दीप–प्रज्ज्वलन के साथ अवतरित हुई भागवत चेतना

February 2000

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सन् 1926 ई. की वसंतपंचमी को अखण्ड ज्योति प्रज्वलित हुई। भारतवर्ष के बेकलभावन ताजमहल के लौकिक सौंदर्य के पास ही यह अलौकिक एवं आध्यात्मिक सौंदर्य प्रदीप्त हुआ। आगरा जिले के आंवलखेड़ा गाँव की एक छोटी-सी कोठरी में जलाए गए एक अखण्ड दीपक के माध्यम से हिमालय की ऋषिसत्ता ने सूक्ष्मशरीर से आकर एक नवीन शुभारंभ किया। सन् 1911 ई (वि.सं.1968) में जन्मे 15 वर्षीय किशोर श्रीराम शर्मा के साधक जीवन का श्रीगणेश हुआ। उनके चौबीस-चौबीस लाख के चौबीस गायत्री महामंत्र के पुरश्चरणों की यात्रा इसी दिन प्रारंभ हुई। यह नए भारत की शुरुआत थी। नवयुग के उज्ज्वल अभ्युदय का आरंभ था। उस महावट के विशाल विकास का अंकुरण था, जिसकी छाँव में अगले दिनों देश, विश्व एवं समूची मानवजाति को विश्राँति पानी थी। इस महासाधना के शुभारंभ से ही वह प्रचंड ऊर्जा उमंगनी थी, जिसके भारतीय स्वतंत्रता का नया अध्याय लिखा जाना था।

आध्यात्मिक तपशक्ति ही भारत की राष्ट्रीय जीवनी शक्ति हैं। यहाँ जब कुछ विशेष हुआ हैं, जब भी यहाँ के राष्ट्रीय जीवन में युगाँतरकारी मोड़ आए है, उन्हें अध्यात्म ऊर्जा ने ही प्रेरित और प्रवर्तित किया हैं। महर्षि अरविंद ने एक स्थान पर स्वीकार किया हैं कि भारतीय पुनर्जागरण की यह एक विशेषता थी कि उस वक्त के आध्यात्मिक व्यक्ति प्रायः स्वतंत्रता सेनानी या क्राँतिकारी थे। डॉ. नीरोदबरन की पुस्तक ‘टाक्स विद श्री अरविंदों’ के प्रथम भाग में इस तथ्य का उल्लेख हैं कि बातचीत के सिलसिले में श्री अरविंद ने एक बार कहा-”यह कितना आश्चर्यजनक है कि इतने अधिक तपस्वियों ने भारतीय स्वतंत्रता पर ध्यान था। क्रांतिकारी ओज के उत्साहपूर्ण संवेग उनमें बराबर उठते रहे। उन्हें एक बार दिव्यदर्शन भी हुआ, जिसने ये संदेश था कि आध्यात्मिक शक्ति से ही भारत स्वतंत्र होगा। महर्षि रमण के नौजवान शिष्य क्राँतिकारी थे। परमहंस योगानंद के गुरु (श्री युक्तेश्वर गिरी) भी क्राँतिकारी धारणाएँ रखते थे। ठाकुर दयानंद क्राँतिकारी थे। नगाई जप्ता, जिन्होंने उत्तर योगी श्री अरविंद के बार में कहा था, वे भी क्राँतिकारी थे। निश्चित रूप से भारतीय स्वाधीनता के लिए आंदोलित जनचेतना के पीछे महान् तपस्वियों की आध्यात्मिक चेतना सक्रिय रही।

भारत का ऐतिहासिक जीवन भी इन दिनों कई मोड़ों से गुजर रहा था। 1885 ई. में मुँलाई में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का पहला अधिवेशन संपन्न हुआ। 4 जुलाई 1902 में वे विश्रुत स्वामी विवेकानंद स्थूल देह का परित्याग कर ब्राह्मीचेतना में अंतर्लीन हो गए। 1 जनवरी 1903 को किंग एडवर्ड सप्तम भारत के सम्राट् घोषित हुए। 16 अक्टूबर 1906 को मुस्लिम लीग की स्थापन हुई। 1907 को काँग्रेस का सूरत अधिवेशन संपन्न हुआ। 1909

