महाकाल का संकल्प प्रतिभाएँ पूरा करेंगी

February 2000

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जनवरी 1990 में सभी परिजनों को जानकारी मिली कि इस वर्ष वसंत का विशेष संदेश हैं उन सब के लिए। संभवतः इसके बाद परमपूज्य गुरुदेव के स्थूल चक्षुओं से दर्शन न हों। वे छह माह के भीतर अपनी स्थूलकाया की लीला समेटकर सूक्ष्म व कारण में विलीन होने जा रहे हैं। 28 जनवरी 1990 की वासंती वेला में जो परिपत्र पूज्यवर ने लिखा, उसमें जो भी कुछ था उसका सार−संक्षेप इस प्रकार हैं-”यह युगसंधि के बीजारोपण का वर्ष हैं। अभी उनका जो छोटा रूप दिख रहा है, वह अगले दिनों विशालकाय बोधिवृक्ष का रूप लगा। अब से लेकर सन् 2000 तक के दस वर्ष जोतने, बोल उगाने, खाद-पानी डालने और रखवाली करने के हैं। इस वसंत से इक्कीसवीं सदी के आगमन की उलटी गिनती ‘काउंट डाउन’ प्रक्रिया से आरंभ हो चुकी हैं।”

“ऋषिकल्प इस सत्ता के जीवन रूपी दुर्लभ ब्रह्मकमल के अस्सी पुष्प पूरी तरह खिल चुके। सूत्र−संचालक सत्ता के इस जीवन का प्रथम अध्याय पूरा हुआ। यह दृश्यमान स्वरूप था, जिसमें ‘जो बोया सो कोटा’ की नीति अपनाई गई। अब जीवन का दूसरा अध्याय आरंभ होता है। सूक्ष्म व कारण इन दो शरीरों का प्रयोग अब एक शताब्दी तक किया जाना हैं। यहाँ से लेकर सन् 2001 के वसंतपर्व तक की अवधि में, विगत दो हजार वर्षों से जमी हुई गंदगी बुहारकर साफ कर दी जाएगी एवं उज्ज्वल भविष्य की नवयुग की आधारशिला रखी जाएगी।”

उपर्युक्त शब्दों में उस संकल्प की अभिव्यक्ति देखी जा सकती हैं, जिसे गीताकार ने ‘संभवामि युगे-युगे’ के भगवत्सत्ता के आश्वासन के रूप में जन-जन के समक्ष रखी हैं। चारों छाए निराशा के वातावरण में एक तपस्वी-युगद्रष्टा यदि यह कहता है कि महाकाल संकल्पित हैं-नवयुग लाने को। परिवर्तन का चक्र पड़े रहा हैं, सभी बदले जाएँगे। तो निश्चित ही इस कथन के पीछे नियंता की स्थापना का उद्घोष है।

वे पूरी दृढ़ता के साथ जून 1967 की अखण्ड ज्योति में लिखते हैं-”त्रिपुरारी महाकाल ने अतीत में भी त्रिविध गाया मरीचिका को शिक्षण का सहारा व निर्माण के त्रिशूल से तोड़-फोड़कर विदीर्ण किया था। अब वे फिर इसी की महापूर्णाहुति करने वाले हैं। धर्म जीतने वाला है, अधर्म हारने वाला है। लोभ, व्यामोह और अहंकार के कालपाशों से मान्यता को मुक्ति मिलेगी। संहार की आग में तपा हुआ मनुष्य अगले दिनों पश्चाताप, संयम और शालीनता का पाठ पढ़कर सज्जनोचित प्रवृत्तियों अपनाने वाला हैं।”

‘महाकाल ही क्यों?’ तो परमहंस गुरुदेव लिखते हैं- “सतयुग को लाने वाले इस कलयुग में देवता देवाधिदेव तंत्राधिपति महादेव ही हैं। वे परम करुणा वाले और मंगलमय हैं। इसी से उन्हें शिवशंकर भी कहते हैं। महाकाल अभी जो युगपरिवर्तन की प्रक्रिया को गतिशील कर रहे हैं- पिछले हजारों वर्षों की कलंक कालिमा को धोकर मानवता का मुख उज्ज्वल करना। इसी को दसवाँ निष्कलंक अवतार कहा गया है, जो एक युगपरिवर्तन के विश्वव्यापी उद्वेलित भावनाप्रवाह के रूप में अवतरित हो चुका हैं।”

