विचारों की विधेयात्मक शक्ति

April 1989

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विचारों की शक्ति पर अपने समय में काफी विचार हुआ है और यह माना गया है कि ध्वनि, प्रकाश और ताप की तरह चेतना क्षेत्र में विचारों की भी एक जीवन्त शक्ति है। इसकी महत्ता मानते हुए अध्ययन अध्यापन का क्रम चला है। स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था हुई है। परामर्श और प्रवचन की शैली का विकास हुआ है। सही सोचने के सत्परिणाम और गलत ढंग से सोचने के दुष्परिणामों का विस्तारपूर्वक विवेचन हुआ है।

विचारों ने विचारों का काटा है और विचारों ने विचारों का समर्थन एवं पोषण किया है। एकता और विग्रह के मूल में सशक्त विचारों को ही काम करते पाया है। व्यक्तियों और समाजों को ऊँचा उठाने और नीचे गिराने में विचारों की असाधारण भूमिका रही है। पिछली शताब्दी में दो महान क्रान्तियाँ हुई हैं। एक में राजतंत्र की अनुपयुक्तता सिद्ध करके उसके स्थान पर जनतंत्र की महत्ता प्रतिपादित की है। रूसो के इस प्रतिपादन को समस्त संसार में आँधी तूफान जैसी मान्यता मिली। इसके थोड़े ही समय उपरान्त शासन का स्वरूप साम्यवाद परक हो, इसकी वकालत कार्लमार्क्स ने की और वे विचार आज आधे से अधिक जन समूह में मान्यता प्राप्त कर चुके हैं। शासन को छोड़कर समाज का स्वरूप निर्धारण करने में विचारों की प्रचण्ड लहरें अपना जादुई प्रभाव प्रस्तुत करती रही हैं। दास प्रथा का उन्मूलन, नारी को समानता के अधिकार, जन साधारण के मौलिक अधिकारों की मान्यता विचारों की प्रचण्ड लहरों के फलस्वरूप ही सींव हो सकी। कारखानों में मजूरों के अधिकारों की मान्यता जैसे परिवर्तन इन्हीं दिनों व्यवहार में आये हैं। नर-नारी की समानता, जमींदारी उन्मूलन जैसे कार्यों के लिए कोई बड़े संघर्ष नहीं हुए, विचारों के तीव्र प्रवाह ने ही इन्हें सहज संभव कर दिखाया। सहकारी, आन्दोलन की स्थापना और प्रगति ने जमींदारी, साहूकारी प्रथाओं को उखाड़ फेंका। छूत अछूत का भेदभाव समाप्त होना प्रगतिशील विचारों का ही प्रतिफल है।

कुछ समय पहले तक मान्यता थी कि धनबल, बाहुबल और शस्त्रबल ही किसी की प्रगति का आधार हैं। अब वह सामंती विचारणा पीछे पड़ गई और माना जाने लगा है कि व्यक्तिगत जीवन का उत्थान-पतन विचारों की उत्कृष्टता निकृष्टता पर निर्भर है। अब समाज सैन्यबल पर नहीं विचार बल पर समर्थ और दुर्बल बनते हैं। विचार विनिमय अब कूटनीति का भी एक महत्वपूर्ण पहलू बन गया है। राष्ट्रों और जातियों की मजबूती और कमजोरी में विचारधारा की प्रमुखता की प्रधान भूमिका रहती है। व्यक्ति निजी जीवन में किस कारण उठता गिरता हैं इसे अब विचारों के आधार पर निर्भर मान लिया गया है। शासन सत्ताएँ इसी आधार पर आये दिन उलट-पुलट होती रहती हैं। जन मानस को दिशा दे सकने में समर्थ व्यक्तियों को अब सच्चे अर्थों में बलवान माना जाने लगा है। पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों को अब मनोरंजन का विषय नहीं सामर्थ्य का पुँज माना जाने लगा है।

विचार-माध्यम से ही विज्ञान का आविर्भाव हुआ है। विज्ञान की अनेकानेक शाखा प्रशाखाओं का आज प्रचलन हैं उनके प्रयोग परीक्षण के लिए यंत्र उपकरणों का निर्माण हुआ है किन्तु उसके मौलिक आविष्कार की रूपरेखा चिन्तन के माध्यम से ही संभव हुई है। विज्ञान का प्रयोग मशीनों के माध्यम से होता है। पर उन मशीनों का आविष्कार, आविर्भाव मनुष्य के बुद्धिबल से ही हुआ है। आकाशगमन, उपग्रह, कम्प्यूटर, अणु शक्ति आदि अनेकों, एक से एक विचित्र विज्ञान की शाखाएँ कार्यरत दिखाई पड़ती हैं। पर यह सब आकाश से नहीं टपका है। मनुष्य के चिन्तन ने ही इनका सूत्रपात किया है और उन्हें क्रियारत होने की स्थिति तक पहुँचाया है।

विचार विज्ञान की ही एक शाखा श्रद्धा है। इसके वैज्ञानिक प्रयोग हिप्नोटिज्म माध्यम से होते हैं। व्यक्ति को सम्मोहित करके उसके बिना दर्द के आपरेशन होने लगे हैं। दाँत उखाड़ने में तो यह कला बहुत आगे बढ़ गई हैं सूत्र करके दाँत उखाड़ने की अब आवश्यकता नहीं पड़ती जादुई खेलों में इसका अच्छा खासा उपयोग होता है। दर्शकों के समूह में मतिभ्रम उत्पन्न करके कुछ के बदले कुछ दृश्य दिखाये जाते हैं। रस्सी पर मनुष्य का चढ़ जाना और ऊपर से शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके गिराना। बाद में असली शरीर को ज्यों का त्यों दिखा देना। हिप्नोटिज्म का खेल है। इस दिशा में अब भारी प्रगति हो चुकी है।

