तीसरी महाशक्ति का उद्भव

April 1989

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सतयुग में देवशक्ति का वर्चस्व था। पृथ्वी पर निवास करने वाले देवता भूसुर-ब्रह्मवेत्ता अपनी दिव्य-दृष्टि से सद्ज्ञान का निर्धारण करते थे और उसे जन-जन तक पहुँचाने के लिए अलख जगाने जैसी योजनाएँ कार्यान्वित करते थे। ऋषिवाणी, देववाणी को वेदवाणी कहा और माना जाता था। उसे लोग ईश्वरीय निर्देश की तरह अपनाते थे। चिन्तन और व्यवहार को तद्नुरूप ढालते थे। सही मार्ग पर चलने वाले सरलतापूर्वक लक्ष्य तक पहुँचते थे। सुख शान्ति की प्रगति और समृद्धि की उन दिनों कहीं कमी न थी। यह सतयुग का विवेचन हुआ।

बाद में राजसत्ता की प्रधानता हुई। शक्ति शासकों के हाथों केन्द्रित हुई उनने अपने महल, वस्त्राभूषण, इस प्रकार धारण किये मानों वे ही प्रजापति और भूपति है। जन उपार्जित धन, कर तथा लूट के रूप में उनके भंडारों में जमा होने लगा। धन के बल पर बलिष्ठ योद्धाओं की शक्ति खरीदी गई। विद्वान पंडितों चारणों की भीड़ भी धन लाभ के निमित्त उसी छत्रछाया में एकत्रित होती गयी। प्रजाजनों का जिस किसी भी ढाँचे में ढालना, किसी भी दिशा में मोड़ना तब छात्रों के हाथों में था। राजाओं की उन दिनों शक्ति असीम थी। न्याय उनके वचन तथा रुझान तक सीमित होकर रह गया था। इसे मध्ययुग भी कह सकते है, शक्तियुग भी। हिंसक आक्रामक लुटेरे एक दूसरे को सहन नहीं कर सकते। उनके बीच घमासान द्वन्द्व छिड़ा ही रहता है। मध्यकाल में युद्ध एक प्रमुख व्यवसाय बन गया था। समर्थ लूटते थे, दुर्बल लुटते थे। सामन्ती अन्धकार युग के नाम से भी इसी काल को जाना जाता है। योद्धाओं ने नये शस्त्र और पंडितों ने ग्रन्थ रचे। उनमें शासन का रुझान एवं संकेत ही प्रमुख रूप से झलकता था। अधिक प्रसन्न करने वाले ही तो अधिक पुरस्कार पाते थे।

अब पाँच शताब्दी से धन का वर्चस्व उभर कर ऊपर आया। ऐसी विधायें उभरी जिनसे बुद्धिवाद और विज्ञान की नवोदित शक्तियों द्वारा अधिक धनोपार्जन संभव हो सका। पूँजी के द्वारा पूँजी कमाने का एक नया सिद्धान्त निकला। इसमें कर्म−कौशल को कम और पूँजी नियोजन की चतुरता को प्राथमिकता मिली।

पूँजी के पैर पसारे और उसने विकराल से प्रमुखता प्राप्त राजसत्ता को भी अपनी कठपुतली बना लिया। राजतन्त्र अनुपयुक्त लगा और उसका स्थान प्रजातन्त्र ने ग्रहण किया। संसार भर में इस परिवर्तन की लहर आयी। प्रजा ने सोचा, सत्ता उसके हाथ आई और अपने भाग्य का स्वयं निर्णय कर सकने का अधिकार उसे मिला। सिद्धांततः यह कथन सही भी था पर व्यवहार में वह आशा कसौटी पर खरी न उतरी। मतदान के माध्यम से वस्तुतः जनता शासन अपने हाथ में ले सकती थी। पर अनगढ़ और अनपढ़ जनता न तो अपने मताधिकार का सही उपयोग कर सकी और न सही प्रतिनिधि सही स्थान पर पहुँच कर उन सभी कामों को सम्पन्न कर सके जिनसे प्रतीत होता कि वस्तुतः वही हो रहा है जो जनता के हित में तथा प्रजाजनों की इच्छानुरूप है। इसे अभीष्ट उद्देश्य की आँशिक सफलता कह कर ही सन्तोष किया जा सकता है।

