सृष्टि के कण-कण में दृश्यमान प्रत्येक रंग की अपनी-अपनी विशेषता-विशिष्टता है। वस्तुओं के गुण-धर्मो में इसी आधार पर भिन्नता पाई जाती है। पदार्थ जिन रंग-रश्मियों को अधिक मात्रा में अवशोषित कर लेते है, वह उसी रंग के दृष्टिगोचर होने लगते है। मानवी काया पर भी इन रंगों को न्यूनाधिक प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार आवश्यक रासायनिक पदार्थ कम होने पर जीवनी-शक्ति घटती और कई प्रकार के रोग एवं असंतुलन उत्पन्न होते है उसी प्रकार प्रकाश रंगों की उपयुक्त मात्रा में कारणवश कमीवेशी हो जाने पर भी स्वास्थ्य संकट उत्पन्न होता है। इससे न केवल शारीरिक स्वास्थ्य गड़बड़ाता है वरन् व्यक्ति मानसिक एवं भावनात्मक रूप से भी रुग्ण रहने लगता है। अतः जहाँ चिकित्सा उपचार में वनौषधियों, क्षारों और खनिजों का उपयोग करके तद्विषयक घट-बढ़ को ठीक किया जाता है, उसी प्रकार विशेष रंगों की न्यूनाधिकता हो जाने के संबंध में भी जाँच-पड़ताल करते है और उपयुक्त वर्ण का चुनाव कर उसकी क्षतिपूर्ति करते है। इससे मानसिक एवं भावनात्मक चेतना को उद्वेलित आन्दोलित करने तथा व्यवहार को मोड़ने-मरोड़ने-प्रभावित-परिवर्तित करने में भी आशातीत सफलता मिलती है।
रंगीन वस्तुएँ प्रायः उन्हीं रंगों की किरणें अपने में ग्रहण एवं धारण करती है जिसकी कि वे स्वयं होती है। इस प्रकार खिले पुष्पोद्यान, रंगे हुए वस्त्र-परिधान, दृश्य चित्रावली या पदार्थ न केवल नेत्रों को आकर्षक एवं मनमोहक प्रतीत होते है। वरन् अपने स्तर की विशेषताओं से भरे रहने के कारण जहाँ रहते है, या जिनके प्रयोग में आते है, प्रभावित करते है। सौंदर्य या सज्जा में प्रयुक्त होने वाली साधारण वस्तुएँ भी रंगों के कारण आकर्षक-सुन्दर लगने लगती है। प्रकृति का सौंदर्य तो वर्षों की विविधता के कारण ही है। यदि यह जानकारी उपलब्ध हो सके कि कौन सा रंग उचित रहेगा तो उससे सर्वसाधारण को वाँछित वर्ण चुनकर लाभान्वित होने का अवसर भी मिलेगा एवं अवाँछनीयता से होने वाली हानि से वे बच भी सकेंगे।
सुप्रसिद्ध रंग चिकित्सा विज्ञानी मेरी एंडरसन का कहना है कि जिस प्रकार मानव स्वास्थ्य पर भवन संरचनाओं (ज्यामितीय आकार प्रकार) का अभाव पड़ता है, ठीक उसी तरह उनमें किये गये रंग-रोगनों का साज-सज्जा का भी अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि भवन-निर्माण के साथ अब “रंग-योजना” को भी प्रमुखता दी जाने लगी है। इसके आधार पर कमरे आकर्षक सुन्दर तो बनते ही है साथ ही उनके आकार में, लम्बाई-चौड़ाई में भी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है। लाल, नारंगी और पीले रंग से पुते कमरे अंदर से आकार में छोटे दिखते है जबकि सफेद, आसमानी और नीले रंग के कमरे आकार में लम्बे प्रतीत होते है। हरा रंग सही अनुपात दर्शाता है। इन रंगों का प्रभाव मानवी व्यक्तित्व पर पड़े बिना नहीं रहता। आसमानी रंग व्यक्ति के अहं को विस्तृत करता और वातावरण के साथ तालमेल बिठाकर चलने को प्रेरित प्रोत्साहित करता है। लाल रंग व्यक्ति को स्वकेन्द्रित बनाता है, जब कि हरा रंग हृदय के लिए अत्यन्त हितकारी सिद्ध होता है।