काल समय को कहते हैं एवं जो काल से भी परे है, काल की चाल को बदलने की सामर्थ्य रखता है, वह महाकाल हैं। ध्वंस के देवता महाकाल और सृजन की देवी महाकाली की भूमिका को इस तरह बड़ी अच्छी तरह समझा जा सकता है जब हम आज की परिस्थितियों को सामने रखते हैं। विनाश के उपराँत होने के वाले पुनर्निर्माण में मातृशक्ति का ही प्रमुख हाथ रहता है। इसीलिए महाकाल व महाकाली का युग्म बताया गया है मातृसत्ता की-नारीशक्ति के जागरण की संवेदना के उभार की सदी कहते हैं।

नारीशक्ति के उभरकर आने के साथ-साथ एक वर्ग से महाकाल की अंशधर प्रज्ञापुरुष की बड़ी अपेक्षा हैं वह प्रतिभाशालियों का वर्ग। आज दक्षता-बुद्धिकौशल सृजन में न लगकर विनाश में लग रहा हैं। सत्प्रवृत्तियां मूर्च्छित पड़ी हैं। ‘दक्ष’ की उद्धतता के कारण भी भगवान् महाकाल को-उनके वीरभद्रों को सती अर्थात् अर्थात् सत्प्रवृत्तियों से किए गए दुर्व्यवहार पर दंड देने के लिए विवश होना पड़ा था। तप और त्याग जिनके पास नहीं हैं, अहं ही अहं बुद्धि के कला-कौशल के रूप में समाज में संव्याप्त दिखाई देता है, वैसे ही व्यक्ति भटके हुए तथाकथित प्रतिभाशाली आज समाज में बैठे हैं। जिन्हें मार्गदर्शन करना था, उच्चस्तरीय जीवन जीना था, वे ही भटक जाएँ, तो कोई क्या करे। तभी भगवान् महाकाल ने अपना संबंधी होते हुए भी तंत्र के विशेषज्ञ-वैज्ञानिक ‘दक्ष’ का सिर काटकर लाकर का सिर लगाकर यह जताया था कि अहंकारी चतुरों की यह नियति होती हैं। आज भी प्रतिभावान् पर उसकी कड़ी निगाह हैं-ऐसा परमपूज्य गुरुदेव का मत हैं।

प्रकाशस्तंभों के बूझ जाने पर अंधकार फैलना स्वाभाविक है। जैसे-जैसे उच्च आत्मबलसंपन्न हस्तियाँ घटती चली गई, वैसे-वैसे जनमानस की उत्कृष्टता गिरती चली गई। उच्च आत्मबलसंपन्न आत्माओं के अवतरण अवसाद के साथ जनमानस के उत्थान, पतन का क्रम भी जुड़ा हुआ है। जिन दिनों महापुरुष जन्मे, उन दिनों कोई भी युग बीत रहा हो, वातावरण सतयुगी ही रहा हैं। भावी नवनिर्माण में भी इसी परिष्कृत स्तर की प्रतिभाओं का उभार सतयुग की वापसी करेगा, ऐसा महाकाल की सत्ता का प्रबल विश्वास है। ऐसी विभूतियों के साथ भी यही सबसे बड़ी आवश्यकता है एवं उसे विभूतियों को पूरा करना ही होगा।

विभूतियाँ ईश्वरप्रदत्त होती हैं। व्यक्तियों को वे मात्र धरोहर के रूप में सौंप दी जाती हैं। उनका मनचाहा प्रयोग किया जाना अनैतिक हैं। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि विभूतियों की आवश्यकता युगपरिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के लिए हैं, तो उन्हें उसके लिए लगना ही होगा। महाकाल के संकेत की अवहेलना नहीं की जा सकती इन विभूतियों को सात वर्गों में वर्णित किया हैं 1. भावना क्षेत्र (धर्म एवं अध्यात्म के प्रतिनिधि) 2. शिक्षा एवं साहित्य (शिक्षक, लेखक, साहित्यकार) 3. कलाक्षेत्र (सभी विधाओं से जुड़े कलाकार-संगीतकार) 4. विज्ञान (इससे जुड़े सभी वैज्ञानिक) 5. शासनतंत्र (राजनेता एवं प्रशासकगण) 6. संपदा(पूँजी के उपार्जन व वितरण से जुड़े सभी व्यक्ति) 7. प्रतिभा के विशिष्ट वर्ग से जुड़े बहुमुखी-मेधासंपन्न व्यक्ति।

