इस संक्राँति नर्प के महानायक

February 2000

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वर्तमान सहस्राब्दी के महानायकों में, जिसके चिंतन से सारी जगती प्रभावित हुई, अनेकानेक नाम विगत 3-4 माह से समाचारपत्रों में देखने को मिल रहे हैं। आइंस्टीन से लेकर कार्लमार्क्स, लेनिन से लेकर रुजवेल्ट तथा महात्मा गाँधी के नाम लिए गए। इन सबमें एक ही नाम निरवाद रूप से उभरकर आया हैं, वह हैं गाँधी जी का, जो महात्मा के रूप में प्रसिद्ध हुए। अहिंसा व सविनय अवज्ञा के माध्यम से एक आँदोलन छेड़ पहले दक्षिणी अफ्रीका एवं बाद में भारतवर्ष था। एक आध्यात्मिक संत राजनीति में सक्रिय हो एक महासाम्राज्य, जिसके राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, के उपनिवेशों को आजाद करने और कराने में सफल रहा, निश्चित ही जिस सहस्राब्दी में पश्चात् संस्कृति का बोलबाला रहा हो, विज्ञान व उपभोगवाद ही चिंतन पर हावी रहा हो, लोग इसे पश्चिमी सभ्यता की सहस्राब्दी ही सिद्ध करने पर तुल हो, एक भारतवासी अधनंगे फकीर द्वारा शिखर पुरुषों की होड़ में शीर्ष स्थान पाना एक गर्व का विषय है।

परंतु शिखरपुरुषों की चर्चा अधूरी हैं, यदि हमारी युगसंक्राँति के तीन वर्षों के तीन नायक कबीर, समर्थ, रामदास, रामकृष्ण, परमहंस के साथ श्री अरविंद, स्वामी विवेकानंद एवं अंतिम महासंक्राँति के महानायक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का नाम उसमें सम्मिलित नहीं किया जाता। जहां पहले तीन महापुरुषों ने महासंक्राँति की आधारशिला रखी, वहाँ स्वामी विवेकानंद एवं योगीराज री अरविंद ने उसे मजबूती प्रदान की। जनसर्वेक्षण, इंटरनेट-पोल क्या कहता है, इससे हम क्यों प्रभावित हो, हमें तो उन विचारों को दृष्टि में रखना हैं जिन्होंने इस सहस्राब्दी की परिवर्तन वेला में सारे विश्व का भाग्योदय कर उसे नवयुग के स्वागत हेतु ला खड़ा किया हैं। यह आने वाली सदी जिन विचारों की शक्ति से प्रभावित मानी जाएगी भविष्य की मनीषा जिनका आकलन करेगी, उनका दिग्दर्शन हम इस महासंक्रांति के महानायक आचार्य श्रीराम शर्मा के रूप में करते हैं, जिन्होंने अपने विराट् अभियान द्वारा सारे विश्व को प्रचंड रूप से आँदोलन किया हैं। आगामी एक दशक में उसका विराट् रूप सभी को देखने को मिलेगा।

एक निष्पक्ष विचारक के रूप में जब भी कोई इस मिशन की, जिसे युगनिर्माण योजना, गायत्री परिवार, युगाँतरकारी चेतना, प्रज्ञा अभियान, अखण्ड ज्योति परिवार जैसे नाम दिए गए हैं, समीक्षा करेगा वह निश्चित ही युगऋषि के विचारों के आलोक में युगपरिवर्तन की प्रक्रिया को साकार होता पाएगा। जहां अनेक आँदोलन आँधी-तूफान की तरह उठते और पानी के बबूल की तरह नष्ट होते देखे जाते हैं, वहीं युगनिर्माण का आँदोलन नित-निरंतर गति पकड़ता ही चला जा रहा हैं। स्थूलशरीर से उनके न रहने पर भी यह आँदोलन कई गुना बढ़ा हैं, क्योंकि यह परोक्षजगत से संचालित हैं, देवी आकाँक्षा के अनुरूप इसका जन्म हुआ हैं। स्वयं पूज्य गुरुदेव जनवरी 1962 की ‘अखण्ड ज्योति’ में लिखते हैं- ‘‘युगनिर्माण की इतनी विशाल योजना, जिसमें जनमानस को उलट-पुलटकर रख देने का हमारा संकल्प हैं, वह आज असंभव जैसी लग सकती हैं, पर हमारा अंतरात्मा बोलता है कि यह सब होने ही वाला हैं।”

