या द्वितीय संक्राँति पर्व

February 2000

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संक्राँति दो युगप्रवाहों का मिलन हैं। यह अतीत हो रहे वर्तमान और भविष्य होने वाले आगत का संगम हैं। जब दो युगप्रवाह मिलते हैं तो वे पल बड़े ही अद्भुत, विचित्र और विलक्षण होते हैं। इन पलों में बहुत कुछ टूटता-दरकता है। न जाने कितनी मान्यताएं-परम्पराएँ ध्वस्त होती हैं। बहुत कुछ ऐसा भी होता है, जिसे नया होने के बावजूद स्वीकारा एवं अपनाया जाता है। सहस्राब्दी के द्वितीय संक्राँति पर्व जो दो प्रवाह मिल, या यों कहें कि आपस में टकराए, उनमें से एक अपनी चिर-परिचित भारतीयता की भावधारा थी, जो औरंगजेब की कुटिल नीतियों से अपना ओज और तेज खोने लगी थी। दूसरा आने वाला प्रबल प्रवाह था। यूरोपवासियों की संस्कृति-सभ्यता और उनकी महत्वाकांक्षाओं का। इन्हीं दिनों यूरोप में नवजागरण करवटें ले रहा था। इस जागरण ने उनमें अपूर्व उमंग-उत्साह एवं अपरिमित शक्ति भर दी थी और बहुत कुछ पाने, अपना आधिपत्य जमाने के लिए भारत की और पड़े पड़े थे।

अभी तक भारतवर्ष में जितनी जातियाँ आई थीं, वे सब उत्तर-पश्चिम के पर्वतीय मार्गों से आई थीं परंतु यूरोप में रहने वालों ने समुद्री मार्ग से भारत आना आरंभ किया। इनमें सबसे पहले वास्कोडिगामा नामक पुर्तगाली यात्री चार जहाजों के साथ भारत आया। उसने मई 1498 ई. में कालीकट के उत्तर में भारतभूमि पर प्रवेश किया। वहाँ पर उन दिनों जमोरिन का शासन था, जिसकी सहृदयता के बदले पुर्तगाल के राजा ने कालीकट को अपना उपनिवेश माना लिया और पुर्तगाल से एक बड़ा जहाजी बेड़ा भेजते हुए हुक्म दिया-”उस देश में ईसाईयत का प्रसार करो और वहाँ जबरन शासन करने की भी कोशिश करो।”

इसी के परिणामस्वरूप 1503 ई. में अल्बुकर्क पुर्तगाली गवर्नर बनकर भारत आया। सुरक्षित स्थान की दृष्टि से उसकी नजर गोवा पर पड़ी, जो समुद्रतट के निकट एक द्वीप था। 1510 ई. में पुर्तगालियों ने आक्रमण कर उस पर कब्जा कर लिया। अल्बुकर्क के बाद भी उसके द्वारा निर्धारित नीति का अनुकरण पुर्तगाली करते रहे। उन्होंने 1534 ई. में बेसीन के द्वीप पर अपना अधिकार कर लिया और इस तरह धीरे-धीरे हिंद महासागर तथा बंगाल की खाड़ी के समुद्रतट पर उन्होंने अपनी धाक जाम ली।

पुर्तगाली के बाद डच लोग भारत आए। ये लोग हालड निवासी थे। भारत में व्यापार से ये लोग उतना ज्यादा आकृष्ट नहीं थे, जितना मसाल के द्वीपों के व्यापार से। डच लोगों का पहला जहाजी बेड़ा 1595 ई. में मलाया द्वीप समुह के लिए आया। 1602 ई. में उन्होंने भारत में व्यापार करने के लिए डच ईस्ट कंपनी की स्थापना कर ली और सूरत, चिन्सुरा आदि स्थानों पर अपनी कोठियाँ भी बना ली। 1641 ई. में उन्होंने पुर्तगालियों से मलक्का द्वीप छीन लिया। धीरे-धीरे दूसरी कई जगहों पर अपना अधिकार जमाते गए।

डच लोगों के बाद अंग्रेज भी भारत में व्यापार करने के लिए आए। इन लोगों ने स्वतंत्र व्यापारियों की एक कंपनी बनाई, जिसका नाम ईस्ट इंडिया कंपनी (ग्रेट लरिटेन) रखा। अंग्रेज जाति का कौन आदमी पहले पहले भारत आया, इसका तो ठीक पता नहीं हैं, लेकिन जो अंग्रेज सबसे पहले भारत में आया बसा, उसका नाम टामस स्टीफन था। और वह ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए सन् 1579 ई. में गोआ आया था, जबकि ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1600 ई. में हुई। 1608 ई. में जहांगीर ने कंपनी को सूरत में तंबाकू की कोठी खोलने की आज्ञा दी। तभी से तंबाकू का भारत में एक नाम ‘सूरती’ प्रचलित हुआ।

यह 17वीं सदी का भारत मुगलों का भारत था, जो सोने से चमचमा रहा था। यूरोप के कुछ यात्रियों ने भारत का जो विवरण यूरोप में उपस्थित किया-उससे वहाँ के लोग दंग रह गए। यूरोप वालों के मन में भारत सोना-चाँदी, हीरे-जवाहरात और रेशम-किमखाब से सुसज्जित देश हो उठा। मिल्टन की कविताओं में भी भारत के इस अपूर्व वैभव का उल्लेख आया हैं। इससे आकर्षित होकर अंग्रेज आते ही पड़े गए। मुँलाई, मद्रास, हुगली, पटन में उनकी कोठियाँ बनती चली गई। 1694 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने बाकायदा एक नियम बनाकर सभी व्यापारियों को भारत में व्यापार करने का अधिकार दे दिया।

