वसंतपंचमी (1991) का संदेश- मातृवाणी

February 2000

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परमवंदनीया माताजी का वसंतपंचमी (1991) का संदेश

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोल

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

हमारे आत्मीय परिजनो! श्रद्धाँजलि का यह प्रथम वसंतपर्व हैं। पूज्य गुरुदेव की विरह की कसक, पीड़ा एवं दरद हमारे दिल में अत्यंत वेदना उत्पन्न कर रहा है। यह वसंतपर्व हमें अपनी जिम्मेदारियों की याद दिलाता है। यह उनका आध्यात्मिक जन्मदिन है। यों तो आश्विन महीने के कृष्णपक्ष में जो श्राद्धपक्ष आता है, उसमें त्रयोदशी के दिन उनके शरीर का जन्मदिवस आता है। परंतु उन्होंने वसंतपर्व को अपना जन्मदिन माना, क्योंकि इसी दिन उन्होंने गुरुदीक्षा ली थी। गुरुदीक्षा आपने भी ली है। आप से अधिकाँश कलावा तो बँधवाते हैं, एक दो दिन नशा भी रहता है, लेकिन थोड़े दिनों में ही वह सब भूल जाते हैं और जो संकल्प किए थे, वे सब अधूरे रह जाते हैं। तो क्या निष्ठावान के भी संकल्प अधूरे रह जाते हैं? नहीं, उनके संकल्प अधूरे नहीं रहते। अपने अंदर में जो संकल्पशक्ति हैं, वही उसे चलाती रहती हैं।

परमपूज्य गुरुदेव को हम भूला नहीं पा रहे हैं। बार-बार आँखों में आँसू आ जाते हैं, लेकिन जब हम शरीर से हटकर आत्मा से जुड़ते हैं, तो सारा ब्रह्मांड हमें गुरुमय लगता है। प्रत्येक दीन-दुःखी में उन्हीं का स्वरूप दिखाई देता है और कहता है कि क्या इस एक शरीर के लिए ही आँसू बहाते रहेंगे? कुछ और भी नहीं करना है क्या? आँसू उनको कभी भी अच्छे नहीं लगते थे। कई बार ऐसा अवसर आया, जब हम गायत्री तपोभूमि से आए ही थे तो एक माँ का हृदय रोने लगा। माँ की ममता उमड़ आई, तो उन्होंने कहा कि देखो यदि जीवन में आगे बढ़ना है, तो पीछे मुड़कर मत देखना। यदि तुम्हें अभी भी बच्चों कि आपने मुझे बाध्य नहीं किया था, मैं तो स्वयं ही आपके साथ आई थी। जहां आप हैं, वही मैं हूँ।

बेटे! यह भी एक खेल है। वे संकट भी-वे काँटे भी मैंने अपनी झोली में डाल लिए। अपने फर्ज और कर्त्तव्य में मैंने यह माना कि मेरा भगवान मुझे आज्ञा दे रहा है जब सुख होता है, तो व्यक्ति हँसकर झेलता है, परंतु दुःख में रोता है, जबकि यह नहीं होना चाहिए। दुःख में भी फूल की भाँति हँसते हुए रहना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता, तो यह हमारी कमजोरी है मोह है, यदि कमजोरी नहीं है, तो हम उस विशालता को क्यों नहीं देख पा रहे है? हमें चाहिए कि जो विशेषता-जो शक्तिपुंज समस्त विश्वब्रह्मांड में मिल गई, हम उसको देखें और यह मानें कि वह हमारे क्रिया–कलापों को देख रही हैं और परख रही है कि जिन कार्यक्रमों को हम छोड़कर आए थे, उसमें वृद्धि हुई तो आशीर्वाद के पात्र हैं।

