एक चोर किसी सन्त के पास नित्य जाता, कहता भगवान के दर्शन करा दीजिए। बाबा उसे टालते रहे। पर एक दिन वह मरने-मारने पर उतारू हो गया। आप पहुँचे हुए सन्त है फिर क्यों नहीं करा देते?
टालमटोल में काम चलता न देख कर सन्त ने उसे कल प्रातः काल बुलाया। वह नियत समय पर पहुँचा। कहा गया सामने वाली ऊँची टेकरी पर से भगवान के दर्शन होंगे,। वह छः पत्थर सिर पर रख कर ले जाने पड़ेंगे, पूजा विधान के लिए। चोर तैयार हो गया। पत्थर सिर पर रखकर धीरे-धीरे पहाड़ी के शिखर पर चलने के लिए प्रयत्न करने लगा। थोड़ी दूर चल कर चोर ने कहा यह तो बहुत भारी है, इतना वजन लेकर चलना चढ़ना दोनों काम नहीं हो सकते। सन्त ने एक पत्थर उतार दिया। पाँच को लेकर आगे चला। पर फिर भी दूर तक न चला जा सका। अस्तु एक और उतारना पड़ा। यही क्रम आगे भी चलता रहा। अन्त में जब सभी पत्थर हटा दिये गये तब कहीं शान्त चित्त चलना और चढ़ना संभव हो सका।
शिखर पर दोनों पहुँचे। एक शिला पर बैठ कर सुस्ताने लगें, साथ ही सन्त ने मार्मिक उपदेश भी दिये कि जिस प्रकार छः पत्थर लेकर इस शिखर तक पहुँच सकना संभव नहीं हो सका। उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर सभी छः अंधों को सिर पर लादे हुए कोई भगवत् प्राप्ति का आनन्द नहीं ले सकता। मार्ग एक ही है कि इन षट् शत्रुओं से छुटकारा पाकर मलीनता का परिशोधन किया जाय। जो इतना कर लेते है उनके लिए भगवान को प्राप्त करना इतना ही सरल है जितना कि भार रहित स्थिति में इस शिखर तक चढ़ जाना।
चोर का समाधान हो गया उसने दर्शन की रट लगाना बंद कर दिया और अपने गुण, कर्म स्वभाव में सात्विकता के समावेश करने के प्रयत्न में जुट गया।