को मिंटोकार्बें ने अपना सुधार प्रस्ताव प्रस्तुत किया। 12 दिसंबर 1911 को दिल्ली में शाही दरबार का आयोजन किया गया, जिसमें बंगाल विभाजन का प्रस्ताव वापस ले लिया गया, इसी वर्ष 1911 के सितंबर माह की बीस तारीख को आचार्य श्रीराम शर्मा का आविर्भाव हुआ। सन् 1912 ई. में 1 अप्रैल को कलकत्ता की बजाय दिल्ली पुनः भारत की राजधानी बनी। 1915 में बहुचर्चित बहौर षड़यंत्र काँड हुआ। 1916 ई. में कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने आपस में समझौता कर लिया। वर्ष 1919 राष्ट्रीय जीवन की परिस्थितियों के लिए बड़ा विषम वर्ष रहा। इस वर्ष राज्यों में सरकार के दो स्वतंत्र सत्ता केंद्र का सिद्धान्त लागू हुआ। 18 मार्च को रोलेट–एक्ट लागू किया गया। इसी वर्ष की 13 अप्रैल को जनरल डायर ने अपनी नृशंस बर्बरता प्रस्तुत करते हुए जलियावाला काँड कर डाल। सन् 1920 में गाँधी जी ने काँग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। सन् 1921 में अली भाइयों द्वारा खिलाफत आँदोलन शुरू किया गया और इसी साल पेशावर षड्यंत्र हुआ। 1922 ई. चोरी–चौरा काण्ड हुआ। इसके विक्षुब्ध गाँधी जी ने अपना असहयोग आँदोलन वापस ल लिया। इसी साल देशबंधु चितरंजन दास एवं मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी की स्थापना की। सन् 1925 ई. में हुए काकोरी–काँड से देश में उत्तेजना की लहर दौड़ गई।

राष्ट्रीय जीवन की तरह अंतर्राष्ट्रीय जीवन में भी कई युगाँतरकारी घटनाएँ जन्म ले रही थीं। सन् 1905 में रूस-जापान युद्ध में जापान ने रूस को हराकर विश्वशक्तियों में अपना स्थान बना लिया। 1905 में ही रूस में प्रथम क्राँति हुई, जो असफल रही। सन् 1911 में हुई चीनी क्राँति में चीन मंचु साम्राज्य का अंत हो गया। डॉ. सुनयत सेन के नेतृत्व में एक गणराज्य की स्थापना हुई। सन 1914 से 1918 ई. के बीच प्रथम जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी तथा लरिटेन, फ्राँस, रूस, के बीच लड़ा गया। इसमें एक करोड़ लोगों की मृत्यु हुई वर्ष 1917 ई. में द्वितीय एवं सफल रूसी क्राँति हुई। जिसमें लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने मेटोग्रेड पर कब्जा कर लिया और प्रथम मार्क्सवादी राज्य की स्थापना हुई। सन् 1920 में लीग ऑफ नेशंस की स्थापना की गई। 16 जनवरी फ्राँस की राजधानी पेरिस में इसके 19 सदस्य देशों की बैठक संपन्न हुई। सन् 1921 में ई. में एडोल्फ हिटलर नाजी पार्टी का अध्यक्ष की निर्वाचित व्यवस्था लागू हुई। सन् 1922 में ही हिटलर में मुसोलिनी की तानाशाही व्यवस्था लागू हुई। सन् 1924 ई. में सोवियत संघ में सत्ता जोसेफ स्टालनि के हाथों में आई।

