नया अभ्युदय जन्म ले सके। नया युग मुस्करा सके।