सातों विभूतियों के माध्यम से गुरुसत्ता ने अपेक्षा की हैं, यही वह वर्ग है जिसके प्रभाव से देश या समुदाय की प्रगति संभव हो पाती हैं। युगसंधि की इस वेला में उच्चस्तरीय प्रतिभाओं को विभूतिवानों को खोजा, उभारा व खरादा जाए, यह आचार्य श्री के चिंतन का केंद्र कहा जाए, तो अत्युक्ति न होगी। वे कहते हैं कि दूध से मक्खन निकालकर घी बनाने के लिए उसे उबाला जाता है, मथा जाता है। इसी तरह युगसंधि पर्व में पूरे समाज के समुद्रमंथन जैसी प्रक्रिया की आज अनिवार्य आवश्यकता है प्रतिभा परिष्कार को युग की महती आवश्यकता बताते हुए। उन्होंने कहा है कि महाकाल को इस समय इन्हीं की सर्वाधिक जरूरत हैं। जन्म-जन्मांतरों से संचित सुसंस्कारों वाली प्रतिभाओं की खोज कर उन्हें युगचेतना से जोड़कर प्रज्ञापरिकर का सदस्य बनाया जाए, यही उस महापूर्णाहुति का लक्ष्य होगा, यह भी महाकाल के अग्रदूत ने अपनी युगसंधि महापुरश्चरण की प्रक्रिया के विस्तार के समय बताया था। इन दिनों विभूति महायज्ञ के रूप में ही सार भारत में वह मंथन पड़े रहा हैं। महापूर्णाहुति के अंतिम चरण में सहस्रकुँडी महायज्ञ के बाद 15 नवंबर 2000 से एक जून 2001 तक संपन्न होने वाले 5 दिवसीय प्रतिभा नियोजन सत्रों में ऐसी ही विभूतियों को आमंत्रण दिया जा रहा है, जो राष्ट्र व समाज के निमित्त अपने आप का नियोजित कर सकें, देवसंस्कृति के विस्तार की प्रक्रिया को गति दें सकें।

1964 में परमपूज्य गुरुदेव ने जिस विश्वविद्यालय का स्वप्न देखा था, उसी का साकार रूप प्रतिभाओं के माध्यम से चार विधाओं के प्रशिक्षण के एक विशालतंत्र के रूप में-शाँतिकुँज के विस्तार में होने जा रहा हैं, जो यहीं समीप स्थित हैं। इसे देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के रूप में जीवनविद्या के आलोक केन्द्र के रूप में विकसित किया जा रहा हैं। प्रायः 11 लाख वर्गफुट (131 बीघे) में बनने जा रहे हैं इस परिसर में साधना, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं स्वावलंबन चार विधाएँ विकसित की जा रही हैं। समस्त धर्मों व भाषाओं का एक शिक्षण तंत्र एवं साधना विज्ञान का विस्तृत प्रशिक्षण केंद्र इसे बनाया जा रहा हैं। अध्यात्म जीवन के जीन की कब का नाम हैं। इसका व्यावहारिक जीवनसाधना वाला सार्वभौम स्वरूप क्या हो, इसे देश व विशेषज्ञ के सभी परिजन यहाँ सीखेंगे। आयुर्वेद एवं समस्त वैकल्पिक चिकित्सातीकरण तथा नंगे पैर चिकित्सकों का निर्माण तंत्र भी यहाँ बन रहा हैं। सार्थक, अनौपचारिक संस्कार प्रधान शिक्षा के विस्तार हेतु प्राणवान् शिक्षकों के निर्माण का तंत्र भी यहाँ स्थापित हो रहा हैं। ग्रामीण स्वावलंबन से लेकर कुटीर उद्योगों द्वारा आर्थिक क्राँति का एक समग्र ढाँचा यहाँ बनाया गया हैं।

उपर्युक्त चारों विद्याएँ परमपूज्य गुरुदेव की युगप्रत्यावर्तन प्रक्रिया में प्रतिभाओं की भागीदारी की प्रक्रिया संपन्न करेंगी। जब समाज की सभी प्रतिभाएँ, प्रतिक्षण लेकर परिष्कृत रूप से नवसृजन के लिए समाज में उतरेंगी, तो कल्पना की जा सकती हैं कि सतयुग की वापसी एक सुनिश्चित भवितव्यता बन जाएगी, यह परिवर्तन के महाशताब्दी वर्ष का तक साकार होता अपनी इन्हीं आँखों से देख सकेंगे।