रूस के प्रख्यात गुह्विद जार्ज इवानोविच गुरजिएफ के अनुसार रंगों के कुछ निश्चित सम्मिश्रण शान्तिदायक प्रभाव डालते है। तो कुछ रंगों का प्रभाव मानवी काया एवं मन पर विघातक भी होता है। “व्यूज फ्राम दी रियल वर्ल्ड” नामक पुस्तक में उनके प्रवचनों का संग्रह प्रकाशित किया गया है जिसमें बताया गया है कि प्रत्येक रंग का अपना विशिष्ट गुण होता है और नियम विशेष के आधार पर वे कार्य करते है। उनकी रासायनिक भिन्नता ही अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करती है। उदाहरण के लिए रंग के प्रकंपन क्रोध दिलाते रोष उत्पन्न करते है जबकि आसमानी रंग के वाइब्रेशन्स प्रेम, सहानुभूति को सहृदयता की भावना को जाग्रत करते है। पीलापन युयुत्सा को भड़काता है।
प्रत्येक रंग का एक सम्पूरक रंग होता है। उदाहरण के लिए लाल रंग का आसमानी, नारंगी का बैंगनी, पीले का बैंगनी, हरे रंग का बैंगनी, लाल आसमानी का लाल नीले का नारंगी तथा बैंगनी का पीला रंग अनुपूरक है। सात वर्णों के अतिरिक्त भी अन्य सैकड़ों कलर है जो दो या अधिक वर्णों के सम्मिश्रण से बनते है। इनका भी रंग योजनाओं या रंग चिकित्सा में प्रयोग होता है। ये है-जामुनी (पर्पिल) सिंदूरी (स्कारलेट), लेमन कलर, मैजेन्टा कलर और टारक्वाइज अर्थात् फीरोजी रंग। मिश्रित रंगों के अपने-अपने गुण, प्रभाव और परिणाम होते है। जिन्हें ध्यान में रखते हुए प्रयुक्त किया जाना ही हितकर होगा। गहरे रंगों की प्रतिक्रिया भी गहरी होती है जो प्रतिकूल पड़ने पर कई बार अधिक हानिकारक भी सिद्ध होती है। स्वस्थ मनःस्थिति के लिए सामान्यतः हल्के रंग ही उपयुक्त पड़ते है।
विशेषज्ञों का कहना है कि उद्विग्न-अशान्त व्यक्ति भी रंग-बिरंगे फूलों के बीच बैठ कर नया उल्लास उपलब्ध करता है, जो इस तथ्य की पुष्टि करता है कि मिश्रित रंगों की प्रभावोत्पादक क्षमता सामान्य एकाकी वर्णों की तुलना में अधिक होती है। उसमें उनकी शोभा, सुषमा, सुगन्ध के अतिरिक्त रंगों को मात्र शोभा-सज्जा के लिए ही नहीं प्रयुक्त किया जाना चाहिए वरन् उनके प्रभावों परिणामों को भी ध्यान में रखते हुए प्रयुक्त किया जाना अधिक उपयुक्त होता है। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण विज्ञान है जिसकी जानकारी बने रहने पर सामान्य जीवन को अधिक सुखद एवं प्रसन्न बनाया जा सकता है।
शारीरिक मानसिक स्फूर्ति और उत्तेजना प्रदान करने में रंगों की प्रभावकारी भूमिका के संबंध में मेक्सिको विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने गहन अनुसंधान किया है। रंगों का खिलाड़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव को जाँचने -परखने के लिए उन्होंने खिलाड़ियों के कपड़े तथा फुटबाल जैसे खेल उपकरणों को भिन्न-भिन्न रंगों से रंगवा कर यह देखा कि इसका हार-जीत पर किये गये परीक्षणों से जो निष्कर्ष उभर कर सामने आये उनसे पता चला कि रंग मात्र नेत्रों को ही सुरुचिपूर्ण-कुरुचिपूर्ण नहीं लगते, वरन् उनका प्रभाव मानसिक स्थिति पर भी पड़ता है। फलतः हार जीत के साथ उसका संबंध जुड़ता है। इस अध्ययन में पाया गया कि लाल रंग वाला पक्ष प्रायः शिथिल रहा, जबकि पीला एवं हल्का नीला रंग सफलता दिखाता रहा।
