अपने आप में अनोखी कला (Kahani)

April 1989

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राजा चित्रकेतु का इकलौता बेटा मर गया। वह सुन्दर भी था और सद्गुणी भी। अभिभावक ही नहीं दूसरे भी उसे असीम प्यार करते थे। मरने पर सभी शोकाकुल भी थे। राजा इस शोक से विह्वल होकर मरणासन्न होता जाता था।

महर्षि धौम्य उधर से निकले। वे अपने समय के परम तपस्वी भी थे। शोक समाचार सुनकर साँत्वना देने राजमहल पहुँचे। उस परिवार से उनकी घनिष्टता भी थी। शोकातुर परिवार ने महर्षि से प्रार्थना की कि यदि मृतक जीवित नहीं हो सकता तो उसकी आत्मा को बुला कर एक बार दर्शन तो करा दिया जाय। महर्षि ने कहा मैं बालक को जानता नहीं। राजा का सूक्ष्म शरीर साथ लेकर स्वर्ग जा सकता हूँ। वहाँ वे अपना पुत्र पहचान लें। यदि वह आने को रजामंद हो तो उसकी आत्मा को साथ लेते आवें। चित्रकेतु प्रसन्न हुए और महर्षि के साथ मृत्युलोक के लिए चल पड़े।

चित्रकेतु ने पुत्र की आत्मा पहचान ली। उससे लिपट कर रोये भी। पर बालक की आत्मा असमंजस में पड़ गई। उसने कहा-मुझे यहाँ आकर सौ जन्मों की स्मृति जाग पड़ी है। सौ पिता और सौ माता मुझे स्मरण आते है आप कौन-से जन्म के मेरे पिता है और आपका नाम क्या है और निवास कहाँ है?

राजा गंभीर हो गये। उनने समझ लिया कि जीवित रहने तक के ही नाते रिश्ते है इसके बाद तो आत्मा एकाकी एवं सर्वत्र बन जाती है।

चित्रकेतु ने पुत्र की आत्मा से आग्रह करना उचित न समझा और शोकमुक्त होकर वापस लौट आये। उनने राजमहल में सब लोगों को वह विवरण सुनाया और उन्हें भी बीते को विसार देने की शिक्षा दी।

दाँत चाहे कितने ही टूटे, टेड़े क्यों न हों पर जब वे मुस्कान के कारण अपनी स्वच्छता, चमक को होठों का पर्दा उठा कर तनिक सी झाँकी देने लगते हैं तो उनकी स्थिति खिले फूल जैसी हो जाती है फूल जब कली की स्थिति में होता है या मुरझा जाता है तो दोनों ही परिस्थितियों में वे अनाकर्षण लगते हैं पर जब खिली हुई नवयौवना जैसी स्थिति होती है तो सुन्दरता की आभा निखरने लगती है। ऐसे लोगों के संपर्क में आने के लिए, मित्र भाव बनाने के लिए हर किसी का मन चलता है। दर्पण के सहारे इस अभ्यास को कोई भी करता और सफलता की दिशा में चलता रह सकता है।

होठों के उपरान्त सौंदर्य का दूसरा केन्द्र है-आँखें। आँखों में सुरमा काजल आँजने की आवश्यकता नहीं है। वे जैसी भी कुछ अपनी बनावट के अनुसार हैं, अपनी जगह ठीक हैं। पर उनकी विशेषता यह है कि जिसकी ओ निहारती हैं, उसके साथ अपने संबंधों को प्रकट करती हैं। बच्चों के प्रति वे वात्सल्य प्रकट करती हैं, मित्रों के मिलने पर प्रसन्नता, बड़ों के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति मात्र इतने से ही प्रकट हो जाती है कि दोनों आँख खोलकर एक दूसरे को देख भर लें। मित्रता का आत्मीयता का परिचय सहज ही मिल जाता है। मैत्री का आकर्षण, आमंत्रण एवं उभार प्रकट करने में आँखें अपनी महती भूमिका निभाती हैं। उपेक्षा, अवज्ञा एवं शत्रुता का भी इसी माध्यम से प्रकटीकरण होता रहता है। आँखें, मस्तिष्क और भाव संस्थान की खुली खिड़की है जिनमें होकर किसी के अन्तराल को समझने के लिए गहराई तक प्रवेश किया जा सकता है।

आत्मीयता की, मित्रता की दृष्टि से संपर्क में आने वाले लोगों को देखना आरंभ किया जाय-अपनी नम्रता और दूसरे के प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित किया जाय तो विरानों को भी अपना बनाया जा सकता है।

अपरिचितों को परिचितों की श्रेणी तक ले जाय जा सकता है। परिचित अधिक घनिष्ट एवं आत्मीय बन सकते हैं।

यों समूचे चेहरे पर मँडराती रहने वाली अनेकानेक भावभंगिमाएँ मनुष्य का भीतरी अभिप्राय प्रकट करती रहती हैं। तो भी होंठ और नेत्र यह दोनों ही माध्यम जितनी अच्छी तरह इस उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, उतने दूसरे अवयव नहीं। सद्भावना, प्रसन्नता के प्रकटीकरण का अभ्यास निरन्तर करते रहा जाय तो वे दोनों ही अपना प्रयोजन साधनों में प्रवीण बन जाते हैं। सुन्दरता में चार चाँद लगा देते हैं।

स्वच्छता सर्वांगीण सौंदर्य का प्रत्यक्ष प्रतीत है। भड़कीले आवरण धारण करने की अपेक्षा सादगी और स्वच्छता का परिचय देते रहने से न केवल सुन्दरता बढ़ती है, वरन् उससे शालीनता सुसंस्कारिता का भी परिचय मिलता है।

मधुर भाषण अपने आप में अनोखी कला है जो न केवल दूसरों का ध्यान आकर्षित करती है वरन् उनका मन भी मोहती है। मनों में अपने लिए जगह बनाती है। मधुर भाषण के कुछ थोड़े से ही आधार हैं जिन्हें समझा और स्वभाव में उतारा जा सके तो दूसरों पर अपनी गरिमा की छाप छोड़ी जा सकती है। इनमें से एक है विनयशीलता दूसरी है दूसरों के सद्गुणों की सतकृत्यों की मुक्त-कंठ से प्रशंसा। इसमें कृपणता बरतने पर यह प्रकट नहीं होता कि आगन्तुक के प्रति मन में समुचित सद्भाव है। मिलन संभाषण में बरते जाने वाले शिष्टाचार को, बड़े लोगों के पारस्परिक व्यवहार को देखकर सीखा, समझा और अपनाया जा सकता है। व्यवहार कुशलताओं में सबसे बढ़कर है-”शिष्टाचार का निर्वाह” जो उसमें प्रवीणता प्राप्त कर लेते हैं वे कुरूप होते हुए भी सुन्दर लगते हैं।


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