जनमानस का परिष्कार करने की महती आवश्यकता को पूरा करने में जिनका मन उपयुक्त भूमिका निबाहने के लिए हुलसित हो, उन्हें प्रयास का आरंभ अपने आप से करना होगा। दूसरों से कुछ करने के लिए कहा जाए तो यह आवश्यक नहीं कि वह परामर्श को मान ही ले और मार्गदर्शन के अनुरूप अपनी गतिविधियों को मोड़ ही ले, किंतु उस अनुशासन का परिपालन अपने आप के लिए, हर मनस्वी के लिए तो सहज संभव हो सकता है। अपने ऊपर तो अपना अधिकार पूरी तरह हैं हैं, फिर उसमें अवज्ञा का प्रश्न सामने आ ही नहीं सकेगा। अपने को सुधार लिया जाए तो अन्यायों को उसका अनुसरण करने के लिए प्रस्तुत वातावरण ही दबाने-दबोचने में पूरी तरह समर्थ हो सकता है। साँचे में ढलकर ही खिलौने और पुरजे बड़ी संख्या में ढलते-विनिर्मित होते चल जाते हैं। दूसरों को उपदेश देकर उन्हें इच्छित दिशा में चलाया जा सका होता तो अब तक न जाने कब की सारी दुनिया सुधर गई होती।