एक प्रयोग में शिकागो खेल निर्देशकों ने खिलाड़ियों की थकान उतारने के लिए विभिन्न रंगों से कमरे पुतवाये और उनमें उन्हें ठहराया। मैदान में जाते समय उन्हें नारंगी रंग वाले कमरे में कपड़े बदलने और चाय पीने के लिए बुलाया जाता था। परीक्षण करने पर इससे उनमें स्फूर्ति और उत्तेजना का अनुपात बढ़ा हुआ पाया गया।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने भी रंग के प्रभाव रोगियों पर जाँचने के लिए अनेकों प्रयोग परीक्षण किये है। उनने निष्कर्ष निकाला है कि जिन रोगियों को शान्ति एवं शीतलता की आवश्यकता थी, उनके लिए नीले रंग से पुते कमरे-जिनमें उसी रंग पर्दे लगे हुए थे, अधिक लाभदायक सिद्ध हुए। मानसिक रोगियों को तो इससे विशेष रूप से राहत मिली। काले रंग का प्रभाव जीमिचलाने, चक्कर आने, ऊब लगने जैसा देखा गया। जिन जलयानों या वायुयानों के कमरे इन रंगों में रंगे थे, उन्हें परेशानी रही, किन्तु जब उनकी रंगयोजना बदल दी गई तो यात्री प्रसन्नता अनुभव करने लगे। उन्हें उन्हीं कमरों में अच्छा लगने लगा। पीले रंग से विचार शक्ति और स्मरण शक्ति अभिवृद्धि होती देखी गयी है। विद्यार्थियों पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है। विशेषज्ञों का कहना है कि बुद्धिजीवी वर्ग को विशेष कर हल्के पीले रंग के वस्त्रों तथा उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए। इससे वे उद्विग्न होने से बचे रहेंगे और एकाग्र रहने में सहायता मिलेगी।
रंगों के प्रभाव पर गंभीर अनुसंधान करने वाले सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक हावर्ड कीथ का कहना है कि “उपयुक्त रंग हमें ताजगी, स्फूर्ति प्रदान करते है जबकि अनुपयुक्त वर्णों से उद्विग्नता उत्पन्न होती और थकान आती है। आहार में जो महत्व स्वाद का है, वही दृष्टिक्षेत्र में रंगों का है। वे मात्र नयनाभिराम ही नहीं होते, वरन् शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी सीधा असर डालते है।
डा0 कीथ ने अपने प्रयोग परीक्षणों में पाया है कि रंगों की प्रभाव-क्षमता अतिविलक्षण है। एक भोजनालय को उनने गहरे नीले रंग से पुतवाया जिससे उसमें आने वाले आगंतुकों की संख्या घटने लगी। कारण यह था कि वहाँ बैठने वालों को ठंड लगने, जी मिचलाने जैसी अनेक शारीरिक मानसिक परेशानियों का शिकार होना पड़ा। कीथ ने जब उन कमरों को उसी ऋतु बदलने की चर्चा करने लगे।
मूर्धन्य रंग चिकित्सा विज्ञानी एम0जी0 हिब्बन ने अपने प्रयोगों में भोजन के रंगों का पाचन पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है। एक बहुमूल्य सुस्वादु व्यंजन वाले भोज में उनने रंगीन बिल्व इस प्रकार जलाये कि पदार्थों का रंग कुछ से कुछ प्रतीत होने लगा। इसका परिणाम खाने वालों पर यह हुआ कि उनकी भूख मर गई और वे आधे-अधूरे ही भोजन कर सके। इसके विपरीत हिब्बन ने एक दूसरी पार्टी आयोजित की, जिसमें सामान्य से खाद्य-पदार्थ परोसे गये, किंतु रंगीन प्रकाश ऐसा अच्छा