इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री-शाँतिकुँज

February 2000

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शाँतिकुँज को युगऋषि ने इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री नवयुग का सृजनकेंद्र, महाकाल का घोंसला कहा हैं। 1923 से प्रज्वलित अखण्ड घृतदीप यों पहले आँवलखेड़ा, बाद में आगरा (फ्रीगंज) फिर अखण्ड ज्योति संस्थान मथुरा रहा एवं फिर 20 जून 1971 से यह शाँतिकुँज में प्रज्वलित हैं। इस अखण्ड दीप के साथ मिशन की कीर्तिमान स्थापित करने वाली महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ जुड़ी हैं। इसी के संरक्षण में अभिनव संकल्प लिए गए, जो पूरे होते पड़े गए।

1967-68 में ही विश्वामित्र ऋषि की तपःस्थली का सप्तसरोवर क्षेत्र में भविष्य के शाँतिकुँज के रूप में चयन हो चुका था। द्रष्टा स्तर की गुरुसत्ता ने मार्च 1962 की अखण्ड ज्योति पत्रिका में पहले ही लिख दिया कि भावी सवा नौ वर्षों का कार्यक्रम क्या होगा। आयुष्य के 60 वर्ष पूरा होते ही मथुरा से सदा के लिए प्रयाण कर हिमालय की गोद में जा बैठने का निर्धारण वे तभी कर चुके थे जब सप्तर्षि आश्रम के नजदीक शाँतिकुँज के लिए भूमि का चयन हो रहा था, उन दिनों पूज्य गुरुदेव अपनी नित्य की साधना, हजारों से मिलना, समस्याओं का समाधान करना, देशभर में दौरे लगाने के अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण चिंतन में निमग्न थे। वह था 1967 में घोषित महाकाल की युगप्रत्यावर्तन प्रक्रिया, इसके लिए महामानवों की तलाश एवं देव-परिवार बसाने के लिए एक टकसाल विनिर्मित करने के लिए एक सिद्धपीठ का निर्माण।

ज्न 1967 ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका में आठ पृष्ठ का लख प्रकाशित हुआ- ‘महाकाल और उसका युग प्रत्यावर्तन।’ लगभग पाँच वर्ष पूर्व घोषित ‘युगनिर्माण सत्संकल्प’ के बाद पुनः यह एक क्राँतिकारी घोषणा थी। ‘महाकाली’ की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा कि “बोलचाल की भाषा में इसे ‘महाक्राँति’ भी कह सकते हैं। यह विवेकशील देव आत्माओं के सहयोग से ही संभव होती हैं।” इसी के साथ उन्होंने युगपरिवर्तन की भूमिका संपन्न करने वाले चार खंड अवतारों की भी चर्चा की। प्रथम श्री रामकृष्ण परमहंस व स्वामी विवेकानंद के अवतरण के रूप में, जिनकी चर्चा हमने संक्राँति के तृतीयपर्व में की थी। दूसरा अवतरण महायोगी अरविंद के रूप में-उनके तप की उष्मा ने किस तरह सूक्ष्म वातावरण को गरम किया, यह समझाया गया। तीसरा व्यक्तियों के अवतरण के रूप में बताया गया। यह लिखा गया कि लगभग तीस वर्ष की कठिन अवधि के बाद यह प्रकल होगा एवं पैंतीस वर्ष में अपनी पूर्ण कलाओं के रूप में प्रत्यक्ष दिखने लगेगा। परमपूज्य गुरुदेव ने यह भी खा कि “कोई भी व्यक्ति जन्मजात रूप से देवदूत नहीं होता। महाकाल और महाकाली उसे किसी विशेष अवसर पर अपना वाहन बनाते हैं और देहधारी के माध्यम से वे सूक्ष्मसत्ताएँ अपना काम करती हैं।” (पृष्ठ 23, अखण्ड ज्योति जून 1967) इस अंक के 4 महा बाद अक्टूबर 67 में एक विशेषाँक प्रकाशित हुआ जो पूरी तरह से महाकाल की युगप्रत्यावर्तन प्रक्रिया पर केंद्रित था। भावी विभीषिकाएँ और उनका प्रयोजन महाकाल और उनका रौद्ररूप, त्रिपुरारी महाकाल शिव का तृतीय नेत्रोन्मीलन, दशमावतार जैसे शीर्षकों से सज्जित इस अंक को एक विशिष्ट सामग्री के साथ संपादित कर एक पुस्तक में एक लख हैं-’अपना परिवार उच्च आत्माओं का भाँडागार।’ इसी में उन्होंने मध्यावतार व अंशावतार की व्याख्या की थी वह कहा कि हमें इन उच्चस्तरीय आत्माओं के माध्यम से युगपरिवर्तन के विराट् प्रयोजन को पूरा कराना हैं।