विश्व में यह परिवर्तन केवल राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित नहीं था। कब-साहित्य, संस्कृति, संस्कृति एवं विज्ञान के क्षेत्र में भी नए-नए प्रतिमान रचे जा रहे थे। डार्विन के विकासवाद, सिगमंड फ्रायड के अवचेतन मन के रहस्यों तथा मार्क्स के राजनीतिक एवं सामाजिक सिद्धान्तों ने समूचे विश्व में उथल-पुथल मचा दी थी। भारत भी इससे अछूता न था। यहाँ के कवि, साहित्यकार एवं विचारक भी इन विचारों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित हो रहे थे। सन् 1903 में विश्वपटल पर पहली बार सिनेमा का उदय हुआ। सन् 1913 में यहाँ पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रूप में सामने आई। 1913 में ही अमेरिका में नारी स्वतंत्रता, समता एवं वोट अधिकार को लेकर नारीमुक्ति संघर्ष की जबरदस्त शुरुआत हुई। सन् 1921 में विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन को उनके वैज्ञानिक योगदान के नोबुल पुरस्कार मिला। इन्हीं दिनों उनके सापेक्षिता सिद्धाँत को विश्वव्यापी ख्याति मिली।

इन दिनों समूचे भारत में इस वैचारिक उथल-पुथल के साथ राष्ट्रीयता भावनाओं का झंझावात गर्जन कर रहा था। स्वराज्य के बलपिंथों ऋग्वेद के महामंत्र “सहस्त्रं सकमर्चत परि ष्टोभत विंशतिः। शतैनमन्वनोनुवुरिन्द्राय ब्रह्मद्यतमचत्रनु स्वराज्यम्।” देशवासियो। सहस्त्रों मिलकर स्वराज्य की अर्चना करो। बीसियों मिलकर इसे नियंत्रित करो, सैकड़ों मिलकर स्वराज्य के लिए उद्यत बलपिंथी इंद्र की स्तुति करो। सभी स्वराज्य के पुजारी बनो के स्वरों में देशवासियों का आतनान कर रहे थे। भारतमाता के सपूत गा रहे थे।

सार्थक जनम आमार जन्मेछि ए देशे, सार्थक जनम मागों तो भाय भाल वेशे। कौन जानिते फूल, गंधे एत करे आकुल, कोन गगने उठेरे चाँद ए मन हाँशि हेंशे॥ ओ माँ! आँखि मेलितौमार आबे। देख आमार चोख जुड़ा लो, ए आलोके नयन रेखे मुदबो नयन शेबे॥

इस देश में जन्म लेकर मेरा जीवन सार्थक हुआ। माता जन्मभूमि, तुमसे प्रेम करके जीवन सफल हुआ। नहीं जानता कि किसी और कानून के फूलों की गंध नहीं जानता कि किसी और कानन् के फूलों की गंध प्राणों और गगन में चाँद इस तरह की हँसी हँसता है। ओ माँ, तुम्हारे आलोक को आँखों भरने से मेरे चक्षु जुड़ा जाते हैं। इसी आलोक को आँखों में धारण किए हो अंतकाल में नयन बंद करूंगा।

इन बलिदानी स्वतंत्रता वीरों को और अधिक ऊर्जा प्रदान करने के लिए योगिराज महर्षि अरविंद 24 नवंबर 1926 को पाँडिचेरी में पूर्ण एकाँत साधना में पड़े गए। इसी वर्ष को उनने भागवत चेतना के धरती पर अवतरण का वर्ष घोषित किया था। उनकी उत्कट तप−साधना से अखण्ड ज्योति का आलोक और अधिक प्रखर हो गया। अखण्ड ज्योति का आलोक और अधिक प्रखर हो गया महर्षि रमण भी इसी महत् उद्देश्य के लिए तिरुवन्नामलाई में अरुणाचलम् पर्वत की गुफा में तपोलीन थे। महायोगियों की इस तप−साधना से स्वतंत्रता संघर्ष और अधिक तीव्र हो उठा और सफलता सुनिश्चित हो गई। अपनी इस गहन एकाँत तप−साधना के दिनों में सन् 1926 के कुछ समय बाद ही उन्होंने भारत के शीघ्र स्वतंत्र होने की बात कहीं। उन्हीं के शब्दों में-”यह दैवी आज्ञा जारी हो चुकी हैं, उसके क्रियान्वयन में विलंब नहीं होगा।”