था कि थालियाँ, कटोरियाँ जिन वस्तुओं से सजी थी वे सभी बहुमूल्य और सुस्वादु लगने लगी। फलतः मेहमानों आशा से अधिक खाया और दावत की हर वस्तु को सराहा। रंगों ने अपनी प्रभावशीलता की अमिट छाप शिक्षण-तंत्र पर भी छोड़ी है। छोटे बच्चों की पुस्तकों में रंगीन चित्रों का होना आवश्यक है। इसके बिना पढ़ने के लिए उनका उत्साह ही नहीं उभरता। बच्चों की भाव-संवेदनाओं को उभारने में वर्णों से काफी सहायता मिलती है। लास एंन्जिल्स के प्रख्यात चिकित्सक डा0 ब्राइट हाँस ने रंगों के माध्यम से विद्यार्थियों की शारीरिक क्षमता एवं बौद्धिक प्रखरता घटाने-बढ़ाने के अनेकों प्रयोग भी किये है। इसके लिए उन्होंने एक जैसी स्थिति के छात्रों को वर्गों में बाँट कर उन पर लाल, नीले और पीले रंग के प्रभावों को देखा। उनने पाया कि आलसी और मंदबुद्धि वालों में उत्तेजना लाने के लिए लाल रंग अच्छा रहा, जबकि चंचल और आवेशग्रस्त रहने वालों को हल्के नीले रंग से शान्ति मिली। पीले वर्ण की प्रतिक्रिया मध्यवर्ती रही। मध्यवर्ग के विद्यार्थी अपनी कुशलता और प्रसन्नता में पीले रंग से अभिवृद्धि होने की बात कहते थे। अधिकाँश को वही रुचिकर भी लगा।
यही प्रयोग कामकाजी व्यापारी वर्ग के लोगों पर भी किये गये। उनकी घड़ियां ले ली गई और कई रंग के कमरों में बैठकर वार्तालाप करने के लिए उनके कई वर्ग योजनानुसार बिठा दिये गये। लाल रंग वाले कमरों में बैठ कर बात करने वालों ने दो घन्टे काटे, पर उन्हें चार घंटे जितने थकाने वाले लगे। उनमें गर्मा-गर्मी होती रही और किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना ही उठ गये। उसके विपरीत नीले रंग वालों ने वार्ता के समय को वास्तविक के विपरीत आधा बताया। साथ ही हँसते मुस्कराते बाहर निकले उनने घनिष्टता बढ़ाई और दुबारा ऐसी ही मिलन की आवश्यकता बताई पीले रंग वाले कमरों के लोगों को समय का अनुभव उतना ही हुआ जितना कि वस्तुतः बीता था। उनने उतनी ही अवधि में कितनी ही समस्याएँ सुलझाई और कितने ही सौदे पक्के कर लिए। सभी सफलता पर प्रसन्न देखे गये। आत्म-विश्वास बढ़ा हुआ पाया गया।
गुणों के अभिवर्धन के संबंध में भी रंगों की उपयोगिता है। पीला रंग सात्विक, नीला राजसिक और लाल रंग तामसिक माना जाता है। प्रकृति की परख और सद्गुणों की अभिवृद्धि के लिए भी रंगीन वस्त्रों, तथा उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं साधु प्रकृति के धर्म परायण लोग पीले वस्त्र धारण करते है। भगवान राम एवं कृष्ण का वर्ण नील कमल जैसा माना गया है। आकाश एवं समुद्र का रंग नीला है। उन्हें वैभव एवं वर्चस्व का प्रतीत मानते है। रक्त और आग का रंग लाल होता है। क्रोधावेश में आंखें लाल पड़ जाती है। इनमें तमोगुण का दर्शन होता है। रंगों के उपयोग से उपरोक्त गुण-स्वभाव में घट-बढ़ की जा सकती है। आरोग्य वृद्धि के साथ-साथ मानसिक एवं भावनात्मक स्थिरता को अक्षुण्ण रखने के लिए उपयुक्त रंग का चुनाव किया जाय तो उसके फलितार्थ भी वैसे ही मिलते है। वर्णों का संसार जितना चित्र विचित्र है, उतना ही हमारे दैनन्दिन जीवन में महत्व भी रखता है।