सहसा किरणों का सूर्य चमका श्री रामकृष्ण के रूप में

February 2000

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साधनापद्धतियों में समन्वय तार्किक विश्लेषण या बौद्धिक प्रतिपादन की विषयवस्तु नहीं हैं। यह तो विभिन्न साधनापद्धतियों की गहन साधनाओं के अंतस् से उपजे निष्कर्षों के सरलीकरण से ही संभव हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस अपने जीवनकाल में इन्हीं आध्यात्मिक प्रयोगों में संलग्न रहे और निष्कर्ष रूप में उन्होंने कहा साधन भिन्न हो सकते हैं, किन्तु सभी लोग उसकी खोज तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। सभी लोग उसकी खोज में हैं चाहे वे भिन्न से ही उसे खोजते हों। उसका यह कथन किसी दार्शनिक का वैचारिक प्रतिपादन मात्र नहीं हैं, बल्कि एक आत्मद्रष्टा, ईश्वरभावोन्मत, महान् ध्यानस्थ योगी का सत्यपुँज हैं, जिसका साक्षात् संबंध उस आदिशक्ति से था जिसे ब्रह्मशक्ति, काली, गॉड या अल्लाह आदि नामों से जाना जाता है।

वह शक्ति उनसे अभिन्न थी। इससे वे वार्त्तालाप किया करते हैं और सब कुछ भूलकर समाधिमग्न हो जाते थे। विभिन्न साधनाओं के करने के पश्चात् उनकी यह निश्चयात्मक वाणी उच्चरित हुई कि समस्त धर्मों-मतों का मिलन बिन्दू वह एक ही ईश्वर हैं जिसमें विभिन्न धर्मावलंबी लोग अपने धर्म की पूर्णता पाते हैं। उनका समूचा जीवन “एकं सद्विपाः बहुधा वदंति” के वैदिक महामंत्र को प्रमाणित करने वाला महाप्रयोग था। उन्होंने प्रत्येक धर्म-संप्रदाय एवं मतों के संघर्ष को अपने जीवन में समन्वय एवं एकता के द्वारा निस्सृत किया। इस प्रसंग में उनके कठोर साधनामय जीवन की झलक देखना अनिवार्य हैं।

श्री रामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी बनने के बाद अपनी साधना की शुरुआत की। इस क्रम में उन्होंने साधना में बाधक सभी वस्तुओं एवं भावों का परित्याग कर दिया। अभिमान को समाप्त करने के लिए उन्होंने भंगी रसिक के घन का मैल साफ किया। वैराग्य एवं व्याकुलता की इसी भावदशा में उन्हें माँ काली के दर्शन हुए। इस दर्शन के पश्चात् वह द्वैतभाव के साकार सगुण, निराकार-सगुण एवं अद्वैतभाव के निराकार-निर्गुण की साधना में संलग्न हुए। द्वैतभाव की साधना में उन्होंने अपने कुल के इष्टदेव श्री रघुवीर की साधना दास्य भक्तिभाव से करना शुरू की। इसके लिए उन्होंने रामभक्त हनुमान का भाव अपने ऊपर आरोपित किया। वे महावीरमय हो गए। इस साधना अवधि में उन्होंने पहले सीता जी के दर्शन किए। बाद में इसी भावानुराग में उन्होंने श्री रघुवीर के दर्शन पाए। हनुमान भाव के साथ ही उन्होंने भगवान् राम की बालभाव में साधना की और प्रभू की बालमूर्ति का दर्शन किया।

सकार सगुण द्वैतभाव की साधना के अगले चरण में उन्होंने मधुर स्वर भाव की साधना की। वह स्वयं को व्रज की गोपी रूप में अनुभव कर श्रीकृष्णप्रेम में डूब गए। इस साधना के अनुभवों को बताते हुए उन्होंने कहा भी राधारानी की अंगक्राँति को मैंने नागकेसर पुष्प के केसरों की भाँति गौरवर्ण देखा था। छह माह चली इस साधना की उत्कट अवस्था में वह महाभाव में पहुँच गए और सच्चिदानंद श्रीकृष्ण का पावन दर्शनलाभ किया। अन्य मूर्तियों की ही भाँति श्रीकृष्णमूर्ति भी उनमें लीन हो गई।