आज के इस पुनीत वसंतपर्व के दिन उनके गुरु ने उनके अंदर एक बीज बोया था, जो इतने दिनों में विकसित होकर कल्पवृक्ष बन गया। यह उनका आध्यात्मिक जन्मदिन हैं। उन्होंने अपने गुरु के निर्देशानुसार जीवन जीकर दिखा दिया कि आध्यात्मिक जीवन क्या होता है। आपको याद होगा कि पिछले वर्ष उन्होंने महाकाल के संदेश में अपनी कलम से लिखा था कि मेरे अस्सी वर्ष-अस्सी फूल-ब्रह्मकमल ऐसे खिल कि दूसरों को सुगंध देते हुए पड़े गए। अंत में उन्होंने लिखा कि अब ये फूल मुरझाने जा रहा हैं। अब इस फूल के शारीरिक जीवन का अंतिम समय निकट आता जा रहा हैं। यदि आपको याद न हो तो ‘महाकाल के संदेश’ में पृष्ठ 1-3 तक पढ़ लेना, जिसमें कहा गया है कि “हम युगपरिवर्तन का बीजारोपण करने जा रहे हैं। वह बीजारोपण हो गया हैं, बस उसमें खाद और पानी देने की आवश्यकता है। मैंने वह बीज बो दिया हैं, जो फूलेगा, फलेगा, और पनपेगा। आगामी जीवन में लाखों-करोड़ों व्यक्ति शाँति और संतोष का अनुभव करेंगे। पुण्यकार्यों में अब हमारा शरीर बाधक होता चला जा रहा हैं। हम इस शरीर से निकलना चाह रहे हैं। सूक्ष्मशरीर में जाकर हम करोड़ों गुना अधिक कार्य कर सकेंगे। यदि स्थूलशरीर के लिए हमने ज्यादा सोचा तो जितना हम करना चाहते हैं, वह कर नहीं पाएंगे।”

अभी एक बच्चे ने मुझसे पूछा कि आप तो यहाँ से पड़े जाएँगे, तब इस मिशन का क्या होगा? जो जवाब गुरु जी ने मुझे दिया, वही जवाब मैंने उसे दिया। उन्होंने कहा कि “यह मिशन हजारों-लाखों साल तक चलेगा। दैवीशक्ति हमारे साथ है। हमें इसे पूर्ण करना है। तुम्हारा बस यही कार्य है कि तुम बच्चों को ममता और दुलार देते रहना चाहिए। कहीं ये अज्ञानता के मार्ग पर न जाएँ अगर कहीं वे डगमाने लगें, तो इन्हें एक माँ की तरह बचाना। कहीं ये अपने आपको असहाय न समझ लें। शक्ति तुम्हें मिलती रहेगी। मैंने वायदा किया कि मैं पूरी मुस्तैदी से अपने कार्यक्षेत्र में जमीं रहूँगी। मैं आपकी आज्ञा को संपूर्ण रूप से शिरोधार्य करती हूँ। मेरे लिए तो आप ही भगवान् हैं।

उन्होंने कहा- हमारे मिशन के बारे में किसी भी बच्चे को कोई शंका नहीं होनी चाहिए। किसी भी बच्चे की श्रद्धा एवं निष्ठा में कमी नहीं आनी चाहिए। आगे चलकर उन्होंने अनेक व्याख्याएँ कीं। वे कहते थे कि प्रत्येक वस्तु का अपना एक महत्व होता है। संसार में मानवशरीर सत्कर्मों का माध्यम है, क्यों न इसका लाभ उठाया जाए।

कहते हैं कि नालंदा और तक्षशिला भगवान् बुद्ध ने स्थापित किए थे। उनका क्या उद्देश्य था? उनका उद्देश्य था-भारत और समस्त एशियाई देशों को शिक्षण। गुरु जी का उद्देश्य देवसंस्कृति को मानव−संस्कृति को सारे विश्व में फैलाना था। इसमें कोई शक नहीं है। यह कार्य तो व्यक्ति पर टिका ही नहीं हैं। यदि व्यक्ति पर टिका होता तो उसके साथ ही समाप्त हो गया होता, परंतु यह तो एक अपार शक्ति के इशारे पर पड़े रहा हैं। यदि इस शक्ति को अनुभव कर पाएँ, तो हमारा प्रत्येक बच्चा विवेकानंद हो जाए, हमारी प्रत्येक लड़की निवेदिता हो जाए, परंतु अभी हमने उस शक्ति को समझा नहीं।