इस भूमिका की ‘इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री’ के विवरण के परिप्रेक्ष्य में इसलिए बताया जा रहा हैं कि यही से शाँतिकुँज वस्तुतः क्राँतिकुँज था, जहां से नवयुग के निर्माण का न केवल दिग्दर्शन होना था, जहां से नवयुग निर्माण का न केवल दिग्दर्शन होना था, उन सभी इन ऋषिकाल में सतयुगी व्यवस्था का मूल आधार बनी थीं। इन ऋषि परंपराओं का बीजारोपण एक ऐसे ही तीर्थ के समन्वित संस्करण की स्थापना करने का विचार उनके मन में था, जो कालांतर में शाँतिकुँज की स्थापना के रूप में पुष्पित-पल्लवित हुआ। उन्होंने लिखा कि “युगपरिवर्तन ऐसे अवसर पर आया हैं, जिसमें अनादिकाल से लेकर अब तक की प्रायः सभी साधारण स्थिति में हैं पर अगले ही दिनों उनको असाधारण बनते देर नहीं लगेगी। यह सब महाकाल का युग प्रत्यावर्तन जैसी ही अद्भुत घटना होगी।” (पृष्ठ 38 अक्टूबर 1937 अखण्ड ज्योति)

1971 की बसंत तक प्रारंभिक निर्माणकार्य संपन्न हो चुका था। इसी वर्ष इस एक विदाई सम्मेलन में परमपूज्य गुरुदेव 16 से 20 जून की अवधि में अपना मथुरा का संदेश देकर

1971 से 1972 जून तक की अवधि में गुरुसत्ता द्वारा हिमालय में कठोर तप किया गया। अपने सूक्ष्मशरीरधारी प्रायः 650 वर्ष के गुरुदेव के मार्गदर्शन वे वापस शाँतिकुँज आए। ‘अपनी वसीयत और विरासत’ के माध्यम से लिखी गई जीवनी प्रधान पुस्तक में उन्होंने लिखा “हमारे गुरुदेव ने कहा-हरिद्वार आश्रम को गायत्रीतीर्थ के रूप में विकसित करना होगा और उन प्रवृत्तियों को आरंभ करना होगा, जिन्हें पूर्वकाल में ऋषि करते रहे हैं। वे परंपराएँ लुप्तप्राय हो जाने से उन्हें अब जीवन प्रदान करने की आवश्यकता होगी।” इस कार्य के लिए प्राणवान् कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। अपने तप की एक प्रखर चिनगारी सुसंस्कृति आत्माओं को देकर प्राण-प्रत्यावर्तन द्वारा उन्होंने श्रृंखला आरंभ की, जो बाद में विभिन्न रूपों में उनके महाप्रयाण तक चलती रही।

