‘समर्थ’ के आविर्भाव से उपजा संगठन का संकल्प

February 2000

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संगठन’ के महामंत्र ने संक्राँति के दूसरे पर्व पर अपनी महाशक्ति प्रकट की। समर्थ की अद्भुत सामर्थ्य को स्रोत उनकी कठोर तप−साधना थी। लोकमंगल की साध एवं उत्कट ईश्वरप्रेम ने उन्हें तपस्वी बनाया था। बारह वर्ष की आयु में विवाहवेदी छोड़कर उठे नारायण पंचवटी के पास गोदावरी के तट पर टाकली गाँव में तपोलीन हो गए। उनकी एकनिष्ठा एवं कठोर तपस्या की कहानियाँ-किंवदंतियाँ गाँव में फैल गई। यह तपस्या बारह वर्षों तक अनवरत चली। इसके बाद राष्ट्रीय जीवन की दशा जानने के लिए उन्होंने कन्याकुमारी से हिमालय तक की यात्राएँ कीं पूर्व में जगन्नाथपुरी एवं पश्चिम में द्वारका पैदल गए। अपनी इन पदयात्राओं में उन्होंने गाँव देखे, समूचा लोकजीवन ही उन्हें क्षत-विक्षत नजर आया।

अपनी इन यात्राओं में उन्होंने जो अनुभव पाए, उसे अपनी चौदह पद्यों की कविता में कुछ इस तरह लिखा- “लोग शासन के अत्याचारों से दुःखी हैं। बहुत लोग भूखों मर रहें हैं। जीवन और संपत्ति खतरे में हैं। जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराया जाता है। लाशों के ढेरों की कोई परवाह नहीं करता। जिन्दा आदमियों के पास तन ढँकने का कपड़ा तक नहीं हैं।” इस हालत को देखकर उनका हृदय कराह उठा। उनके तपस्वी मन में निश्चय के यही स्वर उभरे कि जनशक्ति ही संगठित होकर अत्याचारी शासकों के प्रबल सैन्यबल को कड़ी टक्कर दे सकती हैं। प्रबल और प्रचंड पुरुषार्थ में उनका विश्वास था। धर्म के नाम पर कायरता और पलायनवाद उन्हें पसंद न था।

“निसिचर हीन करौ महि भुज उठाहि प्रन कीन्ह” का उद्घोष करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम प्रबल पराक्रमी श्री राम उनका आदर्श थे। “ राम काजु कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम” के व्रती महावीर हनुमान का वज्रसंकल्प ही उनका संकल्प था। इस महासंकल्प से संकल्पवान् समर्थ गुरु ने 1648 ई. में चाफल गाँव-गाँव घूमते, कीर्तन करते, संगठन का संदेश देते। इस क्रम में उन्होंने 1100 मठ स्थापित किए, जिनमें से 42 अभी भी मौजूद हैं। इसी बीच उन्होंने जनता में जाग्रति लाने के लिए मराठी में मनाचे श्बेक, करुणाष्टेक और दासबोध लिखा। यह दासबोध ही उनका प्रधान ग्रंथ हैं। इसके बीस अध्यायों में धर्मदास एवं नीति का विशद् विवेचन हैं। संस्कृत में उन्होंने अभंग शतक एवं पंचक आदि लिखे।

समर्थ गुरु ने अपने संगठित संघर्ष के अभियान में अपने असंख्य शिष्यों को दीक्षित की किया। उसमें शिवाजी महाराज भी एक थे। शिवाजी की गुरु-भक्ति एवं समर्थ-शिवा की जोड़ी गुरु-शिष्य संबंधों का आदर्श बन गई। शिवाजी महाराज अपने समर्थ सद्गुरु के प्रति कितने अधिक श्रद्धावान् थे, इसका प्रकट प्रमाण उन्हीं पत्र में उन्होंने लिखा-

श्री रघुपति श्री मारुति! श्री स्वामी गुरुवार।

मैं आपके चरणों की धूल शिवाजी आपको नमस्कार करता हूँ। परमश्रद्धेय अपने मुझे राज्य और धर्म स्थापित करने, ब्राह्मणों और देवताओं की पूजा करने और जनता की रक्षा करने, उनके दुखों को दूर करने का आदेश दिया। आपने मुझे चरमतत्व की खोज का उपदेश दिया और विश्वास दिलाया कि श्री रामकृपा से मुझे हर कार्य में सिद्ध मिलेगी। अतः मुझे हर कार्य में दुष्टों के दलन में, संपत्ति-समृद्धि प्राप्त करने में और कठिन दुर्गों के निर्माण में आपके चरणों में अर्पित किया और आपकी सबसे बड़ी सेवा यह है कि मैं ठीक तरह से अपने कर्त्तव्यों का पालन करूं...। आपकी कृपा से ही यह सब संभव हो पा रहा हैं।

कतिपय लोग समर्थ गुरु रामदास एवं शिवाजी महाराज के संबंधों को काल्पनिक मानते हैं, परंतु इस मान्यता के पीछे उनके इतिहास संबंधी विशद् ज्ञान का अभाव ही है। डॉ. बुद्ध प्रकाश डी.लिट्. जो भारतीय विधा संस्थान के निदेशक रहे हैं, उन्होंने अपने ग्रंथ ‘भारतीय धर्म एवं संस्कृति’ में इन संबंधों की भावनात्मक गहराई को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में स्वीकारा हैं। इसके अलावा रणजीत देसाई जैसे अन्य अनेकों विज्ञजनों की कृतियाँ इस ऐतिहासिक सत्य और तथ्य का प्रमाण हैं। यह सुनिश्चित एवं असंदिग्ध सत्य हैं कि शिवाजी का व्यक्तित्व अपने समर्थ सद्गुरु की तप−साधना से ओत–प्रोत था। समर्थ की यह ललकार-

