सहस्राब्दी संदेश समन्वित संक्राँति दर्शन

February 2000

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महासंक्राँति के इस महापर्व में समूचा जीवन ही संक्रांति का पर्याय बन गया हैं। एक गंभीर और भयावह उथल-पुथल सब ओर अनुभव की जा सकती हैं। राजनीतिक स्थिति हो या आर्थिक व्यवस्था अथवा फिर सामाजिक संरचना, हर कहीं तीव्र झटके महसूस किए जा रहें हैं। मान्यताएँ, प्रथाएँ, परम्पराएँ हों अथवा जाति, वर्ग, धर्म, नीति-सब तरफ दरकन और टूटन बढ़ती जा रहीं हैं। चारों ओर अस्थिरता का बोलबाला हैं कोई नहीं जानता कल क्या होगा? आकाँशों की तीव्रता अब आतंक का पर्याय बन चुकी हैं। यह स्थिति किसी एक देश की सीमाओं तक सिमटी नहीं हैं, बल्कि समूची दुनिया इसकी लपेट में आ चुकी हैं। वैज्ञानिक चिंतित हैं, मनीषी व्यथित। उन्हें समझ में नहीं आ रहा हैं कि अचानक यह सब क्या हो गया? मानवीय जीवन ही नहीं प्रकृति एवं पर्यावरण भी क्षुब्ध हो पड़े हैं। मानवीय सभ्यता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग गया हैं।

समाधान की खोज में लगी मानव मनीषा इस निष्कर्ष पर पहुँची हैं कि यह संक्रमणकाल की व्यथा हैं। जन्म लती हैं। मानवजीवन की संरचनाएँ और संस्थाएँ ही नहीं, स्वयं प्रकृति भी अपना स्वरूप बदलने के लिए उतारू होती हैं। हर पल और एक क्षण बदलाव ही संक्रमणकाल की नीति हैं-संक्राँति की परिभाषा हैं। इन परिस्थितियों में सार्थक समाधान प्रस्तुत कर पाना प्रचलित दार्शनिक विचारों बौद्धिक प्रणालियों के बूते की बात नहीं हैं। ऐसे में जीवन के सामने जो यक्षप्रश्न आ खड़े होते हैं, उन्हें वही दार्शनिक-विचारक हल कर सकता है, जो स्वयं क्राँतिदर्शी हो, जिसे राष्ट्रीय, सार्थक ज्ञान हो, वर्तमान की दुरूहताओं की बारीक समझ हो, साथ ही हो भविष्य का स्पष्टबोध, तभी वह ऐसे दर्शन को जन्म दे सकता है, जिसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं के सार्थक समाधान सँजोए हों।

यही वजह हैं कि विश्व की मानवीय प्रतिभा भारत महादेश की ओर आशाभरी नजरों से देख रही है, क्योंकि यहाँ उन्हें ऐतिहासिक संक्राँतियों बड़ी साफ-साफ नजर आती हैं। यही वह देश हैं, जहां का सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन पहले भी कुछ ऐसी ही विपन्नताओं विषमताओं से गुजर चुका हैं। ऐसी पहली संक्राँति का अवसर उस समय आया जब मुस्लिम सभ्यता का अपने देश में पदार्पण हुआ। मुसलमान इस देश में आकर रहने तो लगे, पर अभी तक वे विदेशी थे। न वे भारत एवं भारतीयता को आत्मसात कर पाए थे और न यहाँ के निवासी उन्हें अपना पाए थे। जोर-जुल्म और दमनचक्र ही उस युग की संस्कृति थी। इसी की प्रतिक्रियास्वरूप सामाजिक समस्याएँ भी थीं, जो सब मिलकर एक नए दर्शन की खोज कर रही थीं।

अंतरिक्ष ने सूर्य से पूछा-देव! आप सत्त ताप की ज्वाला में जलते रहते हैं। एक क्षण भी विश्राम नहीं लेते। इससे आपको क्या मिलता है। सूर्यदेव मुस्कराए और बोल-तात्! मुझे स्वयं जलते हुए भी दूसरों को प्रकाश, ताप और प्राण देते रहने से नहीं की जा सकती। अंतरिक्ष को अपनी भूल ज्ञात हुई तथा मालूम हुआ कि जीवन की सच्ची सफलता स्वयं कष्ट उठाकर भी दूसरों को प्रकाशप्रेरणा प्रदान करते रहने में हैं