इक्कीसवीं सदी और हमारे कर्तव्य उच्चस्तरीय आत्माएँ कई अदृश्य कार्य सूक्ष्मशरीर द्वारा करती रहती हैं। मरणोत्तर जीवन में नए जन्म से पूर्व तो उन्हें इसके लिए और भी अधिक अवसर मिलता है। कर्मबंधनों से मुक्त रहने एवं अंतकाल में आदर्शवादी उत्कृष्टता के होते हुए वे युगानुरूप अपने कार्यक्रम बनाती रहती हैं। दृश्य और अदृश्य जीवन के क्रिया–कलाप की यही रीति-नीति होती हैं।

आज की परिस्थितियों में इस महासंक्राँति पर्व की वेला में जब हम आचार्य श्रीराम शर्मा जी एवं माता भगवती देवी शर्मा जी की जीवनयात्रा का अध्ययन करते हैं, तो पाते हैं कि दोनों ने दृश्य जगत् में भी असाधारण स्तर का पुरुषार्थ किया एवं दोनों ही स्तर पर सक्रिय रह प्रत्यक्ष व परोक्ष जगत् को, उनकी ही सत्ता ने गायत्री परिवार का मत्स्यावतार रूपी विस्तार किया हैं कि लाखों-करोड़ों के अंतःकरणों को बदलकर उनका भाग्य बदले दिया जाए, उनमें इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य का बीज बोकर सतयुग की अगवानी के लिए उन्हें मोरचे पर लगा दिया जाए।

प्रारंभिक चौबीस लक्ष के महापुरश्चरणों की साधना के बाद हिमालय अज्ञातवास के तप से लौटने पर उन्होंने सन् 62 से 69 तक विभिन्न स्तर की तप−साधनाएं स्वयं कीं, औरों से कराई। जिसकी जैसी पात्रता थी, कर पाने की क्षमता थी उसे सीमा तक परिष्कृत कर साधक बनाया। श्रेष्ठ साधक-चिंतक स्तर के स्वाध्यायशील व्यक्ति ही कर्मठ लोकसेवी संगठन बन पाते हैं। सामूहिक साधना द्वारा सामूहिक मन के जागरण की प्रक्रिया सक्रिय बना एक तीव्र चिंतनप्रवाह को जन्म देना एक अवतारी स्तर की सत्ता का ही काम हैं। हमारी गुरुसत्ता का जीवनक्रम हम देखते हैं, तो बहुआयामी रूप में उनके व्यक्तित्व रूपी विराट् हिमालय का दर्शन करते हैं। इसीलिए वह प्रचंड प्राणप्रवाह वाली लेखनी बनकर कभी लाखों अखण्ड ज्योति पाठकों के मनों को मथती हैं, उन्हें कुछ कर दिखाने के लिए तत्पर करती हैं, एक रचनात्मक घटक बनने को प्रेरित करती हैं। कभी वह उनकी ओजस्वी वाणी के प्रवाह से निस्सृत हो दृश्यजीवन में प्रखर तप व गहन ममत्व से भरी प्राण फूँक देने वाली अपनी इस विधा से अनेकों के जीवन की दिशाधारा बदले देती हैं। आध्यात्म मंच से समाज व राष्ट्र के अभिनव निर्माण के रचनात्मक क्रिया–कलाप जब उस साधक-संगठन के माध्यम से चलते हैं, तो गायत्री परिवार को सरकार के समानाँतर एक विराटतम आदर्श स्वयंसेवी संगठन के रूप में स्थापित कर देते हैं।