जनमानस का उपयुक्त स्तर पर उभार और जनशक्ति का उच्च उद्देश्यों के लिए नियोजन इन दिनों उन लोगों के हाथ में है, जो आर्थिक दृष्टि से साधन सम्पन्न है। विशालकाय कल कारखाने चलाते है और ऐसा उत्पादन करते है जिनकी प्रतिद्वंद्विता में कुटीर उद्योगों का विकास संभव नहीं फलतः बेकारी-बेरोजगारी बढ़ती है।

प्रेस प्रकाशन अपने समय का सबसे प्रबल तन्त्र है। उस माध्यम से जो छपकर आता है उसके संबंध में यह नहीं कहा जा सकता है कि चिरकाल से पिछड़े हुए जनमानस को समर्थ समुन्नत बनाने के लिये इस का उत्पादन पर्याप्त एवं सन्तोषजनक है। लम्बे समय से कुंभकरण निद्रा में सोये हुए जनमानस को करवट बदलने और उनींदे उठ खड़े होने के साथ-साथ बौद्धिक भूख की उपयुक्त खुराक देने के लिए जिस आहार की आवश्यकता थी, वह नहीं के बराबर विनिर्मित हो रही है।

अखबार भी क्या करें? उनके आश्रयदाता विज्ञापन देने वाले स्त्रोत है। उनकी मर्जी को ध्यान में न रखा जाय तो सस्तेपन की प्रतिद्वंद्विता में पत्र पत्रिकाओं का चलना कठिन हो जायगा। विवशता उनकी भी है।

पुस्तकें भी अब उस स्तर की छापना प्रायः बन्द हो गयी है, जो आन्दोलनों के समय प्रचार भावना से प्रकाशित होती थी। अब सजधज वाली महंगे मोल की पुस्तकों से ही बड़े बुकसेलरों की दुकानें सजी दीखती है, जिन्हें पैसे वाले ही अपनी अलमारियाँ सजाने के लिए महंगे मोल में खरीदते है। उनके विषय भी खरीददारों की अभिरुचि के अनुरूप होते है। प्रजातंत्र में जिस प्रजा को जागरूक और विवेकवान बनाने के लिए जिस साहित्य की जरूरत है, उसका लेखन-प्रकाशन-विक्रय नहीं के बराबर हो रहा है।

प्रवक्ताओं, प्रचारकों, गायकों के अपने विषय है जो लोर रंजन की आवश्यकता पूरी करते है। सरकारी प्रचारतन्त्र का अपना विशेष दृष्टिकोण है। आर्थिक सुविधा संवर्धन, स्कूल, अस्पताल, कारखाने आदि का संचालन अन्यान्य प्रकार के सुविधा संवर्धन उनके तात्कालिक उद्देश्यों में प्रमुख रूप से सम्मिलित है।

इन दिनों पूँजी एक पलड़े में और शासन से लेकर कलाकार, साहित्यकार आदि मिलकर दूसरे पलड़े में रखे जा सकते है। कभी धर्म की भी अपनी शक्ति थी पर अब तो अपने ही भारी और खर्चीले ढाँचे को किसी प्रकार वहन कर सकने की स्थिति में रह पा रही है। उसके माध्यम से समय की माँग को पूरा कर सकने की आशा यत्किंचित ही उभरती है।

दिखाई सब ओर अँधेरा ही दीखता है फिर भी समय की आवश्यकता एक ही है कि तीसरी युगशक्ति का नए सिरे से जागरण हो। उसे नए सिरे से सोचने का अवसर मिले। वह अपनी सामर्थ्य को समझे और जागरूकता अपनाकर ऐसा कुछ करे ताकि जन साधारण अपनी भविष्य निर्माता की भूमिका सम्पन्न करने में प्राणपण से प्रयत्नरत कटिबद्ध दिखाई देने लगे।