संत कबीर के रूप में उस युग में एक सच्चे दार्शनिक का अवतरण हुआ। यद्यपि उस युग में दार्शनिक, संत एवं कवि और भी थे, पर उनमें से किसी ने न तो हिंदू-मुस्लिम ऐक्य पर कुछ कहा और न ही उस काल की सामाजिक समस्याओं के सार्थक हल प्रस्तुत किए। वैष्णव संतों की बात जाने भी दें तो, उस काल के सूफी संत कुतुबन (1521 ई0), मंझन (1504) एवं जायसी (1521) आदि नहीं कहा, पर कबीर मौन नहीं र सके। उन्होंने सच्चे दार्शनिक का कर्तव्य निभाया।

उन दिनों अर्थात् चौदहवीं शताब्दी के अंत और पंद्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतवर्ष के दार्शनिक विचारों में क्राँति हो रही थी। सूफीमत, विशिष्टाद्वैतवाद, अद्वैतवाद,

शैव, शाक्त, गोरख सिद्धांत और बौद्धमत की विभिन्न सिद्धाँत शाखाएँ एक-दूसरे से उलझ रही थी और जब महात्मा कबीर ने अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने के लिए एक नवीन दर्शन की रचना की, तो उन्होंने अपने दृष्टिकोण के अनुसार इन सभी सिद्धांतों से उपयुक्त बातें नए ढंग से चुनकर अपने दर्शन में मौलिक तर्कसम्मत बनाया उतना ही समायोजित भी। गहरी से गहरी भावनाओं को उन्होंने इतना सरल रूप से सजाया कि साधारण जनता भी असली तत्व के निकट पहुँच गई, वे अपने समय के जितने बड़े दार्शनिक थे, उतने ही अधिक प्रचारक भी।

इनका दार्शनिक व्यक्तित्व बहुआयामी हैं, लेकिन प्रायः विभिन्न मनीषियों ने उसे एक आयाम में बाँधने की चेष्टा की है। अकबरकालीन इतिहासकार मोहसीन फरनी ने अपने प्रसिद्ध इतिहासग्रंथ दलरिस्तान में कबीर को मुवाहित (एकेश्वरवादी) कहा हैं। रेवरेंड जी. एच. केस्ट फास्ट ने इस शब्द पर टिप्पणी करते हुए कहा हैं कि कोई भी मुसलमान कभी भी किसी मूर्तिपूजक को मुवाहित नहीं कह सकता। इससे प्रमाणित होता है कि कबीर ईश्वरवादी थे, सर्वेश्वरवादी नहीं। बाबू श्यामसुंदर दास से ने कबीर की ब्रह्मवादी माना हैं अद्वैत, भेदाभेद और विशिष्टाद्वैत की स्थिति लक्षित करते हुए कबीर को अद्वैत विचारधारा वाले संतों में प्रमुख स्थान दिया हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार, अद्वैतवाद और सूफीमत में ईश्वर की जो भावना हैं, वही उन्होंने अपने दर्शन में रखी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस क्रम में एक नवीन योगियों के द्वैताद्वैत विलक्षण रामतत्व के रूप में देखा। श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔद्य’ ने कबीर को वैष्णव भक्ति से प्रभावित होते हुए ‘स्वाधीन चिंता का पुरुष’ कहा जबकि वास्तविकता यह हैं कि उनके दर्शन में एक साथ सभी आयामों का समन्वय हैं। वह तो संक्राँति काल के प्रतिनिधि दार्शनिक थे, जिन्होंने अपने दर्शन में युगानुरूप समाधान किए।