संघर्ष की ज्वालाएँ धधकने लगीं। इनसे उड़ते अग्निस्फुल्लिंग जन-जन के मन को दहकाने लगे। समूचा राष्ट्र आँदोलन हो उठा। महर्षि अरविंद की तप−साधना शुरू होने के दस वर्षों बाद ही यानि कि सन् 1920 के बाद ही स्वाधीनता आँदोलन के निर्णयकारी दौर की शुरुआत हो गई। उसकी आकारहीनता समाप्त हो गई और स्वरूप निश्चित हो गया। उनके पूर्ण एकाँत यानि सन् 1926 के बाद तो इसमें आश्चर्यजनक परिवर्तन दिखाई पड़ने लगे। पूर्वाभास बार-बार रेखाँकित होने लगा। इस अवधि में तीन महान् नेताओं का चमत्कारी नेतृत्व सामने आया-महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू एवं नेताजी सुभाषचंद्र बोस।

महात्मा गाँधी आने प्रथम तीन सत्याग्रह के सफल प्रयोगों-चंपराण (1916-17), अहमदाबाद और खेड़ा के आधार पर समस्त भारतीय जनता के हृदयाहार बन गए। जनता को निर्भय होना सिखाया। पहली बार देश के आम नागरिक के मन में अद्भुत साहस की उमंगें उठीं। जिसे अंग्रेज शासन के साधारण सिपाही को देखकर लोग सहम जाते थे, अब उन्हीं के खिलाफ उठ खड़े हुए। “अत्याचार का सामना करेंगे, ब्रिटिश शासन की गलत नीतियों के साथ असहयोग करेंगे।” इन नारों को बुलद करने का साहस जनता को गांधीजी ने दिया। अब वे सिपाहियों से तो क्या गोरे साहबों से भी भय नहीं खाते थे। समुद्री तूफान की तरह उमड़ते-मचलते इस साहस से गोरी सरकार काँप उठी। जेल भर गई। उनकी लाठी-गोली प्रभावहीन होने लगीं।

यह गाँधी जी की आध्यात्मिक चेतना का चमत्कार था। वह सत्य और अहिंसा के अनुगामी थे। ईश्वर पर उनका दृढ़ विश्वास था। उनके कार्यक्रमों को उनकी समग्रता में देखा जाए, तो यह भी सच हैं कि स्वाधीनता के संघर्ष को उन्होंने ऐसा चमत्कारी मोड़ प्रदान किया, जो विश्व इतिहास में अद्वितीय हैं और ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर भी इसका प्रभाव पड़ा। इतनी बड़ी ताकत सत्याग्रह और अहिंसक आँदोलन के सामने झुकती नजर आई। उनके इस आँदोलन ने विश्वव्यापी ख्याति अर्जित करके समूचे विश्व जनमत को अपने पक्ष में कर लिया।

गाँधी जी का दूसरा महान् कार्य था- नारी जाति का उसका खोया हुआ सम्मान लौटना। उन्होंने महिलाओं को आँदोलन में शामिल करके उन्हें पुरुषों के बराबर महत्व दिया। आर्य समाज ने भी नारी उत्थान का कार्य अपने हाथ में लिया था, परंतु गाँधी जी ने उसे कर्मक्षेत्र में उतारकर स्वतंत्र दायित्व सौंपा। उनसे प्रेरित होकर सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली जैसी विदुषी महिलाएं तो आगे आई ही, लक्ष्मीबाई मायेकर जैसी साधारण नारी भी इस आँदोलन की भागीदार बनी, जो महाराष्ट्र के नाँदेड जिल में चूड़ियों बेचकर अपनी रोजी-रोटी चलाती थी। महात्मा गाँधी के इस योगदान से केवल भारत की नारी ही कृत-कृत्य नहीं हुई, बल्कि विश्वभर की नारियों को इससे बल मिला।