दुर्गम हिमालय से लेकर उत्तरकाशी एवं ऋषिकेश की गंगातट पर बनी काली–कमली वाले बाबा की छोटी कुटिया हो अथवा सप्तर्षि आश्रम परिसर में बनी छोटी अंतर्मुखी बना देने वाली साधना कुटीर हो, अखण्ड ज्योति संस्थान व गायत्री तपोभूमि का उनका साधनाकक्ष हो अथवा शाँतिकुँज स्थित मुख्य भवन में ऊपर की मंजिल की उनकी साधनास्थली-हर स्थान पर उस साधना की ऊर्जा की उपस्थिति अनुभव की जा सकती हैं, जिससे उन्होंने इस मिशन के संगठन को खड़ा किया हैं। हिमालय उन्होंने यात्रा से लौटकर विशिष्टों के लिए प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र सामान्य वर्ग के व्यक्तियों के लिए जीवनसत्ता-संजीवनी साधना सत्र, 1980 से आरंभ किए गए बीसवर्षीय साधना-अनुष्ठान के अंतर्गत विशिष्ट अभियान साधना-प्राण अनुदान वितरण की महासाधना, सूक्ष्मीकरण साधना की अवधि (1984 से 1986) में विशिष्ट ऊर्जा का उत्पादन-देवात्मा भारत की कुंडलिनी जागरण प्रक्रिया एवं 1988 की आश्विन नवरात्रि से आरंभ किए गए बारहवर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण द्वारा अनिष्ट का निवारण एवं इक्कीसवीं सदी का आगमन उनकी सतत् चलती रही। साधनामय जीवनयात्रा के मील के पत्थर हैं। ब्रह्मवर्चस् संपादन-आत्मबल उत्पादन हेतु वे स्वयं सक्रिय रहे, औरों को भी गतिशील करते रहे। परमवंदनीया माताजी ने 1946 में उनके साथ भागीदारी की व 1994 तक उनके हर संकल्प में साथ निभाती रहीं। लोककल्याण के लिए तप-अहर्निश तप की इस प्रक्रिया को क्यों किया गया, किस के लिए किया गया, इसका एक ही जवाब है, मानवमात्र के कल्याण हेतु-आस्थासंकट के दुर्भिक्ष से लड़ने हेतु-जनप्रवाह बनाने के लिए तथा सतयुग की वापसी की प्रक्रिया को गतिशील करने के लिए।

इक्कीसवीं सदी आज के आम आदमी के के लिए क्या हैं, किस रूप में हैं, यह सभी जानते हैं। ‘मिलनियम’ के रूप में करोड़ों व्यक्तियों ने उत्सव मनाकर 31 दिसंबर 1999 से 1 जनवरी 2000 में प्रवेश किया। क्या इससे युग बदले गया? युगपरिवर्तन एक शाश्वत-सनातन प्रक्रिया हैं। एवं उसका कैलेंडर की तारीखें बदलने से कोई संबंध नहीं। इसीलिए आज से 57 वर्ष पूर्व हमारे गुरुदेव संवत् 2000 के आगमन के साथ ही आने वाले साठ वर्षों में नवयुग के आगमन की भविष्यवाणी भी कर देते हैं एवं उसके लिए सही वातावरण बनाने की प्रक्रिया भी युगसाधना के द्वारा हमें समझा जाते हैं। पहली बार किसी ने मानव इतिहास में जीवन और साधना को एकाकार कर प्रस्तुत कर लाखों में उज्ज्वल समझाकर अपने आचरण से प्रस्तुत कर लाखों में उज्ज्वल भविष्य हेतु स्वयं के निर्माण की प्रक्रिया को गतिशील बना दिया।

विश्व जीवन को केंद्र बनाकर किया गया एक विराट् साधनात्मक पुरुषार्थ हमारे पूज्य गुरुदेव के जीवन की एक मुख्य धारा बनकर आया हैं। सामान्यतया साधक स्वयं के जीवन के परिशोधन-मोक्ष या सिद्धि रूप में जीवन लक्ष्य पाने का पुरुषार्थ करते रहते हैं, पर आचार्य श्री ने स्पष्ट कहा-”मेरी साधना का उद्देश्य किसी मोक्ष या निर्वाण की खोज नहीं हैं। इसका मुख्य उद्देश्य जीवन और अस्तित्व का परिवर्तन हैं।” विश्वमानवता के प्रति उफनती संवेदना ने ही विश्वात्मबोध जगाया एवं उन्हीं के शब्दों में जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भागीरथों-शुनिक्षेपों का सृजन करना तपश्चर्या का लक्ष्य रहा हैं।

