व्यक्तित्व के विकास हेतु निजी प्रयास

April 1989

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मनुष्य में निज की बुद्धि और विचारणा भी है। इसी के बल पर उसने दर्शन, विज्ञान, भाषा आदि की अनेक दिशाधारायें खोजी है। साहित्यकार, कलाकार, कवि, वैज्ञानिक, प्रभृति के लोग निजी चिन्तन के सहारे ही कल्पनायें करते, योजनायें बनाते है। निष्कर्ष निकालते है। भूत से शिक्षा ग्रहण करना और भविष्य की परिकल्पनायें अपनाना भी अपनी निजी विशेषतायें है। उन्हीं के आधार पर प्रतिभाएँ ऊँचा उठतीं, आगे बढ़ती है या पतन की दिशा में चल पड़ती है। यह कथन बहुत अंश में सच है कि किसी पेड़ पर दो पत्ते एक जैसे नहीं होते। हर पत्ते की बनावट में अन्तर रहा है। जो पूर्णरूपेण समान हो ऐसी कृति किसी पदार्थ या प्रणी की नहीं देखी जाती। मोटी दृष्टि से एक जैसी दीखने पर भी बारीकी से देखने पर हर किसी में अन्तर पाया जाता है-प्राणियों में भी। भेड़ें एक जैसी लगती है, पर उनका पालक हर एक के बीच पाये जाने वाले अन्तर को समझता है। इसी आधार पर वह अपने झुण्ड की एक भेड़ दूसरे झुण्ड में जा पहुँचने पर उसे पहचानता और पकड़ लाता है। यह वैयक्तिक भिन्नता है। प्रकृति ने भी अपनी हर संरचना में अन्तर रखा है। प्राणियों में भी, मनुष्यों में भी। इसके अतिरिक्त रुचि-स्वभाव में भी अन्तर पाया जाता है। हर बात में एक जैसे सिद्ध होने वाले दो व्यक्ति कहीं भी दीख नहीं पड़ते। कुछ न कुछ अन्तर रहता ही है। यह अन्तर ही निजी व्यक्तित्व है। इसका अस्तित्व मालूम पड़ता है, अन्यथा कुछ व्यक्ति तो भीतर और बाहर से सर्वथा एक जैसे रहे ही होते। घनिष्ट मित्रों में भी एकात्मता एक सीमा तक ही रहती है। दाम्पत्य जीवन में-मित्र मण्डल में भी तालमेल बिठाकर ही चलना पड़ता है। समग्र एकता और एकात्मता कदाचित ही कहीं अपवाद रूप में दीख पड़ती है।

इस निजी व्यक्तित्व को आमतौर से निजी सम्मान, निजी चिन्तन और निजी निर्णय पुरुषार्थ के आधार पर विकसित किया जाता है। इसमें दूसरों का परामर्श भी किसी सीमा तक काम करता है। साहित्य का भी प्रभाव रहता है। फिल्म अभिनय जैसे दृश्य भी निजी व्यक्तित्व के विकास में सहायता करते है। पूर्व-संचित संस्कारों की वंश परम्परा की भी किसी अंश में भूमिका रहती है। कोई घटना विशेष भी ऐसा मोड़ लेती है कि पिछला उपक्रम बदलता और नई दिशा में चल पड़ने के लिए उत्साह भरता है। व्यक्तित्व निर्माण के लिए प्रायः स्वाध्याय सत्संग का-सघन संपर्क का, चिन्तन मनन का सहयोग रहता है। इस क्षेत्र की सशक्तता को नकारा नहीं जा सकता और व्यक्ति निर्माण के लिए, व्यक्तिगत संपर्क की उपेक्षा नहीं की जा सकती। चरित्रवान और क्रियाकुशल व्यक्ति देश की, समाज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यह कार्य प्रधानता व्यक्ति को सद्गुणों की सत्प्रवृत्तियों क ओर अग्रसर करने से ही हो सकता है। इसमें उत्कृष्टता का अभ्यास भी साथ में जुड़ा रहना चाहिए।

प्राचीनकाल में यह कार्य सदाशयता- सम्पन्न परिवारों में होता था। बचपन से ही हर बालक को अपने बड़ों से उस स्तर का प्रशिक्षण मिलता था। पहला शिक्षण बालक परिवार के लोगों से शब्दों को सुनकर ही प्राप्त करता है। अपने को लड़की या लड़का मानने की भिन्नता परिवार के बताने पर ही मान्यता बनती है। खान-पान की, पहनाव-उढाव की, आदतें भी परिवार में जो होता है, उसी को देखकर अपनाई जाती है। यह आरम्भ ही क्रमशः अभ्यास में उतरते रहने पर परिपक्व हो जाता है और अपने ढंग का व्यक्तित्व ढल जाता है।