युगाँतरकारी चिंतन वाले महापुरुषों के बाल्यकाल के क्रिया–कलाप ही बात देते हैं कि वे किस मिट्टी से बनें हैं। ग्रामोत्थान से राष्ट्रनिर्माण की बातें बीसवें-तीसवें दशक में एक किशोर-श्रीराम मत्त के द्वारा पराधीन भारत में की जा रही थी। बाद में वही चिंतन आचार्य श्री के लेखन में सामाजिक परिवर्तन की चिनगारी के रूप में एवं छोटे से आरंभ होकर विराट् रूप में फैल क्रिया–कलापों में दिखाई देता है। उन दिनों की प्रतिकूल परिस्थितियों में एक विधवा ब्राह्मणी का पुनर्विचार, एक दूसरे धर्म में विवाहित महिला के सामाजिक बहिष्कार से संघर्ष, कर्मकाँडों को परे रख तर्कसम्मत विचारों का प्रस्तुतीकरण, छोटी कहीं जाने वाली जातियों में जाकर उनकी ममत्व भरी सेवा, स्वावलंबन हेतु रोजगार के विकल्प ग्रामोद्योग के रूप में एवं हॉटों में जाकर स्वच्छता विस्तार से लेकर भारत की आजादी का संदेश हैंडबिल से वितरित करने वाले युवा श्रीराम ‘मत्त’ के जीवनवृत्त से ही हम एक ऐसी झलक पाते हैं, जो उनके क्राँतिधर्मी लेखन का आधार बनी।

स्वतंत्रता संग्राम में बिना नाम की कामना के जुटे एक स्वयंसेवी सैनिक के माध्यम से जब कठोर तपश्चर्या भी की जाती हैं- अपनी गुरुसत्ता के निर्देश पर एक अखण्ड घृतदीप जब चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण किए जाते हैं, एक क्राँति की आग लगाने वाली आत्मशोधन व आत्मोत्थान से समाज व राष्ट्रनिर्माण की बात कहने वाली अखण्ड ज्योति पत्रिका आरंभ की जाती हैं, सारा सुख−वैभव एक कोने पर रखकर मात्र समाज के उद्धार हेतु एवं जन-जन में सतयुगी उल्लास बिखेरने का संदेश पहुँचता दिखाई देता है, तो विश्वास सुदृढ़ होने लगता है। आचार्य शकर ही विद्वता, महात्मा बुद्ध की करुणा, कबीर-सा फक्कड़पन, ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस-सी विद्या–विस्तार की योजना एवं विवेकानंद-सा योद्धा संन्यासी हमें समन्वित रूप से आचार्य श्री में देखने को मिलता है।

गायत्री को जन-जन के लिए सुलभ बना एक प्रकार से सारी विश्व को इस अमृतरस रसायन द्वारा अनगढ़ से सुगढ़ बनाने की योजना विश्वमित्र जैसे ब्रह्मर्षि की नूतनसृष्टि के निर्माण की कल्पना से अलग नहीं, उसी का आधुनिक संस्करण हैं। समग्र आर्ष वाङ्मय बहुत सस्ते मूल्य पर सरल भाषा में हर में हर धर्मप्रेमी जिज्ञासु के लिए सुलभ बनाना उनकी इस विषय में गहराई ही नहीं-वैदिक संस्कृति के पुनरुद्धार हेतु संकल्पित एक अवतारी चेतना का प्रतीक भी हैं। ‘सुनसान के सहचर’ एवं हमारी वसीयत और विरासी सहित क्राँतिकारी साहित्य जहां उनकी लेखनी के कायल हो जाने हेतु विवश कर देता है तो ‘वैज्ञानिक अध्यात्मवाद’ रूपी दर्शन की धुरी पर सभी के लिए इक्कीसवीं सदी में एक मानवधर्म का पालन करने की प्रेरणा भी देता है। शाँतिकुँज-ब्रह्मवर्चस्-गायत्री तपोभूमि, अखण्ड ज्योति संस्थान, युगतीर्थ आँवलखेड़ा सहित प्रायः साढ़े पाँच हजार से भी अधिक जनजाग्रति केंद्रों का निर्माण एक ऐसा पुरुषार्थ हैं, जिसका कोई मुकाबला नहीं। देश ही नहीं विदेश के गाँव-गाँव में गायत्री यज्ञ संस्कार की त्रिवेणी पहुँचाना, छोटे-छोटे दीपयज्ञों से लेकर एक पाँच कुँडी गायत्री-यज्ञों, शतकुँडी, सहस्र-कुँडी महायज्ञों, संस्कार महोत्सवों से लेकर आश्वमेधिक धर्मानुष्ठानों द्वारा धर्मधारणा का विस्तार एक युगनायक को आदर्शों के हिमालय पर पहुँचा देता है। 3200 छोटी-बड़ी किताबों का लेखन कर की दिशा में अग्रगामी बनाना हिंदी जगत् व प्रादेशिक स्तर की सभी भाषाओं के स्तर पर एक अकल्पनीय पराक्रम हैं।