धर्मासाठीं मरावें, अवध्याँसि मारावें। मरताँ मरताँ ध्यावे, राज्य आपुल ॥

धर्म के लिए मरो, मरते हुए भी सब शत्रुओं को मारो, मर-मरकर अपना राज्य लो। उनके परमशिष्य शिवाजी में गूँजी थी।

संगठन ही समर्थ गुरु का नारा था। यही उनका महामंत्र था। एक स्थान पर वह कहते हैं-

बहुत बेक मेल वावे एक विचारें भरायें कष्टें करुन धसरावें। म्लच्छाँवरी।

बहुत लोगों को मिलाओ, उनमें एक विचार भरो पूरी कोशिश करके म्लच्छों पर टूट पड़ो।

समर्थ के इन स्वरों ने मराठों में अपूर्व प्राण भरे। मराठा साम्राज्य कायम हुआ। औरंगजेब के अत्याचार की चूल हिलने लगीं। वह काँप उठा। शिवा के व्यक्तित्व को समर्थ ने अपनी तपशक्ति से कुछ ऐसा गढ़ा कि प्रख्यात इतिहासवेत्ता भी उनके बारे में यह लिखने पर विवश हुए-”एक व्यक्ति का प्रचंड पुरुषार्थ इस संसार में क्या कुछ कर सकता है, यह शिवाजी के जीवन से स्पष्ट होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि शिवाजी प्रतिभा के दैवीय वरदान से युक्त थे, जो विश्लेषकों की बुद्धि को चकरा देती हैं।” शिवाजी की मृत्यु पर उनके सबसे प्रबल शत्रु औरंगजेब ने जो कहा वह कम उल्लेखनीय नहीं हैं। डॉ. जदूनाथ सरकार ने अपने ग्रंथ में औरंगजेब के इन शब्दों को यथावत् प्रस्तुत किया है- “वह एक महान् सेनानायक था और एकमात्र उसमें एक नए राज्य को खड़ा करने का दमखम था। जबकि मैं भारत की पुरातन सत्ता को नष्ट करने पर उतारू हूँ। मेरी सेनाएँ उसके विरुद्ध 19 वर्षों से जुटी हुई हैं और उसका राज्य बढ़ता ही जा रहा हैं।” इन ऐतिहासिक तथ्यों को इतिहासवेत्ता वर्नियर सहित खारिक खान, ग्राँट डफ एल्फिस्टोन, टेंपल, एर्क्वथ, डलल. एस. एम. एडवर्ड्स आदि अन्य इतिहासवादी ने भी स्वीकार हैं।

समर्थ सद्गुरु के इस अनुकरणीय उदाहरण से अन्य तपस्वीजनों ने भी साधना के बिखरे सुरों को लय दी। इनमें सिखों के दशम गुय गोविंद सिंह सबसे अग्रणी रहे। उन्होंने भी अत्याचार के खिलाफ जंग छेड़ते हुए ऐलान किया-सवा लाख तें एक लड़ाऊँ, चिड़ियन ते में बाज तुडाऊँ, तब गोविन्दसिंह नाम कहाऊँ। और हुआ भी ऐसा ही। उनके परमशिष्य बंदावैरागी आक्राँतियों के लिए कहर बन गए इसी तरह बुँदेलखंड में बावा प्राणनाथ ने बुँदेब राजा छत्रसाल में प्राण भरें। वे भी इस युगसंघर्ष के लिए उठ खड़े हुए। इस क्रम में जाटों के सरदार गोकुल और राजपूत शिरोमणि राणा राजसिंह भी पीछे न रहे। यह सब संगठन की शक्ति का चमत्कार था, जो समर्थ की तपशक्ति से उत्पन्न हुआ था, परंतु उचित एवं योग्य उत्तराधिकारियों के अभाव में यह स्थिर न रह सका। 14

मुझे उस क्षण का भान नहीं जब पहली बार उस जीवन की देहली पर पैर रखा। वह कौन-सी शक्ति थी जिसने मुझे वन आधी रात में खिलाने वाली करी की तरह खिला दिया। प्रभात में जब मैंने उस आलोक पर दृष्टि डाली तो देखा-विश्व में मैं अजनबी नहीं हूँ। अनाम रूप अज्ञेय माँ मुझे अपने अंक में समेटे हुए हैं।

अब तो मुझे पूरा भरोसा हैं, जो जीवन की पहली किरण के साथ मेरा चिरपरिचित अज्ञेय मृत्यु के समय भी मेरे साथ होगा। अतः अब मृत्यु का मुझे कोई भय नहीं वह तो मुझे नवजीवन तक ले जाने वाली संगिनी-मार्गदर्शिका होगी। रविंद्रनाथ ठाकुर

अप्रैल 1680 में शिवाजी महाराज नहीं रहे। इसके एक ही वर्ष बाद समर्थ स्वामी ने भी अपना शरीर छोड़ दिया। 3 मार्च 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हुई। इसके बाद 1713 से 1719 तक फरुखसियर का शासन रहा। में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया और भयंकर लूटपाट की। 1731 में हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमदशाह अलदाली ने मराठों को पराजित कर दिया इसके बाद अँगरेजों की कुटिल चालों का युग आने लगा। इन कुटिल चालों में फँसकर देशवासी संगठित न रह सके और भारतमाता बंदिनी होने लगी।


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