इसी बीच फ्राँस से दो यात्री टबर्नियर और बर्नियर भारत आए। उन्होंने भारत की धन–धान्यता का कुछ ऐसा प्रचार किया कि फ्राँस वाले भी भारत की ओर पड़े पड़े। 1664 ई. में अपने राजा की आज्ञा से इन्होंने भी फ्राँसीसी ईस्ट कंपनी की स्थापना कर ली और 1668 ई. में उन्होंने भी सूरत में कोठी बना ली। फिर तो धीरे-धीरे मछलीपट्टम, पाँडिचेरी, चंद्रनगर, माही, कालीकट आदि स्थानों पर उनने अपना कब्जा जमा लिया। पहले तो ये सबके सब केवल व्यापार करने और धन कमाने के मकसद से ही यहाँ आए थे, परंतु बाद में पुर्तगाली, डच, अंग्रेज एवं फ्राँसीसी चारों की ही महत्वाकांक्षाएं जाग उठीं और वे यहाँ शासन करने का सपना सँजोने लगे। यही टकराव की शुरुआत थी। उनके इन इरादों को भाँपते हुए किसी कवि ने कहा-

व्यापारी बनकर आयें थे, लगे यहाँ शासन करने। अपहर्ता बन गए देश के, लगे रक्तशोषण करने॥

वास्कोडिगामा के यहाँ आने और अँगरेजों के यहाँ वर्चस्व जमाने तक का यूरोप उमंगों और महत्वाकांक्षाओं का यूरोप था। इन क्षणों में यदि भारत संक्राँति के संघर्ष से जूझ रहा था तो यूरोप नवजागरण की सुहानी सुबह में अपने आँखों खोल रहा था। एक व्यापक दृष्टि से देखें तो सन् 1401 से 1800 के बीच पुरी दुनिया में ताकतवर साम्राज्यों का उदय हुआ और एक-दूसरे से जुड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। यूरोपीय नाविकों ने लंबी-लंबी यात्राएँ कर नए मार्ग खोजे। अफ्रीका और एशिया के बीच व्यापारिक संबंध प्रगाढ़ हुए। यही वह दौर हैं, जब अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ने पहली बार आकर लेना शुरू किया। यूरोप में पड़े नवजागरण के दौर ने कब-संस्कृति एवं विज्ञान को नए आयाम दिए। लयोनार्दो द विंसी जैसे कलाकार और निकोलस कोपरनिकस जैसे खगोलशास्त्री इसी युग की देन हैं। तुर्की के ओटोभन साम्राज्य ने अपना विस्तार अफ्रीका व यूरोप तक किया। 18वीं सदी आते-आते यूरोपीय देशों ने पूरी दुनिया को अपने प्रभाव में ले लिया। अमेरिका, एशिया, अफ्रीका, प्रशाँत सभी महाद्वीपों में यूरोपीय देशों ने अपने उपनिवेश स्थापित किए, लेकिन इस सदी ने जाते-जाते नई व्यवस्थाओं, नए मूल्यों के बीज बो दिए। फाँस की क्राँति ने पूरी दुनिया को नया संदेश दिया और अमेरिका ने लरिटेन के औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंका।

भारतवर्ष की दृष्टि से 17वीं एवं 18वी सदी संक्राँति के तूफानी संघर्ष की जन्मदात्री बनी। औरंगजेब के ही काल में विद्रोहों के स्वर पनपने लगे। भारत की राजसत्ता विघटित और विखंडित होने लगी। राजनीतिक बिखराव के साथ सामाजिक-साँस्कृतिक बिखराव भी कम नहीं था। हम कौन? हमारी संस्कृति क्या?? जैसे प्रश्नचिह्न भी इस युग में उठ खड़े हुए थे। आध्यात्मिक ज्ञान और ऊर्जा का प्रवाह भी मंद पड़ने लगा था। साधना थी, साधक भी थे, पर सब बिखरें हुए बँटे हुए। जो भारतवासी हैं, भारतीयता की प्रकृति को पहचानते हैं, उन्हें यह भी मालूम है कि इस देश की ऊर्जा का मूल स्रोत आध्यात्म हैं, आध्यात्मिक साधनाएँ हैं। यहाँ साधन से ही संस्कृति का निर्माण होता है। यह संस्कृति ही समाज को गति देती थी और गतिशील समाज ही राष्ट्र को उसका गौरव देता है।

जब आध्यात्मिकता के ही स्रोत सूखने लगे, तब स्वभावतः अपनी संस्कृति की पहचान करनी मुश्किल हो जाती हैं। सहस्राब्दी के इस द्वितीय पर्व में कुछ यही होने लगा था। भारत की क्षय हो रही जीवनी शक्ति पर यूरोपीय प्रवाह प्रबल और भारी पड़ने लगा था। अनेकों युगप्रश्न उठ खड़े हुए थे, जो अपना उत्तर तलाश रहे थे। यूरोप भारत का सर्वस्व लूटने के लिए आतुर-आकुल हो रहा था शक्ति खोज रहा था। साधना के सुर बिखर रहे थे- अध्यात्म का संगीत मद्धिम पड़ गया था। इन बिखरे सुरों को किसी नए संगीतकार की तलाश थी, जो संक्राँति के पर्व में अर्थ खोज सके।


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