तीसरी शक्ति का अर्थ है-”जनशक्ति”। यही है दूसरे शब्दों में युगशक्ति। इसी के माध्यम से प्रस्तुत समस्याओं, उलझनों, कठिनाइयों एवं विकृतियों का निराकरण हो सकेगा। मूर्धन्य लोग अपने लिए उपयुक्त एवं पर्याप्त साधन उपलब्ध आधारों के सहारे सँभालते है। कठिनाई उनके सामने है, जो पिछड़ी या सामान्य स्थिति में रहकर अपने निर्वाह की व्यवस्था बनाने में ही जुटे रहते है और कुछ अधिक शानदार सोचने के लिए न समय ही निकाल पाते है और न प्रेरणायें ही प्राप्त करते है।

सुसम्पन्नों एवं मूर्धन्यों की संख्या समाज में दस बीस प्रतिशत से अधिक नहीं हे। शेष तो सामान्य स्तर के लोग ही कहे जा सकते है। वस्तुतः यही है जनशक्ति। इसी को समझा जा सकता है-शक्ति, समृद्धि और प्रगति का अक्षय भण्डार। किन्तु किया क्या जाय? मूर्छित स्थिति में पड़े रहने पर तो कोई योद्धा भी अर्धमृतक की स्थिति में बना पड़ता रहता है। मक्खी-मच्छर भी उसे काटते रहते है। कोई गाली देता रहे, चोरी करता रहे तो भी मन पर प्रभाव नहीं पड़ता। कपड़े बदन पर से हट जाँय और बेपर्दगी बन पड़े तो भी उस निद्राग्रस्त को कुछ पता नहीं चलता और जीवित होते हुए भी कुछ भी ऐसा नहीं कर सकता जो करने योग्य है।

जनशक्ति के शक्ति-स्त्रोत को कुछ करने की स्थिति में पहुँचाया-जगाया जा सके तो एक ऐसी क्षमता का उद्भव दृष्टिगोचर हो सकता है, जिसके सामने अब तक प्रकाश में आई सभी शक्तियाँ गौण दृष्टिगोचर होंगी। सम्पन्नता, सत्ता और विद्वता की सामर्थ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता। विशेषतया आज की परिस्थितियों में, जब कि संसार भर के प्रमुख सशक्त साधन उसी वर्ग के हाथ में है।

यहाँ किसी वर्ग पर कटाक्ष या दोषारोपण नहीं किया जा रहा हैं। मात्र स्वाभाविकता की चर्चा हो रही है। जागरूक, क्रियाशील और पुरुषार्थ-परायण ही अभीष्ट सफलताएँ प्राप्त करते है। उपार्जन को परमार्थ में लगाया जाय यह सिद्धान्त तो देववर्ग का है। सामान्य स्तर की रीति-नीति यही है कि अपना वैभव अपने सुख साधनों के लिए प्रयुक्त किया जाय। इसी प्रथा का प्रचलन सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। फिर प्रवाह को रोका कैसे जाय? वनराज, गजराज ही सुविस्तृत वन प्रदेश पर अपना अधिकार जमाये दिखाई देते है। अन्यों को तो उनके अनुग्रह पर जीवित रहना पड़ता है।

