सन् 1926 के वसंत पूर्व प्रज्वलित अखण्ड घृतदीप वसंत पंचमी 2000 पर अपने पिचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहा हैं। महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया का साक्षी यह अखण्ड दीपक हमारे आराध्य के आध्यात्मिक जन्मदिवस का ही नहीं, बोध दिवस का ही नहीं, इस विराट् गायत्री परिवार की विकासयात्रा का भी द्योतक हैं। जीवन में सद्भावना का प्रकाश प्रज्वलित किए रहने से कैसे क्राँतिकारी तूफान उठ खड़े होते हैं, सहस्राब्दी की पूर्ण वेला में आया सन् 2000 हम सबको उस तप-त्याग-प्रखरता की याद लाता है, जिससे इसके अंतिम कुछ दशक संक्राँति की वेला में एक अभिनव स्थापना कर गए। विचारक्राँति अभियान दीपक के प्रकाश में ही वेग पकड़ता चला गया। लाखों-करोड़ों के मन-मस्तिष्क बदलते चले गए। संभव हैं, कई व्यक्ति निराश मनःस्थिति के हों। लेखा-जोखा लेते हुए यह सोचते हों कि एक वर्ष बीता, एक दशक, एक शताब्दी बीती एवं एक सहस्राब्दी की समापन वेला आ पहुँची। फिर भी नैतिक पतन ज्यों-को-त्यों हैं, मारकाट, विद्वेष यथावत् हैं, अराजकता वैसी ही बनी हैं। जिनके पास दूरदर्शिता का अनुदान हो, विवेकशील हों- अंतःचक्षु खुले हो, वे देख सकते हैं कि परिवर्तन निश्चित ही हो रहा हैं एवं बड़े व्यापक स्तर पर हो रहा हैं।
अगले पृष्ठों में एक सहस्राब्दी का सफरनामा पाठकगण पढ़ेंगे। क्रमशः चार संक्राँति पर्वों के चार अध्यायों के माध्यम से ही सब यह समझ पाएंगे कि विश्व के भारतीय संस्कृति से ओत−प्रोत होने की वेला किन विषम परिस्थितियों से यात्रा करके अब आई हैं। परिवर्तन का चक्र यों तो विगत दो सौ वर्षों से सतत् चाल आ रहा हैं, किन्तु एक अखण्ड दीपक ने निरंतर जलकर मानो उस परिवर्तन−प्रक्रिया का पटाक्षेप ही कर डाला एवं हम सभी को नए युग की अगवानी हेतु ला खड़ा किया हैं। जिस प्रज्ञापुरुष एवं जगज्जननी की शक्ति उस दीपक को जलाए रखने-प्रखरता के शिखर तक पहुँचाने में लगी, उसने सतत् एक कार्य किया। विचारों को ऊँचा उठाए रखना-क्षुद्रता की कीचड़ में कुलबुला रहे कीड़ों को ऊपर उठकर अपना जीवन उबारने की, नरपशु से देवमानव-महामानव बनने की, व्यक्तित्व के कायाकल्प की प्रेरणा देने का कार्य उस महाशक्ति ने ही किया। हमारी आराध्यसत्ता के क्राँतिकारी विचारों ने ही लाखों लोगों की मनोभूमि को बदला हैं एवं करोड़ों में उल्लास की उमंगों को हिलोरें दी हैं। ऐसी बदली हुई मनोभूमि में ही महान् जीवन और समर्थ समाज की असीम संभावनाएं समाविष्ट रहती हैं। अंशावतार के रूप में ऐसे अगणित नरपुँगव-महामानव को मूर्त रूप देते रहते हैं।
यह अखण्ड दीपक पहले आँवलखेड़ा (आगरा) में जला, फिर अखण्ड ज्योति-संस्थान, घीयामंडी, मथुरा में एवं अब यह शाँतिकुँज हरिद्वार में विगत 29 वर्षों से सतत् प्रज्ज्वलित हैं। 24 लक्ष के 24 महापुरुष इसकी ही साक्षी में संपन्न हुए। परमवंदनीया माता जी भी इसे सँवारने,प्रखर बनाने, रक्षा करने हेतु तत्पर हो 1943 में मथुरा पूज्यवर के साथ आ जुटी। इसी अखण्ड दीपक के प्रज्ज्वलन (1923) वाले वर्ष में उनका शरीर से जन्म भी तो निमित्त हुआ था। प्रखरता व सजलता ने प्रामाणिकता को खोजा-तराशा व एक विराट् गायत्री परिवार बना दिया। 1953 का शतकुँडी नरमेध यज्ञ तथा गायत्री तपोभूमि की स्थापना का कार्य इसी दीपक की उपस्थिति में संपन्न हुआ। होमात्मक यज्ञों की शृंखला चलती रही एवं 1958 में जपात्मक-होमात्मक एवं ज्ञानयज्ञ के समन्वय के रूप में एक सहस्रकुँडी महायज्ञ मथुरा में संपन्न हुआ। इसने संगठन के आधार को खड़ा कर दिया। इसी अखण्ड दीपक ने ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका को 1937 से आरंभ होकर ज्ञानयज्ञ का प्रकाश लाखों लोगों तक पहुँचाते देखा हैं। गायत्री महाविज्ञान की रचना, आर्षग्रंथों का भाष्य एवं युगनिर्माण योजना के सूत्रपात का उद्घोष इस अखण्ड दीपक के प्रज्ज्वलन की वासंती वेला में ही हुआ हैं। महाकाल की युगप्रत्यावर्तन प्रक्रिया से लेकर मथुरा से विदाई की घोषणा, हिमालय यात्रा के बाद ऋषि परंपराओं की स्थापना का संकल्प, शाँतिकुँज गायत्रीतीर्थ के रूप में एक कल्पवृक्ष के निर्माण से लेकर इसकी शाखा-प्रशाखाओं के रूप में चौबीस सौ शक्तिपीठों के निर्माण के संकल्प भी इसी दीप प्रज्ज्वलन के दिन वसंत पंचमी की उल्लास के समन्वय को संकल्पित ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की स्थापना से लेकर बीस वर्षीय युगसंधि के विशिष्ट साधना अभियान की शुरुआत एवं प्रज्ञापुराण रूपों अद्वितीय 19वाँ पुराण भी इसी वेला में लिखा गया। (शेष पृष्ठ 6 पर)