बेटे! उन्होंने देवसंस्कृति की स्थापना के लिए शाँतिकुँज की स्थापना की थी। जिस प्रकार बसें चलाने के लिए बसअड्डा होता है, उसी प्रकार देवसंस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए एक जाग्रत स्थान की जरूरत पड़ी। जिस स्थान पर यह शाँतिकुँज बना हुआ हैं, यहाँ सात ऋषियों ने तपस्या की हैं। उससे पहले गुरु जी ने क्या किया था? उसे पहले अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का संकल्प अखण्ड ज्योति में किया था। जब संकल्प होता है, तो साधन का फल करा रहा हैं। गायत्री तपोभूमि इसी का फल हैं। गायत्री तपोभूमि जिन हाथों में सौंपी गई, वह अनेक गुनी बढ़ती गई। इतना बड़ा तंत्र उन्होंने खड़ा किया कि ढेरों बच्चे उसमें विद्या अध्ययन करने लगे। ऐसे ही एक मशीन की जगह ढेरों मशीनें हो गई।

बेटे! गुरु जी जब वहाँ से आए तो उन्होंने कहा कि बड़े लक्ष्य के लिए बड़ी जगह चुननी पड़ेगी। इसके लिए उन्होंने शाँतिकुँज की स्थापना की ताकि यहाँ देवमानवों का परिष्कार किया जा सके। लोग आएँ, चिंतन मनन करें और आग के गोल की भाँति तेजस्वी होकर समस्त विश्व में व्याप्त हो जाएँ। कभी नालंदा विश्वविद्यालय के शिक्षक विद्यार्थियों को तराशा करते थे। गुरु जी ने सार जीवन यही किया। प्रत्येक व्यक्ति को ऊँचा उठाने में उन्होंने अपना समस्त जीवन लगा दिया। कोई भी हमारा परिजन यह नहीं कह सकता कि गुरु जी के पास से हम खाली हाथ बैट आए हैं। गुरु जी ने जिसको भी अपना शिष्य मान लिया, उसकी समस्त कठिनाइयों को अपनी कठिनाई समझकर उसे दूर करने की कोशिश की। पुत्र समान उस पर स्नेहवर्षा की। उन्होंने यह बोध कराया कि सारा विश्व हमारा अपना हैं। हमारे बच्चे ही क्या हमारे अपने हो सकते हैं, दूसरे के नहीं? नहीं, दूसरों के बच्चे भी हमारे अपने बच्चे हैं। हमारे लिए सारा संसार अपना हैं।

एक बार एक लड़के ने मुझसे पूछा कि माता जी हमें गुरु जी का अभाव व्यापता है, तो उसकी पूर्ति माता जी से हो जाती है, परंतु जब आप नहीं रहेंगी, तो किससे होगी? मैंने कहा- बेटे, तुमने हमें मात्र शरीर मान लिया, इससे आगे नहीं सोचा। भगवान् राम, भगवान् कृष्ण, अभी जिंदा हैं। उनको अपने हृदय में धारण करना चाहिए। आप जिस धागे से जुड़े हुए हैं, वह गुरु और शिष्य का मजबूत धागा, है, वह कभी नहीं टूट सकता। वह चाणक्य और चंद्रगुप्त का धागा हैं, जिसमें शिष्य की श्रद्धा और गुरु की जिम्मेदारी होती हैं। गुरु शिष्य को नारकीय जीवन से मुक्ति दिलाकर कल्याण का मार्ग दिखाता है। उसे भगवान् के समीप पहुँचाता है। गुरु अज्ञानता के अंधकार से निकालता है और ज्ञान के प्रकाश में शिष्य को स्नान कराता है। एक कहावत हैं-”पानी पीजै छानकर, गुरु कीजै जानकर।” गुरुतत्व बहुत बड़ा है। गुरुतत्व को हम जीवन में धारण कर लें, तो जैसे हम आज हैं, वैसे नहीं रह सकते। फिर हम ऊँचे कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए ज्योतिस्तंभ का कार्य करेंगे।

