उद्दण्डता का उपचार विपत्ति के रूप में!

April 1989

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व्यक्ति और समाज परस्पर अन्योन्याश्रित है। उद्दण्ड व्यक्ति अपने अनगढ़ कृत्यों से समूचे समाज को प्रभावित करता और अशांति फैलाता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अवाँछनीय तत्वों को देर तक सहन नहीं किया जाता। उन्हें अवरोध उत्पन्न करने की छूट सदा ही नहीं मिल सकती।

व्यक्ति की अनुपयुक्त गतिविधियाँ व्यापक विक्षोभ उत्पन्न करती हैं और समाज तथा प्रकृति की ओर से ऐसे लोगों को नियंत्रण में लाने की, कड़वा सबक सिखाने की प्रतिक्रिया चल पड़ती है। इसी का नाम विपत्ति है। विपत्ति से घिरा व्यक्ति सीखता है कि अपने को उबारने के लिए उसे दूसरों की कठिनाई समझनी चाहिए जैसी कि बुद्धिमान लोग विपत्ति खड़ी होने से पूर्व ही कर लिया करते है।

सज्जनता किसी पर उपकार करना नहीं है, वरन् अपने आपको भर्त्सना, विरोध, आक्रोश से बचाना है। प्रकृति के कठोर विधान का व्यतिक्रम करके अपने ऊपर विपत्ति टूट पड़ने से समय रहते बचाव कर लेना है।

उद्दण्डता प्रकृति को असहनीय है। समाज भी उसका विरोध करता है और शासन भी। इन सबसे बड़ा अपना अन्तःकरण है जो उद्दण्डता की अवस्था छुड़ाने के लिए विपत्तियों को जहाँ-तहाँ से न्यौता बुलाता है। अनीति का यही उपचार भी है।


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