कबीर के बाद दूसरी ऐतिहासिक संक्राँति सत्रहवीं शताब्दी में हुई, जबकि भारत में यूरोपियन सभ्यता प्रवेश कर चुकी थी। मुस्लिम सभ्यता का अवसान एवं यूरोपियन सभ्यता का उत्कर्ष इस काल की विशेषता रही। राष्ट्रीय जीवन में एक बार फिर से संक्राँति का दौर आया। राजनीति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना सब कुछ अस्त−व्यस्त होने लगी। विरोधी विचारधाराओं एवं विपरीत सभ्यताओं में तुमुल संघर्ष छिड़ गया। ऐसे में समन्वय-सामंजस्य से कहीं अधिक आवश्यकता भी राष्ट्रीय गौरव को जगाने की, साथ ही जीवन का पथ प्रदर्शित करने की। महाराष्ट्र में जन्मे समर्थ स्वामी रामदास ने अपने समय की इसी दार्शनिक आवश्यकता को पूरा किया।

उसका प्रधान दार्शनिक ग्रंथ दासबोध हैं। दासबोध की एक विशेषता है कि इसमें वेदाँत के सिद्धाँत का निरूपण उस समय की परिस्थिति के अनुरूप किया गया हैं। दासबोध किसी अन्य ग्रंथ का अनुवाद, टीका या आधार पर लिखा हुआ ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि अपने समय के समाज की नैतिक, धार्मिक और राजनीतिक दशा को पूरी तौर से ध्यान में रखकर समर्थ ने यह ग्रंथ बनाया हैं। उपनिषद् गीता आदि संस्कृतग्रंथों के वेदाँत विषयक सिद्धाँतों को उन्होंने प्रमाणभूत अवश्य माना हैं। परंतु प्राचीन सिद्धाँतों का जो विपरीत अर्थ समाज में भर एक विशेषता यह भी हैं कि इसमें दार्शनिकों को उनके सामाजिक कर्त्तव्यों का बोध कराया गया हैं।

समर्थ का दर्शन उनके आध्यात्मिक अनुभवों की देन हैं। वह अपने दार्शनिक चिंतन में यह सत्य स्वीकार करते हैं कि अपने आत्मरूप में सब जन मुक्त हैं, बस माया के भुलावे में आ गए हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘कोणासींच नाही’ बन्धन भ्रान्तिस्तव भूलल जन।’ वह चाहते थे सभी इसी भ्राँति से उबरें। दार्शनिक विचारों से पतनोन्मुखी समाज का उन्नयन करना था। राष्ट्र की निर्बल नसों में नई शक्ति, नई चेतना, नवस्पूर्ति और नवजीवन का संचार करना था। उन्होंने राष्ट्र की जो स्थिति देखी उसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि मौलिक दृष्टि से देश निस्सत्व निर्धन हो गया हैं। अनेक लोग संकटापन्न हैं। अनेकानेक लोग अपने प्रदेशों से निर्वाचित हुए है, अनेक गाँवों में ही मारे गए, शेष अपनी जीवनयात्रा को जैसे-तैसे समाप्त करने के लिए जी रहें है। उनके पास न खाने के लिए अनाज हैं , न ओढ़ने-बिछाने के लिए वस्त्र, न घर बनाने के लिए सामग्री। कई लोग अनाचार से पीड़ित हैं और अनेक जाति धर्म से भ्रष्ट। सारे लोग दुःखी हैं, मानो सारे राष्ट्र में मूर्तिमान उद्विग्नता खड़ी हो गई हो। संक्रमणकालीन समस्याओं से घिरे राष्ट्र को आश्वासन देते हुए उन्होंने कहा-

धीर्धरा धीर्धरा तकपा। हड़बड़े गड़बड़ नका।

काल देखोनि वर्तावे। सोड़ावे मय पोटिंचे॥

धैर्य रखो, धैर्य रखो, देखो घबराओं मत हिम्मत से काम लो। समय को देखकर बरताव करो। मन से सारे भय दूर करो।