आज मैंने आपको संक्षिप्त शब्दों में गुरुतत्व की महत्ता बताई। आज गुरु जी का बोधदिवस हैं। आज उनका जन्मदिवस है। उनके लिए सच्ची श्रद्धाँजलि का स्वरूप क्या हो सकता हैं? मैं समझती हूँ कि भावना और श्रद्धा से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता है। आप संकल्प कीजिए कि हमको आजीवन गुरु जी के पगचिन्हों पर चलना है। गुरु जी ने तो अपना सर्वस्व त्याग दिया था। अपने लिए कुछ रखा ही नहीं। वे गायत्री माता के पुजारी थे, बेटे थे। लोग यह कहा करते थे कि गुरु जी की जितना पर सरस्वती विराजमान् हैं। जो एक बार उन्होंने कह दिया वह सही होता था। यदि वैसा नहीं हुआ, तो जान की बाजी भी लगानी पड़े, तो भी उनके लिए कम थी। उन्होंने इतना साहित्य लिखा कि उनके बराबर भला कोई लिख सकता है क्या? वे संगीत के पुजारी थे, मर्मज्ञ थे। संगीत में पी-एच.डी. करके भी कोई इतनी बारीकियों में नहीं जा सकता, किंतु गुरु जी को संगीत की सभी बारीकियों का ज्ञान था।

आप सभी जानते हैं कि वसंत आने पर पक्षी चहचहाने लगते हैं, नई कोपल फूटने लगती है, पौधों पर फूल विकसित होने लगते हैं। वातावरण में एक अजीब उल्लास छा जाता है। इसी प्रकार गुरु जी का वसंतपर्व के दिन बहुत मस्ती आती थी। वह मस्ती होती थी उनके नए संकल्प की, नए क्रिया–कलापों की और जो कहा हैं, उसे पूरा करके दिखाने की। वह उमंग होती थी कि लोकमंगल के लिए हम अधिक से अधिक क्या कर सकते हैं, यह कर दिखाने की। प्रत्येक वसंतपर्व पर उनके नए-नए कार्य संकल्पित होते हुए पड़े गए। दीपयज्ञों से लेकर गायत्री तपोभूमि बनाने तक अनेकों कार्य संपन्न हुए।

अब हमारी और आपकी बारी है नए निर्धारण करने की और उन्हें पूरा करने की। इन्हीं के आदेश और निर्देशानुसार हमें विद्या–विस्तार का कार्य तेजी से करना चाहिए। अज्ञानता का अंधकार ज्ञान के सूर्य के निकलने से ही दूर होगा। हमारा एक ही लक्ष्य है और वह हैं विद्या–विस्तार का। गुरु जी के विचार प्रत्येक घर में पहुँचाने चाहिए। जिस घर में देवस्थापना होगी, उसी घर में हम पानी पिएँगे, अन्यथा नहीं पिएँगे, हमारा यह संकल्प होना चाहिए। हम प्रज्ञारथ को प्रत्येक जगह भेजना चाहते हैं।

गुरु जी ने कहा है कि आगे के दस वर्ष बड़े भयंकर आएंगे। यह बहुत विनाशकारी समय होगा। आप देख ही रहे हैं? हिंदुस्तान में अपने घर में ही आग लग रही है। इस युगसंधि में होगा यह कि कंकड़, मिट्टी सब छँट जाएंगे और गुणवत्ता रह जाएगी। हमारे अंदर सृजनशक्ति सृजनशीलता है, वह प्रत्येक व्यक्ति को ऊँचा उठाइए। कायर मत बनिए, योद्धा बनिए।