उन्हें भविष्य तब से ही दिखाई दे रहा था, जब वे अपने गुरु के आदेश पर तप में संलग्न हो पंद्रह वर्ष की आयु में अखण्ड घृतदीप जलाकर गायत्री महाशक्ति की युगविश्वामित्र के स्तर की साधना में लग गए थे। उन्हें यह भी आभास था कि सतयुग-नवयुग के आगमन की पूर्ववेला में ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें किस उद्देश्य से ऋषिसत्ताओं ने भेजा हैं। पहले भी भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, गौतमबुद्ध, कबीर, समर्थ रामदास, रामकृष्ण के समय लीलावतार के प्रकटीकरण के समय ऐसे ही अवतरण संपन्न हुए थे। इस बार की विशेषता थी लाखों-करोड़ों की चेतना में प्रज्ञावतार की सत्ता का-विचारप्रवाह का अवतरण। इसी तथ्य को आगे उन्होंने सूक्ष्मीकरण की साधना के दौरान लिखा था-”हम जिस अग्नि में अगले दिनों तपेंगे, उसकी गरमी असंख्य जाग्रतात्माएँ अनुभव करेंगी। भावी महाभारत का संचालन करने के लिए कितने ही कर्मनिष्ठ महामानव अपनी वर्तमान मूर्च्छना को छोड़कर आगे आते हैं, इस चमत्कार को अगले ही दिनों प्रत्यक्ष देखने के लिए सहज ही हर किसी को प्रतीक्षा करनी चाहिए। लोकसेवियों की एक ऐसी उत्कृष्ट चतुरंगिणी खड़ी कर देना जो असंभव को भी संभव बना दे, नरक को स्वर्ग में परिणत कर दे, हमारे ज्वलंत जीवनक्रम का चमत्कार होगा।”

आज हम उस स्थिति में खड़े हैं जहां विज्ञान के शिखर पर पहुँचा हुआ विश्वसमुदाय उसके समस्त अभिशापों का-साइड इफेक्ट्स दुष्प्रभाव का शिकार हुआ। इक्कीसवीं सदी में जीने के लिए पैर रखने की जगह तलाश रहा हैं। देवी आपदाएँ, मानवकृत परिस्थितियों के कारण बाढ़ पर हैं। प्रदूषण-बढ़ती जपसंख्या औद्योगीकरण-शहरीकरण नवीनीकरण की प्रतिक्रिया मनुष्य को भुगतनी पड़ रही हैं। जोड़ने के प्रयास चलते हैं-कुछ समाधान खोजा जाता है, तो किसी ओर से कुछ टूट जाता है। बुद्धिवाद ने सुविधासाधनों के आडंबर खड़े कर दिए हैं, पर उनका उपभोग आज का अशक्त-दुर्बल मनोबल वाला इनसान नहीं कर पा रहा हैं। पैसा बढ़ा हैं, किंतु इसी क्रम से मनःस्थिति जिस तनाव को जन्म दे रही हैं, उसमें अधिकाँश झुलस रहे हैं। पूज्य गुरुदेव ने इक्कीसवीं सदी को भावसंवेदना की सदी कहा। समर्थता, कुशलता, समग्रता से भी परे उन्होंने चौथी शक्ति भावसंवेदना निरूपित की एवं कहा कि इक्कीसवीं सदी आएगी, तो लोकमानस के परिष्कार, आदर्शों के परिपालन, चरित्र और प्रयासों में आदर्शों के परिपालन, चरित्र और प्रयासों में आदर्शों का संपुट लगाने पर ही। भले ही इस कार्य के लिए महाकाल को बलात् लोगों के चिंतन बदलने हेतु कोई क्रिया करनी पड़े तो वह करेगा एवं इस जैसे बीसवीं सदी के समापन पर दिखाई दे रहे थे। भावसंवेदना का सतयुग अध्यात्म तत्वज्ञान के परिष्कृत रूप से ही आएगा। समझदारों की नासमझी-भ्राँतियाँ अवांछनीयताएं इसी से दूर होंगी। समर्थ एवं प्रखर अध्यात्म ही उज्ज्वल भविष्य की संरचना करेगा एवं उसी तंत्र को विनिर्मित करने में ऋषियुग्म का समग्र कर्तव्य नियोजित हुआ हैं।

पूज्यवर फरवरी 1987 के ‘इक्कीसवीं सदी अंक’ में लिखते हैं-”वह दिन दूर नहीं, जब भारत अग्रिम पंक्ति में खड़ा होगा और वह उलझनों के निराकरण में अपनी दैवी विलक्षणता का चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत करेगा।’ “युगपरिवर्तन का स्वरूप जो प्रत्यक्ष देखना चाहते हैं, उन्हें वसंत की उपमा समझनी होगी। वसंत के दिनों में क्रमशः मौसम बदलता है, सर्वत्र फूलों की बहार दृष्टिगोचर होने लगती हैं। जनमानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के अनेकानेक कृत्य इस तरह बढ़ते दिखाई देंगे। भावनाक्षेत्र में सुधारकों की एक बड़ी सेना योजनाबद्ध रूप में कार्य करती दिखाई देगी।” हम सभी को धैर्य से इस नवयुग की-इक्कीसवीं सदी की प्रतिक्षा करनी चाहिए।


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