इस के साथ उन्होंने दार्शनिकों को उनके राष्ट्रीय एवं मानवीय कर्त्तव्य का बोध कराया और वे स्वयं भी जीवनभर अपने इस कर्त्तव्य के प्रति सन्नद्ध रहें। उन्होंने दार्शनिक इतिहास में शायद पहली बार जोरदार शब्दों में कहा-दार्शनिक होने का अर्थ बौद्धिक भूल-भुलैया में उलझे रहना नहीं है, बल्कि सत्य का दर्शन करके, जनसामान्य के सामने उसे युगानुरूप प्रस्तुत करना हैं। उन्हें यथार्थ बोध कराना हैं। राष्ट्रीय जीवन के सामने ये जो दूसरी ऐतिहासिक संक्राँति आई, इसमें समर्थ स्वामी रामदास एक सच्चे दार्शनिक के रूप में उभरे और अपने युग के प्रतिनिधि दार्शनिक बने।

तीसरी ऐतिहासिक संक्राँति उन्नीसवीं शताब्दी में आई उस समय तक समूचा देश यूरोपीय रंग में रंग चुका था। समूचा राष्ट्रीय जीवन धार्मिक, सामाजिक एवं साँस्कृतिक आदर्शों से च्युत होकर चरम अद्य-पतन की ओर पहुँच रहा था। राजनीतिक पराधीनता से जीवन के सभी क्षेत्रों में पराधीनता व्याप्त हो रही थी। सामाजिक भेदभाव, धर्मांधता, वर्णविद्वेष आदि ने समाज में हर ओर विखंडन और विश्रृंखलता ही थी। इसी के परिणामस्वरूप विभिन्न वर्गों में विद्वेष एवं घृणा का भाव व्याप्त हो रहा था। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक संक्रमण के साथ ही उस युग में बौद्धिक संक्राँति भी व्याप्त हो रही थी। लोग उन दिनों पाश्चात्य विचारों से हतप्रभ हो रहे थे। जीवन के प्रश्नों के हल के लिए धार्मिक-आध्यात्मिक ग्रंथों की आवश्यकता समाप्त सी होने लगी थी। पाश्चात्य शिक्षा अपने साथ नई-नई यूरोपियन विचारधाराएँ लेकर भारत में प्रवेश पा चुकी थीं न्याय, वैशेषिक एवं वेदाँत के स्थान पर अब भारतवर्ष में हालस, रूस व बँक को पढ़ाने का उत्साह था। सभी की रुचि काँट, तयूम एवं हेगल की ओर मुड़ने लगी थी। संक्राँति के इन्हीं पलों में सन् 1836 ई. में श्री रामकृष्ण परमहंस का आविर्भाव हुआ।

उन्होंने संभवतः पहली बार इस सत्य का सार्थक ढंग से उद्घोष किया कि दार्शनिक और आधारित होती हैं। उन्होंने अपने जीवन में समस्त संप्रदायों एवं मतमताँतरों के अंतर्निहित तत्वों की खोजकर उनमें सामंजस्य तथा ऐक्य स्थापित किया। उन्होंने एक ओर अद्वैत, वैष्णव, शाक्त, शैव आदि प्राचीन संप्रदायों की साधना की और दूसरी ओर बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, सिख आदि धर्मों के गूढ़ रहस्यों का अनुभव भी किया। उनके जीवन का प्रधान प्रतिपाद्य विषय था। अभिनव समाज को प्रायोगिक रूप से विभिन्न धर्मानुभावों के मूल ऐक्य पर प्रतिष्ठित करना। यह स्पष्ट करना कि सभी मत एक दूसरे के विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं।

दार्शनिक ज्ञान एवं विवेचना के साथ ही श्रीरामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों को ‘शिव भावे जीव सेवा’ का मर्म भी समझाया। उनके दार्शनिक चिंतन एवं आध्यात्मिक अनुभवों को ही स्वामी विवेकानंद एवं उनके गुरुभाइयों ने अपने कर्म में मूर्त किया। स्वामी विवेकानंद के माध्यम से उनके दार्शनिक चिंतन को आत्मसात कर राष्ट्रीय चेतना में नवस्फूर्ति का संचार हुआ। नवजागरण की वेला शुरू हुई। राष्ट्रीय अवसाद का दूर होना प्रारंभ हुआ। सभी ने इस सत्य को स्वीकार किया कि स्वतंत्रता पूर्व भारत में राष्ट्रीय जागरण का जो महान् कार्य हुआ उसके केंद्र में स्वामी विवेकानंद के माध्यम से व्यक्त होने वाला श्रीरामकृष्ण का दार्शनिक ज्ञान ही सक्रिय रहा हैं। अपने समय की संक्रमण वेला वे सर्वोपरि प्रतिनिधि दार्शनिक थे।

