हिमालय तप हेतु प्रस्थान करने वाले थे। उन्होंने फरवरी 1971 की अखण्ड ज्योति में लिखा-”अखण्ड ज्योति दीपक चौबीस महापुरश्चरणों की समाप्ति के बाद प्राणों से प्रिय बन गया। इसे आजीवन चाल रखा जाएगा। अखण्ड दीपक अखण्ड यज्ञ का ही स्वरूप हैं। धूपबत्तियों को जलाने, हवन सामग्री की, अखण्ड जप-मंत्रोच्चारण की दीपक घी होमे जाने की आवश्यकता पूरी करता हैं-ऐसा हमें लगा। इस तरह अखण्ड हवन की स्वसंचित प्रक्रिया बन जाती हैं। ‘अखण्ड ज्योति’ नाम इसी पर रखा गया। यही अखण्ड दीपक अब आगे माता जी सुरक्षित रखेंगी। हम 20 जून को मथुरा छोड़ देंगे। माता जी भी साथ ही भी साथ ही पड़े पड़ेंगी। हम दोनों हरिद्वार तक साथ रहेंगे। उसके बाद 10 दिन माता जी व्यवस्था शाँतिकुँज में बनाकर अपने गंतव्य स्थान को प्रयास कर देंगे।” (फरवरी, मार्च, अप्रैल, मई, 1971 ‘अपनों से अपनी बात’ अखण्ड ज्योति)।