पं. जवाहर बल नेहरू एवं वल्लभारी पटेल का व्यक्तित्व भी इन्हीं दिनों उभरकर आया। इस युगल की सबसे बड़ी उपलब्धि थी-दृष्टिकोण की वैज्ञानिकता। जब कभी गाँधी जी के कार्यक्रमों में वायवीपन अथवा कोरी आदर्शवादिता झलकती, पटेल एवं नेहरू उन्हें व्यावहारिकता की ओर मोड़ने की कोशिश करते हैं। वे काँग्रेस को संकीर्णताओं के दलदल से ऊपर उठाने की कोशिश करते। सुभाषचंद्र बोस संघर्ष की ज्वालाओं को और अधिक तीव्र करना चाहते थे। जर्मनी और जापान के सहयोग से उन्हें जो अद्भुत सफलता मिली, उससे ब्रिटिश शासन का मनोबल इस कदर गिर गया कि उसे दिया जा सकता था। वैसे भी द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण लरिटेन पूरी तरह से हिल चुका था। उसकी आर्थिक एवं सामरिक दोनों शक्तियों हिल चुकीं थीं। नेताजी सुभाष के पराक्रम एवं शौर्य ने ऐसे में उसे दहशत में डाल दिया।

स्वाधीनता संघर्ष की दो मुख्य धाराएँ और भी थीं-पहला क्राँतिकारी तथा दूसरा किसान-आदिवासी आँदोलन। ब्रिटिश शासन की शोषण एवं अन्यायपरक नीति से जन-मन में जो आक्रोश था, उसकी अभिव्यक्ति क्राँतिकारी आँदोलन में हुई। रामप्रसाद बिस्मिल, खुदीराम बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु, अशफाक–उल्ला–खां और इन जैसे अन्य अनेक। इनकी बलिदानी भावनाओं से ब्रिटिश सरकार ने पहली बार महसूस किया कि इस देश के युवाओं में अतुलनीय शक्ति और साहस हैं “स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार हैं, इसे हम लेकर रहेंगे” तिलक का यह महामंत्र इन बहादुरों के हैरतंगेज कारनामों से समूचे देश में गूँज उठा।

किसान और आदिवासियों के आँदोलन ने आजादी के संघर्ष को और अधिक ऊर्जावान् बनाया। ये आँदोलन शोषण का ही उन्मूलन करना चाहते थे, चाहे वह देशी हो या विदेशी। किसानों-आदिवासियों का आक्रोश मुख्यतः उन तत्वों के खिलाफ था जो ब्रिटिश शासन के स्वार्थसाधन में अपनी सक्रिय सहभागिता निभा रहे थे। गुजरात में करमसद के सरदार पटेल, महाराष्ट्र में बलवंत फड़के और बिहार में बिरसामुँडा ने तो समानाँतर तंत्र स्थापित करने की योजना भी खड़ी कर दी।

संघर्ष की यह आग और अधिक तेजी से भड़कती चली गई। इसी के साथ इतिहासचक्र भी नई-नई घटनाएँ रचता गया। 3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन भारत आया। 31 दिसंबर 1929 ई. को रावी नदी के तट पर शपथपूर्वक स्वतंत्रताध्वज फहराया गया। 1930 को गाँधी जी ने दाँडी यात्रा शुरू की। 31 मार्च 1931 को भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी दी गई। इससे समूचे राष्ट्र में पीड़ा, उत्तेजना और क्षोभ की लहर दौड़ गई। 1935 ई. में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित हुआ। 1937 में केन्द्र और प्राँतिय विधायिका के चुनाव हुए। इस वर्ष अंगरेजों ने वर्मा को भारत से अलग कर दिया। सन् 1939 ई. में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने फाँरवर्ड लबँक की स्थापना की। इसी वर्ष लरिटेन एवं फ्राँस ने जर्मनी से युद्ध की घोषणा कर दी, जिसने बाद में विश्वयुद्ध का रूप ल लिया। यह युद्ध ध्रुवीय शक्तियों (जर्मन, इटली, जापान) एवं मित्र राष्ट्रों (लरिटेन, अमेरिका, फ्राँस, रूस, चीन) के बीच हुआ, जो सन् 1945 ई. तक चलता रहा।