इसी प्रक्रिया का अगला चरण है- गुरुकुलीय शिक्षा-प्रणाली। उसमें प्राचीनकाल में ज्ञान सम्वर्धन के साथ-साथ पारिवारिकता का वातावरण भी रहता था। छात्र भी कच्ची आयु से भर्ती होते थे। गीली लकड़ी को आसानी से मोड़ा जा सकता है। गीली मिट्टी से ही कुम्हार मन चाहे पात्र या खिलौने बनाता है। सूखी मिट्टी मुश्किल से ही किसी ढाँचे में ढलती है। सूखी लकड़ी को मोड़ना कठिन पड़ता है। जब ऐसा करना अनिवार्य हो जाता है तो गलाई-ढलाई का कष्टसाध्य तरीका काम में लाना पड़ता है। धनुष तेज आग की भट्ठी में तपा कर नरम किए जाते है। इसके बाद ही उसे किसी साँचे में ढाल सकना संभव होता है। कड़े पत्थर से मूर्तियाँ गढ़ना हर किसी के वश बूते का काम नहीं है। इसके लिए छेनी हथौड़े का संतुलित उपयोग कर सकने वाले मूर्तिकार चाहिए। उसके मस्तिष्क में प्रतिमा की इतनी स्पष्ट परिकल्पना उठनी चाहिए कि गढ़ते समय हाथ सही प्रयोग कर सके। छेनी हथौड़े की चोट इस कौशल के साथ पड़ सके कि प्रतिमा बिना विखंडित हुए कल्पना के अनुसार सही आकार-प्रकार की बन सके। उसकी भावभंगिमा वैसी ही रहे जैसी कि बनाने से पूर्व परिकल्पना की गई थी।

अपने आप स्वयं को गढ़ने का भी एक तरीका है जिसे साधना विज्ञान के नाम से जाना जाता है। इन दिनों तो उसमें भी भ्रष्टाचार घुस पड़ा है और लोग देवता को रिझा कर अपनी उचित अनुचित मनोकामनाओं को पूरी कराने के लिए उसका प्रयोग करते हे। भटकते और निराश होते है, किन्तु उसका वास्तविक उद्देश्य और सिद्धान्त यही है कि अपने प्रयास से अपने व्यक्तित्व को अभीष्ट स्तर का ढाला जाय। इष्ट सिद्धि इसी को कहते है। साधना से सिद्धि की चर्चा आमतौर से होती रहती है। यह सिद्धिदायिनी साधना और कुछ नहीं केवल अपने मनोबल से अपने व्यक्तित्व को अभीष्ट ढाँचे में ढालने वाले उपाय उपचारों को अपनाना ही है। ध्यान-धारण का तप-तितिक्षा का योगाभ्यासपरक क्रिया-कृत्यों का यही प्रयोजन है। जो लोग साधना का सही उद्देश्य समझते है और उसका उपयोग करते हुए निर्धारित तत्वदर्शन और आचरण-अनुशासन का ध्यान रखते है, वे अपने पुरुषार्थ से अपने को बदलने, सुधारने, अभीष्ट ढाँचे में ढालने में समर्थ और सफल हो जाते है।

लाभ और हानि का सही अन्तर समझने वाले को इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि व्यक्तित्व में शालीनता-सद्भावना का अधिकाधिक समावेश ही सर्वतोमुखी प्रगति का एक मात्र आधार है। गुण कर्म स्वभाव की सदाशयता ही किसी को प्रामाणिक बनाती है। जिनका चरित्र, चिन्तन और व्यवहार मानवीय गरिमा के अनुरूप है, जिन्हें उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाने पर गहरी आस्था है, वे प्रचलन से प्रभावित नहीं होते, वरन् अपनी रीति-नीति एवं दिशाधारा स्वयं निर्धारित करते है। इतना ही नहीं उस ऊँचाई पर ले जाने वाले मार्ग पर एकाकी चल पड़ने का साहस भी बटोरते है। उन्हें समीपवर्ती वातावरण से एकाकी जूझना पड़ता है, कारण कि पानी के ढलान की तरफ बहने की भाँति ही लोक प्रवाह में भी पतन की आरे ले जाने वाले-पशुता की ओर लौटाने वाले तत्व ही भरे होते है। वे अपने साथ चलने के लिए लोभ और भय बताते हुए दबाव डालते है। इन्हें नकारना उच्चस्तरीय साहस है। तिनके, पत्ते और धूलि कण, हवा के प्रवाह के साथ उड़ते है। पतन की आँधी भी उसी दिशा में उड़ती है जिसके लिए हवा का दबाव बाधित करता है। इस चक्रव्यूह को बेधना हर किसी का काम नहीं है। मनस्वी और तपस्वी ही ऐसा कर पाते है, किन्तु जो सामान्य जन श्रद्धापूर्वक इस दिशा में चल पड़ते है, वे अपने व्यक्तित्व में देवत्व का उदय कर सकने में निश्चय ही सफल होते है।


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