एक अभिनव स्तर के प्रत्यक्षवाद के स्तर पर प्रमाणित करने वाली प्रयोगशाला की स्थापना, मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य हेतु योगसाधनाओं, मंत्रविज्ञान, वनौषधि विज्ञान की प्रामाणिकता ठहराने का प्रयास उनको एक उच्चस्तरीय वैज्ञानिक घोषित करता है, तो प्रज्ञापुराण ग्रंथ उनके एक द्रष्टा स्तर के मनीषी होने का द्योतक बन जाता है। उज्ज्वल भविष्य के प्रवक्ता आचार्य श्री अपने जीवन के प्रारंभ काल से ही 1942, जब उनकी ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका मात्र पाँच वर्ष की आयु की थी, सतयुग की वापसी की घोषणा करते हैं-वैसे समाज का निर्माण ही नहीं करते, अपितु अपने अथक् पुरुषार्थ से अपने पाँच करोड़ से अधिक की जनमेदिनी भी आदर्शों के मोरचे पर खड़ी कर देते हैं। इस लाख से अधिक समय-साधन समाज के निमित्त देने वाले युगसैनिकों का निर्माण एवं उनके माध्यम से दो करोड़ प्रतिभाओं का परिष्कार कर उन्हें नवसृजन में झोंक देना किसी को एक कागजी योजना लग सकता है, जब यह समष्टि स्तर पर गतिशील हो, तो लगता है, पर जब सहस्राब्दी के युगनायक द्वारा वस्तुतः एक अभूतपूर्व पुरुषार्थ संपन्न हुआ हैं।

1962 में जब सारा भारत अष्टग्रही योग की विभीषिकाओं से भयभी तथा, आचार्य श्री ने संदेश दिया कि “यह योग विकास का संदेश लेकर आया है। युगपरिवर्तन मात्र एक कलपना नहीं, समय की प्रेरणा हैं। इसके बिना न व्यक्ति का कल्याण, न विश्व का उद्धार संभव हैं। यह योग धार्मिकता, आस्तिकता विस्तार व मानवता का संदेश लेकर आया हैं।” (अखण्ड ज्योति मार्च 1962 पृष्ठ 37) उसी समय युगनिर्माण सत्संकल्प के रूप में नवयुग के संविधान की घोषणा की गई। चीन युद्ध से जूझ रहे राष्ट्र को युगधर्म का आभास कराते हुए उन्होंने अनेकानेक प्रमाणों के माध्यम से जन-जन के मन में उज्ज्वल भविष्य के प्रति उल्लास का संचार किया। विचारों की शक्ति से सामाजिक स्तर पर एक बहुत बड़ी क्राँति आरंभ कर ‘ज्ञानयज्ञ’ नाम देते हुए पूरे समाज राष्ट्र को उसका याजक बना देना एक ऐसा कार्य हैं, जिसका आकलन संभवत नई सहस्राब्दी में मनीषी ही करेंगे। यह महासंक्राँति पर्व आया ही ऐसी वेला में हैं, जब अरुणोदय निकट हैं, नवयुग का सूर्य उदय होने ही वाला हैं, ऊषाकाल के प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्योदय की घड़ियाँ बस अंतिम स्थिति में गिनी ही जा रही हैं। ऐसे में जब हम नई ईस्वी-संवत्सर की इक्कीसवीं सदी के मध्यकाल को पारकर हम सं. 2057-2058 में प्रवेश कर रहे हैं, इस महासंक्राँति के महानायक आचार्य श्रीराम शर्मा जी के पुरुषार्थ को ही स्मरण नहीं कर रहे, उनके द्वारा घोषित सतयुग की अगवानी भी प्रस्तुत महापूर्णाहुति वर्ष आगामी हीरक जयंती (अखण्ड दीपक) वर्ष के माध्यम से करने जा रहे हैं। कौन होंगे हम से अधिक सौभाग्यशाली, जो इन क्षणों के साक्षी बनेंगे?


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