युगचेतना ने जाग्रत् आत्माओं से एक ही माँग की हैं- नवसृजन के लिए समयदान। भगवान ने समय-समय पर अपने प्राणप्रिय भक्तों से विविध प्रकार की याचनाएँ की हैं। इसलिए नहीं कि वे दरिद्र, अपंग या असमर्थ हैं, वरन् इसलिए कि भक्तों ने इस बहाने अपनी प्रसुप्त उत्कृष्टता को प्रखर बनाने के अवसर मिल सके। याचना और अनुदान का परीक्षण न चलता तो भक्तपरंपरा में मात्र पाखंडी ही भर गए होते और सच्चे-झूठे की परख ही संभव न रहती।

द्वैतभाव की साधना के बाद उन्होंने बहुविधि तंत्र साधनाएँ कीं। इस प्रसंग में उन्होंने भैरवी ब्राह्मणी द्वारा तंत्रमार्ग की दीक्षा ली। तंत्रमार्ग में उन्होंने अनेक भावों एवं विविध मार्गों की सभी साधनाएँ पूर्ण कीं और उस परम चित् शक्ति का साक्षात्कार किया। साधना अवधि में स्पष्ट अनुभव किया कि यह समस्त सृष्टि उसी महाशक्ति की क्रीड़ा-कल्लोल हैं। इन साधनाओं के निष्कर्ष रूप में वे समस्त स्त्रीजाति को मातृभाव में ही भावी नारीयुग के अभ्युदय के संकेत निहित थे।

द्वैतभाव की साधना में सिद्ध श्री रामकृष्ण अब तोतापुरी नामक संन्यासी के निर्देशन में अद्वैत साधना में संलग्न हुए। विधिवत् दीक्षा लेने के बाद जल्द ही उनका मन निर्विकल्प समाधि में डूब गया। उनका ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान का भेद समाप्त हो गया। इस अवस्था में वह छह माह तक रहे। अद्वैत भावभूमि में आरुढ़ श्री रामकृष्ण ने समझ लिया था कि समस्त साधनाओं को अंतिम लक्ष्य अद्वैतभाव हैं। समस्त धर्मों की साधनाएं इसी लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है।

अद्वैत की निर्गुण निराकार साधना के बाद उन्होंने निराकार सगुण साधनाएँ भी की। इसके अंतर्गत उनकी इस्लाम तथा ईसाई धर्म की साधना प्रमुख हैं। वे उस समय की साधना के बारे यदा-कदा बताया करते तब मैं अल्लाह का जाप किया करता था। पाँच बार नमाज पढ़ता। इस साधना में सर्वप्रथम लंबी दाढ़ी युक्त एक गंभीर ज्योतिर्मय पुरुष का दिव्य दर्शन हुआ। तदंतर सगुण विराट् ब्रह्म की उपलब्धि के पश्चात् तुरीय निर्गुण ब्रह्म ने उनका मन लीन हो गया। ईसाई धर्म की साधना के समय वह बाहबिल सुना करते। गिरजाघर भी जाते। उनकी यह भावधारा साधनाकाल में बनी रही। एक दिन उन्होंने एक सुँदर गौरवर्ण देवमानव को अपनी ओर आते हुए देखा। उन्हें देखते ही उनके अंतःकरण में प्रतिध्वनित होने लगा-ईसामसीह! डनके इस प्रकार सोचते ही देवमानव ईसा श्री रामकृष्ण का आलिंगन कर उनके शरीर में लीन हो गाए। उनकी बातयचेतना लुप्त हो गई और उनका मन सगुण विराट् ब्रह्म के साथ एकाकार हो गया।

अनय भावों एवं पंथों की भी उन्होंने साधनाएँ कीं। बौद्ध भाव में डुलाकर एक बार उन्होंने कहा-श्री बुद्धदेव निश्चित ही ईश्वरावतार थे। उनके प्रवर्तित मत तथा वैदिक ज्ञानमार्ग में कोई भेद नहीं हैं। जैन तीर्थंकरों के प्रति भी वे श्रद्धावान् थे। उनके मरे में महावीर की पाषाण मूर्ति होना एवं उसको धूप देना इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं।