भगवान् हमारा पति है। पति-पत्नि का संबंध जन्म-जन्माँतर का होता है। वह तो आत्मा का आत्मा से संबंध होता हैं। ये हमारा प्रारब्ध है कि कौन आगे जाता है, और कौन पीछे। वे हमसे अलग नहीं हैं। दूध और पानी की तरह हम आपस में घुल हुए हैं। बेटे! हमारे साथ गुरु जी हैं, भगवान् हैं। अर्जुन के साथ यदि भगवान् कृष्ण नहीं होता, तो क्या वे युद्ध जीत पाता? नहीं। उन्होंने धर्म की स्थापना की। जब तक धर्म हैं, अधर्म उसके आगे नहीं टिक सकता हैं। उसे भागना ही पड़ेगा। इस भारतभूमि पर धर्म ही रहेगा, अधर्म नहीं रहेगा। गुरु जी ने एक नए महाभारत की रचना की। उन्होंने कहा हैं कि रामराज्य आकर रहेगा। कृष्ण की तरह से उन्होंने रथ की लगाम को पकड़ रखा हैं और अपने पाँडवों को युद्धक्षेत्र में छोड़ दिया हैं अब पाँडवों की बारी आती हैं कि वे कायर बनेंगे या योद्धा बनेंगे। कायर बनेंगे, तो कृष्ण की तरह से वही चेतावनी देनी पड़ेगी। जब अर्जुन यह कहने लगा था कि ये तो सब मेरे संबंधी है, मैं किससे युद्ध करूं। ये समस्त मेरे परिजन है, मैं इन्हें कैसे मारूं? जब कृष्ण ने कहा था-”अर्जुन तू विवेकशील नहीं हैं। तू जनखों की तरह बात कर रहा हैं।”

जनखा-नपुँसक शब्द कहकर कृष्ण ने अर्जुन की शक्ति को ललकारा, तभी वह कामयाब हुआ। आप लोग पाँडव बनिए। अपने अंदर से दुर्गुणों से युद्ध करिए। समाज की विकृतियों को निवारण सूझ-बूझ से करिए। अपने चरित्र को उज्ज्वल बनाइए। ईमानदारी का जीवनयापन करिए। गाँधी जी बनिए। आपको स्वयं यज्ञमय जीवन जीना चाहिए, साथ ही दूसरों को भी यज्ञमय जीवन जीने की प्रेरणा देनी चाहिए मातम के लिए लगा दिया। वे त्रिकालदर्शी थे। भगवान् उनके कण-कण में निवास करते हैं थे, तभी तो शांतिकुंज में शाँति मिलती हैं।

देवत्व के संदर्भ में मैं आपको एक व्यक्ति सुनना चाहती हूँ। इसे आप कविता मत समझिए, वरन् इसमें जो भावनाएँ हैं, उनको आप अपने अंतर में उतारना। कविता हैं-”अंतर के निर्मल भाव हो तम, भगवान मरा संसार हो तम......। यह कविता गुरु जी की सन् 1940 के बाद की हैं। यह हमें सिखाती हैं कि भगवान के प्रति समर्पित जीवन हीरे की तरह चमकता हैं। भगवान की भक्ति का द्वार सभी के लिए खूब हैं। यह हमारे हृदय की विशालतम पर निर्भर करता है। हमारा यह दृढ़ संकल्प होना चाहिए कि हमें तो भगवान् के आदेशानुसार होना चाहिए हैं। इसी में हमारे और आपके जीवन के सार्थकता है।

आज वसंत के इस पावनपर्व पर गुरु जी और हमारी ओर से आप सभी को आशीर्वाद हैं गुरु जी हमसे-आपसे दूर नहीं हैं। वह हमारे समीप ही हैं। हमको प्रत्येक क्षण उनके निर्देशों का पालन करना हैं। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करती हूँ।

साथ एक साथ भारत भर में भ्रमण करेंगी व लगातार तीन माह चलकर प्रायः 108 चुने गए स्थानों पर छह खंडों में प्रादेशिक स्तर की विराट् दीपयज्ञ पर छह खंडों में प्रादेशिक स्तर की विराट् दीपयज्ञ के साथ पूर्णाहुति संपन्न कर इस चरण को पूरा करेंगी। रथयात्रा सारे भारत के शक्तिपीठों, पावन तीर्थों, देवालयों, विभिन्न धर्मों की प्रसिद्ध पावनस्थलियों को स्पर्श करती हुई चलेगी। इनके साथ-साथ गाँव-ब्लॉक-जिला व क्षेत्रीय इकाई स्तर पर मंथन होते-होते एक समर्थ संगठन के खड़े होने की एवं समर्पित समय व साधन देने वालों के संकल्प एकत्र करने की प्रक्रिया संपन्न हो चुकी होगी। रथयात्रा व क्षेत्रीय संगठन-दीपयज्ञ एक एक साथ चलेंगे। इस तरह इन तीन माहों में विराट् परिमाण में ऊर्जा का उत्पादन होकर गायत्री परिवार अपने शीर्ष तक पहुँच चुका होगा।

