कायाग्नि के भड़कते शोले

April 1989

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भौतिक जगत में शक्ति स्त्रोत के साधनों में अग्नि, ताप, गैस, तेल, विद्युत, परमाणु और लेसर आदि का जितना महत्व है, उससे कहीं अधिक उपयोगिता प्राणियों के लिए उस प्राण ऊर्जा की है, जो उनके शरीरों में पाई जाती है। मानवी काया तो इस विद्युत-शक्ति का अजस्र भाण्डागार है। शरीर का सारा क्रिया-कलाप उसी ऊर्जा संचार के माध्यम से गतिशील रहता है। हमारा नाड़ी संस्थान पूर्णतया जैव विद्युतधारा से ही सुसंचालित होता है। मस्तिष्क ही वह बिजलीघर है जहाँ से शरीर के समस्त अंग अवयवों को विद्युतधारायें पहुँच कर सारा क्रिया-कलाप नियंत्रित करती है। इस विद्युत-प्रवाह को ई.ई.जी. तथा ई.सी.जी. जैसे यंत्र उपकरणों पर देखा मापा जा सकता है। लौह चूर्ण और चुम्बक जिस प्रकार परस्पर चिपके रहते हैं उसी प्रकार हमारी जीवसत्ता काया के समस्त जीवकोषों को इस माध्यम से परस्पर संघटित किये रहती है। उनकी सम्मिश्रित चेतना से जीव संचार व्यवस्था कायम रहती है।

शरीर में कार्यरत प्राण विद्युत की गर्मी से ही विभिन्न अंग अवयव सक्रिय बनते और अपना-अपना काम करते रहते है। इस ऊर्जा का प्रभाव शरीर संचालन तक सीमित रहता है। किन्तु कुछ अपवाद ऐसे भी मिले है जिनमें शरीरगत ऊष्मा ने याँत्रिक बिजली की भूमिका निबाही और उस जैसे ही स्पर्शकर्ता को झटके महसूस हुए। सोसाइटी आफ फिजिकल रिसर्च के अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों ने विश्व में ऐसे सैकड़ों व्यक्तियों को खोज निकाला है जिन्हें विद्युत आवेशधारी कहा जा सके। उनके अनुसार यह सामान्य-सा शारीरिक व्यतिक्रम है जिसमें जीवकोषों के आवरण ढीले पड़ जाते है और उनमें निहित विद्युत आवेश ‘लीक’ करने लगते है। अकारण भी किसी में यह अनायास प्रकट हो जाते है। प्रयत्नपूर्वक इसे उभारा भी जा सकता है।

कितनी ही बार यह विद्युत इतना भयावह रूप धारण कर लेती है कि स्वयं को ही जलाकर भस्म कर देती है। विज्ञान की भाषा में इसे “आटो-कम्बशन” स्वतः दहन कहा जाता है। जिसके कारणों को विज्ञानवेत्ता अभी तक नहीं जान पाये है। चेम्सफोर्ड, इंग्लैण्ड में सन् 1983 में एक ऐसी ही घटना घटित हुई जिसमें नृत्य करती हुई एक महिला के शरीर से अनायास आग के शोले फूट पड़े। दर्शक भय के कारण इधर-उधर भागने लगे। उसे बचाने के सभी रक्षात्मक उपाय उपचार व्यर्थ गये। देखते-देखते वह युवती राख के ढेर में बदल गई।

इंग्लैण्ड के ही बर्मिघम प्रान्त में पिछले दिनों दो शिशु स्वतः दहन के शिकार हो गये। इनके अचानक रहस्यमय आग स जल जाने की घटना को वहाँ के प्रमुख पत्रों ने प्रकाशित किया था। 1973 में हुई एक घटना के अनुसार सात महीने की परमिंदर कौर अपने पिता के कमरे में झूले में बैठी थी। एकाएक उसके शरीर से अग्नि-ज्वाला फूट निकली और नीली लपटों ने उसे चारों ओर से घेर लिया। पिता को किसी तरह अग्नि बुझाने में सफलता मिली और उसे बर्मिघम के अस्पताल में भर्ती कराया। अग्निकाण्ड का कारण अज्ञात ही बना रहा। इसी तरह की एक अन्य घटना का विवरण बर्मिंघम से प्रकाशित पत्रिका-”ईवनिंग मेल” के 26 अगस्त 1974 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसके अनुसार 6 माह की लिसा टिप्टन अपने ही शरीर की ज्वाला से जलकर भस्म हो गई थी। पर आश्चर्यपूर्वक शरीर से लिपटे कपड़ों में से अधिकाँश बच गये थे।

मनुष्यों के स्वतः जल जाने की प्रक्रिया पर अनुसंधान कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले 400 वर्षों के भीतर संसार भर में स्वतः मानव दहन की घटनायें 200 से भी अधिक संख्या में प्रकाश में आई है। इस तरह से मरने वालों की आयु 4 माह से लेकर 114 वर्ष तक थी, जिसमें नर-नारी दोनों ही वर्गों की संख्या लगभग समान थी। सिद्ध योगियों के बारे में प्रचलित है कि इच्छानुसार अपनी पंचभौतिक काया को वे योगाग्नि को समर्पित कर देते थे। सती का योगाग्नि में दहन एक पौराणिक सत्य है। यह मान्यता आज भी सही हो सकती है। किन्तु जब जन सामान्य चलते-फिरते, नाचते-गाते,मोटर-गाड़ी

चलाते हुए अपने ही शरीर से फूट पड़ी अज्ञात ज्वाला से भस्मीभूत हो जाते है तो उसका कोई कारण समझ में नहीं आता।

सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता चार्ल्स फोर्ट ने इस संदर्भ में गहरी छानबीन की है और सन् 1861 के पश्चात् हुए आकस्मिक अग्नि प्राकट्य स जल जाने वालों का विस्तृत विवरण अपनी पुस्तक में प्रकाशित किया है। इनमें से बहुचर्चित एवं सर्वाधिक रहस्यमय घटना पैनासिलवानिया के वेस्ट फिलेडेल्फिया की 18 वर्षीय एक विधवा का है। 18 मई 1957 को अन्ना मार्टिन नामक यह महिला अपने एक कमरे में जली हुई अवस्था में पाई गई थी जहाँ अग्नि का कोई स्त्रोत भी नहीं था। उसके मात्र जूते ही शेष बचे थे। समीप पड़ा अखबार आग से अछूता था।

इसी तरह की एक अद्भुत घटना का विवरण विख्यात नृवंशवेत्ता डा0 विल्टन क्रागमैन ने “द जनरल मैगजीन एण्ड हिस्टोरिकल क्रोनिकल” में प्रकाशित किया है। उसके अनुसार 1 जुलाई 1951 को .... के सेंटपीटर्सवर्ग में मेरी हार्डी रीसर नामक 67 वर्षीय वृद्धा कुर्सी पर बैठे-बैठे जल कर राख हो गई थी। अवशेष के रूप में मात्र कुर्सी के स्प्रिंग और उसकी खोपड़ी बची थी जो सिकुड़ कर छोटी सी गेंद की शक्ल में बदल गई थी। निरीक्षण कर्ता डा0 क्रागमैने का कहना है कि किसी भी व्यक्ति के अस्थिपिंजर को जलाने गलाने के लिए 3 हजार डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक की गर्मी चाहिए। फिर भी कपाल का इस स्थिति में मिलना और इतने उच्च ताप पर समीप पड़े समाचार पत्र तथा रेशमी चादर का न जलना अपने आप में रहस्यमय पहेली थी।

सितम्बर 1966 की ठिठुरनभरी एक रात को उत्तरी पैनसिलवानिया के काउडस्पार्ट नगर में वहाँ के जाने माने 92 वर्षीय चिकित्सक डा0 जे0 इरिविंग .... अपने घर में एकाएक कायाग्नि के भड़क उठने से राख में परिवर्तित हो गये थे। मात्र उनके दायें पैर का घुटने से नीचे वाला हिस्सा ही खोजने पर मिल सका था। इसका पता तब चला जब उनके एक सहयोगी डा0 गाँसनेल उस कमरे में प्रविष्ट हुए जहाँ से हल्के-मीठे गंधयुक्त नीला धुंआ निकल रहा था। अस्वाभाविक मौतों के कारणों का अन्वेषण करने वाले चिकित्साशास्त्री डा0 ग्रेनोबल के कथनानुसार किसी लाश को जलाने के लिए कम से कम 2200 डिग्री फारेनहाइट तापक्रम की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु डाक्टर बेंटली अत्यधिक ठंड में जिस तरह जलकर मृत्यु को प्राप्त हुए वह अपने आप में विचित्र घटना है।

“एक्टा मैडिका एण्ड फिलोसोफिका हैपनैशिया” नामक प्रसिद्ध पुस्तक में एक शराबी व्यक्ति के अचानक अपनी ही देह की ज्वाला से जलकर मर जाने का उल्लेख है। पेरित का रहने वाला यह व्यक्ति बेहद पियक्कड़ था। एक रात चटाई पर पड़े-पड़े ही स्वतः दहन का शिकार बन गया। चटाई भी आधी झुलस गई थी।

फ्लोरिडा से प्रकाशित मेडिकल जनरल के अनुसार अमेरिका में अब तक इस तरह की सौ से अधिक मृत्युएँ हो चुकी है। इसमें वैज्ञानिकों ने हैरानी प्रकट की है कि मनुष्य शरीर में 73 प्रतिशत भाग जल होता है। उसे जलाने के लिए 5000 डिग्री फारेनहाइट की ऊर्जा चाहिए। वह अचानक शरीर में कैसे पैदा हो जाती हे। शरीर कोषों में अग्नि स्फुल्लिंग “प्रोटोप्लाज्म” में सन्निहित तो रहते है किन्तु वे इतने व्यवस्थित रहते है कि शरीर के जल जाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। प्रोटोप्लाज्म उच्च प्लाज्मा में बदलने पर ही अग्नि बन सकती है। यह सब एकाएक कैसे घटित हो जाता है और इतनी तीव्र आग की लपटें फूट पड़ती है कि जलाँश अधिक मात्रा में रहने पर भी काया भस्मीभूत बन जाती है। इस रहस्य को वैज्ञानिक अभी तक नहीं समझ सके है।

मानवी काया रहस्यमय तो है ही, अपनी जटिल संरचना के कारण विलक्षण अद्भुत है। सूक्ष्म संरचना का जाल जो साधना विज्ञान में नाड़ी गुच्छकों, चक्र उपत्यिकाओं, प्राणाग्नि-योगाग्नि-कुण्डलिनी आदि के नाम से जाना जाता है, संभव है स्वतः दहन की इन घटनाओं से जुड़ा हो। अभी शरीर के इस सूक्ष्म विद्युत संस्थान पर शोध की काफी गुँजाइश है, ऐसी चुनौती अपवाद स्वरूप होते रहने वाले ये घटनाक्रम देते है।


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