रावण दुर्वचन बोल रहा था, तब तक राम चुपचाप खड़े रहे। विभीषण ने कहा-भगवत्! आए शस्त्रप्रहार क्यों नहीं करते? राम बोल-क्षत्रिय मृतकों पर शस्त्र प्रहार नहीं करते। लेकिन रावण तो जीवित है भगवन्-विभीषण बोल। इस पर राम ने हँसकर उत्तर दिया-आवेशग्रस्त मनुष्य व मृतक मृत्यु के समान ही ज्ञानशून्य हो जाता है।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता के पश्चात् राष्ट्र में एक नई संक्राँति ने जन्म लिया। देश फिर से भ्रष्टाचार व कुरीतियों के पंक में डूबने लगा। अलगाव, आतंक, अस्थिरता और यंत्रीकरण व औद्योगीकरण की प्रगति में छुपी अवगति साफ झलकने लगी। विज्ञान व अंतर्राष्ट्रीय विधान स्वयं की असमर्थता का अहसास करने लगे। ये वर्तमान के वे क्षण हैं, जिनका अहसास और अनुभव हममें से प्रत्येक को हो रहा हैं। समय ने फिर से संक्रांति वेला में समाधान के लिए दार्शनिक स्वरों का आतनान किया। इसी उद्देश्य के लिए 1911 ई. में आचार्य श्रीराम शर्मा का अवतरण हुआ, जो पंद्रह वर्ष की अवस्था से अपनी चौबीस वर्षीय आध्यात्मिक साधना में तत्पर हुए। सन् 1950 ई. में उन्होंने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों को प्राप्त कर अपनी साधना को पूरा किया। इसी के साथ प्रारंभ हुई उनकी विधिवत् दार्शनिक लेखन यात्रा।

महासंक्राँति की वेला में उनका व्यक्तित्व युगबोध के साथ क्राँतिबोध बनकर उभरा। उन्होंने बताया कि अपने युग में अनाचार की गतिविधियाँ पूर्वकाल की अपेक्षा भिन्न हैं इस समय दार्शनिक भ्रष्टता ने जिस दिशा में बहना शुरू किया हैं, वह भूतकालीन दिशा से भिन्न हैं। इसलिए सुधार की प्रक्रिया भी भिन्न होनी चाहिए। उसमें सामयिक विषयों की समीक्षा और निराकरण के सामयिक आधार रहने चाहिए। दार्शनिक जगत् में आचार्य जी इसी की आर्तावस्था, विपन्न मानसिकता को अपने हृदय की धड़कनों में अनुभव किया और पानी रचनात्मक प्रतिभा के बलबूते समाधान की शोध में तत्पर हुए। उनके दार्शनिक विचारों का उद्देश्य बौद्धिक महत्वाकांक्षा से उपजे किसी मत या वाद की महत्ता का प्रतिपादन नहीं हैं, बल्कि जीवनभर किए गए महत्वपूर्ण प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों का जिज्ञासुओं में वितरण हैं। इसी उद्देश्य से उन्होंने विचारक्राँति अभियान व युगनिर्माण आँदोलन की शुरुआत की, जो भारत महादेश के अतिरिक्त विश्व के अन्य देशों में फैल हजारों केंद्रों के माध्यम से सक्रिय हैं।