यहाँ चर्चा उस बहुसंख्यक जन-समुदाय की हो रही है जो वस्तुतः सर्वतोमुखी शक्ति का अजस्र भण्डार है। समस्त प्रकार की सामर्थ्य इसी मध्यवर्ती वर्ग में सन्निहित है। वनस्पतियाँ खाकर समस्त प्राणी जीवित है। खाने वाले दहाड़ते और द्वन्द्व मचाते देखे जाते है पर घास की महत्ता समझने की चेष्टा नहीं की जाती जिसको उदरस्थ करके प्राणी अपनी-अपनी कुशलता और विशेषता का प्रदर्शन करते है। गाय दूध देती है पर वस्तुतः वह घास का उत्पादन है। घोड़ा दौड़ लगाता है पर वस्तुतः घास द्वारा प्रदत्त शक्ति ही हे। मनुष्य बुद्धिमान कहलाता है पर बुद्धि भी खेतों में उपजने वाली अनाज वर्ग की उत्पत्ति का ही प्रतिदान है। अमृतोपम जड़ी बूटियाँ और कुछ नहीं, मात्र घास वर्ग की सदस्य ही है। जन शक्ति ही है जिसकी क्षमता का थोड़ा-थोड़ा अंश लेकर सत्ता, विद्वता, सम्पन्नता, कला के क्षेत्र में काम करने वाले तथा कथित मूर्धन्य प्रभावशाली लोग अपना वर्चस्व बढ़ाते है, समर्थ भाग्यशाली कहलाते है।

शासन का राजस्व तथा मिलने वाले टैक्सों से भण्डार भरते है। उस तंत्र के अंतर्गत विभिन्न गतिविधियों का संचालन होता है। यह सब और कुछ नहीं, जनशक्ति के एक छोटे से अनुदान का विस्तार मात्र है। पूँजी आसमान से नहीं गिरती। लोग वस्तुयें खरीदते है और उसी के सहारे कारखाने चलते और उद्योगपतियों को सुसम्पन्न बनाते है। विशालकाय कारखानों की श्रृंखला खड़ी करते है। साहित्यतंत्र, कलामंच, धर्मतन्त्र जैसे अनेकों प्रतिष्ठान जनशक्ति के द्वारा दिए गए छोटे-छोटे सहयोगों पर ही उत्पन्न होते एवं फलते-फूलते है।

इतने अधिष्ठानों का पोषण करते हुए भी जनशक्ति का अजस्र भण्डार चुकता नहीं। प्रजाजन अपना तथा अपने परिवार का निर्वाह भी भली प्रकार करते रहते है और थोड़ा बहुत आमोद-प्रमोद, सुविधा-साधन एवं बचत आवश्यकताओं के लिए भी कुछ जमा करते रहते है। चन्दा, चुंगी, टैक्स आदि के लिए बहुत कुछ देते रहने पर भी इस अन्नपूर्णा जनशक्ति का भण्डार न अब तक चुका है और न कभी भविष्य में चुकेगा ही। यह सदा अक्षुण्ण ही बनी रहेगी।

अब नवयुग की अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इसी जनशक्ति का आश्रय लिया जाना है। उसके पास शक्ति के, सम्पदा के अजस्र भण्डार भरे पड़े है। कठिनाई एक ही है कि वे बिखर गए है और किसी सुनियोजित उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए प्रयुक्त नहीं किए गए है। बिखराव से तो हर वस्तु छिन्न-भिन्न हो जाती है और अपना मूल्य गवाँ बैठती है किन्तु यदि उस भूल को सुधारा जा सके तो एकीभूत क्षमता ऐसे प्रयोजन पूरे कर सकती है, जिन्हें अद्भुत, आश्चर्यजनक और अभूतपूर्व कहा जा सके।

कथा है कि हारे हुए देवताओं को जिताने के लिए प्रजापति ने उन सब की शक्तियों का थोड़ा-थोड़ा अंश लेकर संघबद्ध किया था। उससे प्रचण्ड चण्डी महाकाल की अधिष्ठात्री काली का अवतरण हुआ। उसी ने उन सभी विपत्तियों का निराकरण कर दिया। जिनके कारण सर्वत्र हाहाकार संव्याप्त था। नवयुग की जिन समस्याओं का हल और सुविधाओं का संवर्धन करना है, उसकी आवश्यकता की पूर्ति यह नव-जागृत-शक्ति ही पूरा करेंगी, जिस का नाम तीसरी शक्ति भी दिया जा सकता है।


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