ज्ञानयज्ञ की प्रक्रिया साथ चलती रहेगी। बड़ी सरल भाषा में पाँच पुस्तिकाओं का दस रुपये का एक सेट लागत मूल्य पर जन-जन के लिए ‘महापूर्णाहुति साहित्य सेट’ के रूप में 15 मार्च के बाद उपलब्ध होगा। इसे विभिन्न भाषाओं में भी उपलब्ध कराया जाएगा। चतुर्थ चरण आरंभ होने से पूर्व सभी केन्द्रों पर एक साथ गायत्री जयंती 11 जून 2000 को समर्पण दीपयज्ञ संपन्न होगा। नए बनकर खड़े हो चुके इस परिवार की कार्यविधि की रूपरेखा सुस्पष्ट करते हुए प्रतिभाओं को व्यवस्थित संगठन बद्ध करने की प्रक्रिया शहरी क्षेत्रों को जगाने की विधि-व्यवस्था इसके बाद चलते रहेंगे। 13 अक्टूबर शुक्रवार के दिन एक विराट् ज्ञानयज्ञ इस चतुर्थ चरण में नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में आयोजित किया जा रहा हैं। इसमें राष्ट्र व विश्व की शीर्ष प्रतिभाओं सहित देश-विदेश के 75000 प्रतिनिधि भाग लगे। भारतीय संस्कृति के विश्वसंस्कृतिरूपी विस्तार का व्यवस्थित कार्यक्रम सायं 5 से 9 तक होने वाले इस अभिनव आयोजन में घोषित किया जाएगा।

चतुर्थ चरण में ही 7,8,9,10,11 नवंबर को शांतिकुंज हरिद्वार में एक विराट् सहस्रकुंडी यज्ञशाला में संकल्पित प्रतिभाओं द्वारा विशिष्ट समय व साधनदान, साधना संपादन की घोषणा के साथ महापूर्णाहुतिसंपन्न होगी। इसमें आम जनता नहीं, चुने हुए विशिष्ट प्रतिभाशाली ही भाग लेंगे। यज्ञक्षेत्र ऋषिकेश से रुड़की तक गंगा जी के दोनों ओर बनाया जा रहा हैं।

इसी चरण में 15 नवंबर से एक विशिष्ट ‘प्रतिभा नियोजन सत्र श्रृंखला’ पड़े पड़ेगी, जो पाँच दिवसीय होगी एवं प्रायः दो लाख प्रतिभाओं के परिपूर्ण प्रशिक्षण तक जून 2001 तक चलती रहेगी। इसमें दस वर्ष के कार्यक्रम सभी संकल्पित प्रतिभाशीलों को सौंपे जाएँगे। इसी बीच 19 जनवरी 2001 वसंतपंचमी के दिन एवं 2 अप्रैल रामनवमी के दिन सारे भारत व विश्व में एक साथ सतयुग की आरती उतारने के निमित्त सामूहिक दीपयज्ञ व प्रार्थनाएँ पुनः इसी तरह रहेगी।

इस प्रकार यह विराट् महापूर्णाहुति अपने पूर्ण रूप में आने पर एक संक्राँति को जन्म देगी, जिसके प्रवाह में अनौचित्य के मिटाने एवं औचित्य की-न्याय की स्थापना को सभी स्वयं देखेंगे। ऐसे सौभाग्यशाली क्षण इतिहास में कभी-कभी आते हैं। इस महापूर्णाहुति वर्ष में कोई भी साधक स्वयं को किसी-न-किसी निमित्त नियोजित करने से नहीं चूकेगा, ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है।

एक मित्र ने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि “पुस्तक राज्य के लिए लिखी जाती हैं, इसलिए उसमें तल राज्य का जलतम हैं और पूजा मेरी व्यक्तिगत है, इसलिए इसमें निजी तल जबतम हूँ।” सच्चे मन और धर्म से उपार्जित साधनों से संपन्न किए गए सत्कर्म ही फलित होता है।


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