वेदाँत के विभिन्न संप्रदायों अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि सभी साधनाओं के फलस्वरूप उन्हें इस सत्य की स्पष्ट अनुभूति हो गई कि उनमें कोई मूल विरोध नहीं हैं। किसी भी धर्म या संप्रदाय के मत अंततः एक ही गंतव्य स्थल तक पहुँचते हैं। मनुष्य की आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार इन मार्गों को अपनाने की आवश्यकता साधक को पड़ती हैं। समस्त प्रचलित धर्मसाधनाएँ करके भी रामकृष्ण ने यह सिद्ध कर दिया कि समस्त धर्मों का धर्ममत अनेक मार्ग हैं। सारे मत-संप्रदाय एक ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं।

अपने इस महान् प्रयोग एवं इसके निष्कर्ष से एकाकार होकर श्री रामकृष्ण समस्त धर्मों के सजीव विग्रह बन गए। समस्त धर्मों की पूर्णता उनमें परिलक्षित होने लगी। वैज्ञानिक युग के आविर्भाव से विभिन्न धर्मों के प्रति जब मनुष्य की निष्ठा कम होती जा रही थी और उस अभूतपूर्व परिस्थिति में बातय आडंबर को बनाए रखने के लिए जब प्रायः सभी धर्म अंत-सार शून्य हो रहे थे, तब श्री रामकृष्ण का आगमन निश्चित रूप से एक युगाँतरकारी घटना बनी। उस समय प्रायः सभी धर्मप्रचारक अपने-अपने धर्म की बढ़ाई करने में लगे हुए थे, जो किसी भी विचारशील व्यक्ति के लिए ग्रहण करना असंभव हो रहा था। नव्यशिक्षित वर्ग में से किसी को अपने भाव में अनुप्राणित कर पाना असंभव हो रहा था। ऐसे समय श्री रामकृष्ण ने समस्त साधनापद्धतियों में समन्वय के साथ धर्म में नए प्राण भरे। उन्होंने अपनी जीवनसाधना से यह प्रमाणित किया कि वास्तव में सभी धर्मों का सारतत्व मानव धर्म हैं और इसके अनुशीलन की यथार्थ उपलब्धि हैं- मानव में देवत्व का जागरण रामकृष्ण परमहंस परस्पर चर्चा में शिष्यों को बता रहे थे- मनुष्यों में कुछ देवता पाए जाते हैं, शेष तो नरपिशाच ही होते हैं।

नरेन्द्र ने पूछा-भला इन नरपिशाचों और मनुष्यों तथा देवताओं की पहचान क्या हैं।

परमहंस ने कहा- वे मनुष्य देवता है जो दूसरों को लाभ पहुँचाने के लिए स्वयं हानि उठाने को तैयार रहते हैं, मनुष्य वे हैं जो अपना भी भला करते हैं और दूसरों का भी। नरपिशाच वे हैं जो दूसरों की हानि में सोचते और करते हैं, भले ही इस प्रयास में उन्हें स्वयं ही हानि सहनी पड़े।

प्राचीन ऋषि, महर्षियों द्वारा प्रणीत भारतीय संस्कृति का सार मर्म भी यही हैं। तभी तो भारतीय संस्कृति देवसंस्कृति कहलाती हैं। इस देवसंस्कृति के प्रसार एवं प्रशिक्षण के लिए उन्होंने अपने शिष्य वृंद को सन्नद्ध किया। अपने परम अनुगत एवं गुरुगत प्राण शिष्य स्वामी विवेकानंद को उन्होंने इसका विशेष दायित्व सौंपते हुए कहा “नरेन शिखा दिवे” अर्थात् नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) जन-जन को शिक्षा देंगे। उनका महान् संदेश ही परवर्तीकाल में स्वामी विवेकानंद के मुख से दिग्विजय का शंखनाद बनकर विश्वगगन में गूँजा। यह दिग्विजय भारत की संस्कृति एवं साधना की विजय थी, महर्षियों के सतानत संदेश की विजय थी, जिसमें श्री रामकृष्ण देव के तापमान भी ओत–प्रोत थे।


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