आज के राष्ट्रीय, वैश्विक एवं मानवीय परिप्रेक्ष्य में दार्शनिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन के बाद संत कबीर, समर्थ रामदास, श्री रामकृष्ण परमहंस एवं आचार्य श्रीराम शर्मा सर्वाधिक समीचीन एवं युगानुरूप लगते हैं। इनके विचारों का गंभीर अध्ययन करने के बाद अंतर्मन में इस तत्व की स्पष्ट आध्यात्मिक एवं दार्शनिक होती हैं कि एक ही महान् आध्यात्मिक एवं दार्शनिक आत्मा ने स्वयं को विशिष्ट राष्ट्रीय, मानवीय एवं दार्शनिक कर्त्तव्य के लिए स्वयं को इन चार रूपों में अभिव्यक्त किया हैं। यदि इन चारों के दार्शनिक विचारों का समन्वय हो सके तो निश्चित रूप से एक सार्वभौम संक्रांति दर्शन का जन्म हो सकेगा, जिसकी उपादेयता एवं उपयोगिता भारत की सीमाओं से परे समूचे विश्व के लिए समान रूप से होगी।

होगी भी क्यों नहीं? अब जबकि इक्कीसवीं सदी अपनी झलक दिखाने लगी हैं। बहुत सी धाराएँ, बहुत से विचार, बहुत से धर्म, बहुत-सी जातियाँ, ज्ञान-विज्ञान की अगणित प्रविधियाँ, शासनतंत्र की बहुत-सौ शैलियां अगलेी सदी में प्रवेश करेंगी। इन सबसे जुड़ी विभूतियों के नाम भी आने वाले समय में लिए जाएंगे। मगर छह शताब्दियां पार कर जाने के

बावजूद जो व्यक्तित्व अपने मूलस्वरूप में सबसे अलग दिख रहा होगा, वह फक्कड़ कवि, निराल संत, अक्खड़ गुरु, अटपटे दार्शनिक, बेबग वक्ता और विद्रोहियों के खरे दोस्त कबीर के सिवा और कौन होगा? उनकी यह अक्खड़ आवाज-”हम वासी उस देश के जहां जाति वरन् कुल नाँहि।” ही तो इक्कीसवीं सदी में सारी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानवीय समुदाय और विश्वराष्ट्र कस भावबोध कराएगी।

इसी तरह से जब अनाचार से लोहा लेने, अत्याचार के विरुद्ध संगठित होने का सवाल उठेगा, तो समर्थ स्वामी रामदास से सार्थक उत्तर भला और कौन दे सकता? बात जब सभी मतों, सभी पक्षों में अंतर्निहित सत्य के खोज की होगी तो श्री रामकृष्ण परमहंस ही अपनी आध्यात्मिक अनुभूति को ‘जतोमत-ततों पथ’ के शब्द दे पाएंगे। उन्हीं के स्वर स्वामी विवेकानंद का भव्य स्वरूप लेकर देवसंस्कृति की पताका विश्व गगन में फहरा सकते हैं अपने अंतिम और चतुर्थ चरण में परमपूज्य आचार्य जी ही कबीर के फक्कड़, अक्खड़पन एवं समर्थ गुरु का प्रबल पौरुष, श्री रामकृष्ण परमहंस की आदिशक्ति जगन्माता की साधना के साथ अवतरित होकर निराश हताश समूचे विश्व को उज्ज्वल भविष्य का संदेश दे सकते हैं। इक्कीसवीं सदी में इन चारों देवपुरुषों के चार ही संदेश होंगे-इनमें से संत कबीर का स्वर होगा-1. साँप्रदायिक सद्भाव समर्थ गुरु की ललकार होगी- 2. संगठित होकर अनाचार का प्रतिरोध। श्री रामकृष्ण परमहंस की पुकार होगी- 3. देवसंस्कृति की दिग्विजय के रूप में देवत्व की विजय एवं वेदमूर्ति तपोनिष्ठ आचार्य श्री की विचारक्राँति के साथ-साथ उद्घोषणा है-सबके लिए सद्बुद्धि सबके लिए उज्ज्वल भविष्य। यही इन चारों देवपुरुषों के समन्वित संक्राँति दर्शन का सार हैं और इनकी ओर से सहस्राब्दी संदेश हैं, जो भारत देश के वासियों को ही नहीं समूची विश्वमानवता को इस महासंक्राँति की वेला में दिया जा रहा हैं।

भिक्षु विनायक को वाचालता की लत पड़ गई थी। जोर-जोर से चिल्लाकर जनपद के लोगों को जमा कर लता और धर्म की लंबी-चौड़ी बातें करता।


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