यह साधारण खेल खिलवाड़ जैसी बात हुई। शारीरिक और मानसिक चिकित्सा में अब इस विद्या के महत्वपूर्ण प्रयोग होने लगे हैं। यह श्रद्धा विज्ञान का एक अंश है। भूत, प्रेत और देवी देवताओं द्वारा विचित्रताएँ प्रदर्शित होने और लाभ हानि के प्रतिफल सामने आने की घटनाएँ श्रद्धा पर अवलम्बित हैं। “शंका डाकिन मनसा भूत” की उक्ति शत प्रतिशत चरितार्थ होती है। रात्रि के अँधेरे में डरपोक व्यक्तियों को झाड़ी भूत बनकर दिखाई देती है। पीपल के पत्तों की खड़खड़ाहट में ऐसा डर लगता है जिससे भयभीत होकर कई व्यक्ति बीमार पड़ जाते और हृदय की धड़कन बन्द हो जाने जैसी विपत्ति के ग्रास बन जाते हैं।

पारिवारिक सम्बन्धों में छोटों को बड़ों के प्रति जो विश्वासयुक्त प्रेम होता है उसे भी श्रद्धा कहते हैं। बच्चों का अभिभावकों के प्रति, पत्नी का पति के प्रति, छात्रों का गुरुजनों के प्रति जो गहरा सद्भाव है। वह श्रद्धा कहा जाता है। यह अनुशासन के रूप में दृष्टिगोचर होता है। यह सद्गुण है। इसका परिणाम दोनों पक्षों के लिए श्रेयस्कर होता है। यदि छोटे बड़ों के प्रति श्रद्धा रखेंगे तो उसके कार्यों के प्रति गहरी सद्भावना रहेगी। जो कहा गया है, पढ़ा गया है उस पर गहरी आस्था रहेगी और कथन हृदयंगम होता चला जायगा। बदले में बड़ों का सहज वात्सल्य भी मिलेगा। दोनों ओर का यह आदान-प्रदान शिक्षा की सफलता के लिए श्रेयस्कर है। इसका प्रतिफल अनुशासन के रूप में दृष्टिगोचर होगा। ऐसे परिवारों में सद्भाव का सहज आदान-प्रदान होता रहता है और दोनों पक्ष एक दूसरे के लिए असाधारण सहायक सिद्ध होंगे। इसमें दोनों पक्षों का हित है।

महापुरुषों के सम्बन्ध में श्रद्धा होने का अर्थ है उनके जीवन से प्रभावित होना। उनकी शिक्षाओं का हृदयंगम करना उनके निर्देशों और क्रिया-कलापों में हाथ बँटाना। इससे परोक्षतः महापुरुषों को भी अपने मिशन का विस्तार करने में सहायता मिलती हैं उनकी शिक्षाओं से लोग अधिक लाभ उठा पाते हैं। श्रद्धा जो व्यक्तियों को परस्पर जोड़ने का सर्वोत्तम माध्यम है। मित्रों के बीच छोटे बड़े का अन्तर रहने पर भी गुणों के आधार पर गहरी श्रद्धा हो सकती है। यह सामान्य मित्रता से बहुत आगे की चीज है।

आदर्शों के प्रति श्रद्धा होने का अर्थ है कि उनका परिपालन भली प्रकार हो सकेगा और निभ सकेगा। आदर्शों की सामान्य जानकारी समझना और औचित्य मानना एक बात है और श्रद्धा होना दूसरी। जिन सिद्धांतों के प्रति श्रद्धा होगी व्यक्ति उन्हें तोड़ने के लिए ललचायेगा नहीं वरन् दृढ़ता पूर्वक उनका निर्वाह करता रहेगा। यदि मान्यता उथली है तो कहा नहीं जा सकता कि परीक्षा की घड़ी आने पर वह निभेगा या नहीं।

अध्यात्म क्षेत्र में तो श्रद्धा ही सफलता का मूलभूत आधार है। किसी देवता या मंत्र के प्रति श्रद्धा है तो उसकी सामान्य साधना बन पड़ने पर भी उसके चमत्कारी परिणाम होते हैं। इसके विपरीत श्रद्धा के अभाव में कोई उपासनात्मक कर्म-काण्ड ढेरों समय लगाकर करते रहने पर भी कहने लायक प्रतिफल नहीं होता।

रामायण में श्रद्धा को भवानी और शिव को विश्वास की उपमा दी है और कहा है कि इन दोनों के बिना हृदय में विराजमान होते हुए भी इष्ट देव का दर्शन, अनुग्रह नहीं होता। इससे प्रकट है कि जितनी किसी देवता या मंत्र में शक्ति है उसकी तुलना में सघन श्रद्धा किसी प्रकार कम नहीं पड़ती।

किसी कार्य की गरिमा के प्रति श्रद्धा रखते हुए सच्चे मन और पूरे परिश्रम के साथ जुड़ जाना सफलता का सुनिश्चित पथ प्रशस्त करना है।


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