देवमानवों को बसाने हेतु गायत्री नगर का निर्माण, नारी जागरण अभियान को गति तथा विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय हेतु-ब्रह्मवर्चस् शोधसंस्थान की स्थापना हिमालय से लौटकर की गई। गायत्री नगर शाँतिकुँज का ही विस्तार हैं, जिसमें चरक परंपरा अंतर्गत आयुर्वेद के पुनर्जीवन की प्रक्रिया, व्यास-परंपरा में युगसाहित्य के साथ चार खण्डों में प्रज्ञापुराण की रचना, नारद परंपरा में संगीत के माध्यम से जन-जन का लोकरंजन से लोकमंगल हेतु प्रशिक्षण, पतंजलि-परंपरा में प्रज्ञायोग से लेकर संजीवनी साधना सत्रों की श्रृंखला तथा विश्वामित्र परंपरा में सिद्धपीठ के रूप में गायत्रीतीर्थ की स्थापना कर संजीवनी विद्या का शिक्षण व नवयुग की पृष्ठभूमि का निर्माण यहाँ की कुछ महत्वपूर्ण स्थापनाएँ बनीं। कणाद परंपरा के अंतर्गत वैज्ञानिक अध्यात्मवाद पर शोध, पिप्पलाद-परंपरा में संस्कारी आहार से कल्पसाधना, सूत-शौनक परंपरा में रामचरितमानस, गीत कथा, प्रज्ञापुराण कथा द्वारा ज्ञानयज्ञ, आद्य, शंकर की परंपरा में चौबीस सौ गायत्री शक्तिपीठों व पाँच प्रमुख केंद्रों की स्थापना तथा बुद्ध-परंपरा के अंतर्गत परिव्राजकों का निर्माण, नालंदा, तक्षशिला विश्वविद्यालय स्तर का युगतीर्थ का विकास कुछ ऐसी भागीरथी संकल्पनाएँ हैं, जो इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री शाँतिकुँज में 1971 से 2000 तक अवधि में पूरी हो गति पकड़ चुकी हैं।

शाँतिकुँज स्थान का नहीं, भवन का नहीं, इस भूलोक के प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष का नाम हैं। प्रखरप्रज्ञा व सजलश्रद्धा के युग्म ने इसे खाद-पानी व गरमी देकर बड़ा किया है। यहाँ के नौ–दिवसीय संजीवनी साधनासत्र, व्यक्तित्व परिष्कार सत्र, एक मास से युगशिल्पी सत्रों में जो गलाई-ढलाई होती हैं, उससे महामानवों की टकसाल के रूप में इसके बनने की भविष्यवाणी सही लगती हैं। पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी सशरीर भले ही यहाँ न हों, पर उन्हीं के आश्वासन के अनुसार शाँतिकुँज के कण-कण में उनकी चेतना का वास हैं। दृश्यमान प्रतीक के रूप में उनकी चेतना विद्यमान हैं। यहाँ आने वाला परिजन अनुभव करता व कण-कण में उस शक्ति का साक्षात्कार कर आनंद से सराबोर हो वापस लौटता है।

भविष्य का संसार कैसा होगा-नवयुग परिष्कृत मनःस्थिति के रूप किस प्रकार आएगा-एक मानव धर्म के रूप में विज्ञानसम्मत अध्यात्म की जन-जन के मनों में स्थापना कैसे होने जा रही हैं, भारतीय संस्कृति कैसे विश्व-संस्कृति का रूप लगी एवं किस तरह यह मार्गदर्शन हिमालय की छाया एवं गंगा की गोद में अवस्थित इस शक्तिकेंद्र से दिया जाएगा, इसे इस वर्ष के महापूर्णाहुति कार्यक्रमों के माध्यम से समझा जा सकता है। प्रतिभाओं की महासिद्धि के महायज्ञ के रूप में डेढ़ वर्ष तक चलने वाली बारहवर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण की महापूर्णाहुति एवं देवसंस्कृति के विश्वविद्यालय स्तर के एक विराट् तंत्र का निर्माण आने वाले बारह वर्षों के क्रिया-कलापों की मूल धूरी बनने जा रहे हैं। प्रतिभा नियोजन सत्रों द्वारा दो लाख समर्पित प्रतिभाशालियों द्वारा दो करोड़ समयदानी प्राणवानों का नवनिर्माण हेतु नियोजन तथा साधना, स्वावलंबन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी विधाओं द्वारा देवसंस्कृति के निर्धारण का विस्तार होने जा रहा है। निश्चित ही उज्ज्वल भविष्य से भरे सतयुग के निर्माण में शाँतिकुँज एवं इससे जुड़े हर व्यक्ति की भागीदारी ईश्वरीय संकल्प की पूर्ति का निमित्त बनकर रहेगी।


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