इस बीच भारत में सन् 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारंभ किया गया। 1941 में ई. में नेताजी सुभाष बोस अपनी नजरबंदी से फरार हो गए। 22 मार्च 1942 को क्रिप्स मिशन भारत आया, जिसे नामंजूर कर दिया गया। इसी वर्ष 8 अगस्त को भारत छोड़ो आँदोलन की शुरुआत हुई। सन् 1943 ई. में नेताजी सिंगापुर पहुँचे। 29 दिसंबर को इसी वर्ष उन्होंने अंडमान में राष्ट्रीय ध्वज फहराया। 1944 में मित्रराष्ट्रों ने अपनी विजययात्रा की शुरुआत की। सन् 1945 में हिरोशिमा पर परमाणु हमला हुआ। जिसके नृशंस प्रभावों से दुनिया दहल गई। 1946 ई. में विज्ञानजगत् में कंप्यूटर क्राँति ने जन्म लिया। इसी वर्ष 1946 ई. में नौसेना ने अँगरेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। नौ–सैनिकों की भावनाएँ नेताजी सुभाष बोस के साथ थीं।

स्वाधीनता संघर्ष की ज्वालाएं उत्तरोत्तर मुखर एवं प्रखर होती जा रही थी। अपनी तप−साधना में लीन ग्राम से उभरे युवा ‘श्रीराम मत्त’ भी राष्ट्रीय संघर्ष की यज्ञवेदी में अपनी आहुति देने के लिए बढ़-चढ़कर आगे आए। स्वाधीनता संघर्ष के गौरवगान में उनका स्वर भी मुखर हुआ। अपनी बलिदानी भावनाओं के चलते उन्हें अनेकों यातनाएँ सहनी पड़ी जिनका क्रम 1936-37 तक चलता रहा। जेल की काल-कोठरी में घंटे और दिन नहीं, वर्ष गुजारते पड़े, परंतु संघर्ष के ये समवेत स्वर अब सफलता के निकट जा पहुँचे थे। सन् 1947 की वह घड़ी भी आ गई जब भारत स्वतंत्र हुआ। 15 अगस्त 1947 स्वतंत्र भारत का जन्मदिन बन गया। हालांकि अँगरेजों की कुटिल नीति के कारण यह स्वतंत्रता खंडित एवं आधी-अधूरी मिली। फिर भी अब भारत स्वतंत्र था। उसका स्वतंत्र निशान और स्वतंत्र विधान था। इस स्वाधीन भारत की अपनी समस्याएँ थीं, जिनकी खोज अभी बाकी थीं। अँगरेजों ने राजनीतिक तौर पर ही नहीं सामाजिक-आर्थिक तौर पर भी राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। स्वतंत्र भारत में अनेकों मौलिक प्रश्न उठ खड़े हुए, जिनके समाधान की खोज की जानी थी। भारत की मौलिक प्रकृति आध्यात्मिक होना आवश्यक था।

एक बार विदर्भ देश में जोर का अकाल पड़ा। एक गाँव में सिकी के पास कुछ भी न बचा। उसी गाँव के एक किसान के पास एक कोठी भरा धान था। वह उससे कई महीने तक अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकता था, लेकिन उसे ध्यान आया कि अगले वर्ष मौसम के समय खेतों में बोने के लिए न मिलेगा तो फिर से सबको अकाल का सामना करना पड़ेगा। किसान ने उस धान के कोष को खाने में खरच नहीं किया और सहपरिवार सहर्ष मृत्यु की गोद में सो गया। लोगों ने देखा कि काफी अन्न होते हुए भी किसान का परिवार क्यों मर गया? लेकिन उसकी वसीयत को पढ़कर सभी किसान की महानता पर हर्ष से आँसू बहाने लगे। उसमें लिखा था, “मेरा समस्त अन्न खेतों में फसल बोने के समय गाँव में बीज के लिए बाँट दिया जाए।” वर्षा हुई और चारों ओर नई लहलहाती फसल से लग रहा था मानों किसान मरा नहीं, अपितु असंख्यों जीवधारी के रूप में हरे-भरे खेतों में लहलहाता फिर से धरती पर उतर आया हो।


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