श्रद्धा मानवी गरिमा का उत्कृष्ट अलंकार

April 1989

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मानव जीवन को किसी निर्दिष्ट ढाँचे में ढाल देने वाली सबसे प्रबल एवं उच्चस्तरीय शक्ति का नाम “श्रद्धा” है। यह अन्तःकरण की दिव्यभूमि में उत्पन्न होकर समस्त जीवन को हरियाली से सजा देती है। श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था का नाम ही “श्रद्धा” है। यह जब सिद्धांत एवं व्यवहार में उतरती है। तो उसे “निष्ठा कहते है। जब वही आत्मा के स्वरूप, जीवन दर्शन एवं ईश्वर भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करती है तो श्रद्धा कहलाती है। ईश्वर प्राप्ति के लिए आत्मकल्याण के लिए इस शक्ति का उभार एवं अवलम्बन आवश्यक है। रामायण में श्रद्धा को भवानी और विश्वास को शंकर की उपमा देते हुए कहा गया है कि इनकी सहायता के बिना अन्तरात्मा में बैठा हुआ परमात्मा किसी को मिल नहीं सकता।

श्रद्धा के अभिसिंचन से पत्थर में भी देवता का उदय संभव हो जाता है। एकलव्य ने मिट्टी की द्रोणाचार्य की प्रतिमा द्वारा उतनी शिक्षा प्राप्त कर ली थी, जितनी पाण्डव जीवन्त द्रोणाचार्य से भी प्राप्त न कर सके। मीरा, सूर, तुलसी का भगवत दर्शन-रामकृष्ण परमहंस का काली साक्षात्कार उनकी गहन श्रद्धा के आधार पर ही संभव हुआ था। ईश्वर, कर्मफल, .... कर्तव्य पालन, आत्मा की गरिमा जैसे तथ्यों पर सघन श्रद्धा रखने वाले लोग ही महामानवों की पंक्ति में बैठ सकते है।

साधना में श्रद्धा की ही अपरिमेय शक्ति काम करती है। यदि विश्वास न हो तो उपासनात्मक कर्मकाण्डों का उतना ही फल मिलेगा जितना कि उतने समय तक किये गये हल्के-फुलके-शारीरिक परिश्रम का। उसी साधन को करते हुए एक व्यक्ति चमत्कारी फल प्राप्त करता है और दूसरे को असफल रहना पड़ता है। इसमें श्रद्धा की मात्रा में न्यूनाधिकता का होना ही प्रधान कारण होता है। नारद पुराण-पूर्व भाग प्रथम पाद 4/1 में कहा गया है “श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान-सन्तुष्ट होते है”।

सामान्य लोक व्यवहार में भी दृढ़ता श्रद्धा-विश्वास के आधार पर ही आती है। आत्म-विश्वास के बल पर ही कोई बड़े कदम उठा सकना संभव होता है। शौर्य और साहस आत्मविश्वास से ही जन्म लेते है। जश्न और उत्साह के मूल में आत्मविश्वास ही काम करता है परिवार में एक दूसरे को स्वजन, घनिष्ट एवं आत्मीय होने की मान्यता ही उन्हें पारस्परिक स्नेह-सहयोग के सुदृढ़ सूत्रों में बाँधे रहती है। यह मात्र श्रद्धा ही है। जिसके आधार पर परिवारों में स्नेह-दुलार का अमृत बरसता है और एक दूसरे के लिए बढ़े-चढ़े त्याग करने को तत्पर रहता है। श्रद्धा की कड़ी टूट जाय तो फिर परिवारों का विघटन सुनिश्चित है। वे तनिक−सी बातों पर अन्तःकलह के अखाड़े बनेंगे और देखते-देखते बिखर कर अस्त व्यस्त हो जायेंगे।

श्रद्धा और विश्वास के बिना भौतिक जीवन में भी गति नहीं, फिर अध्यात्म क्षेत्र का तो उसे प्राण ही कहा गया है। आदर्शवादिता में प्रत्यक्षतः हानि ही रहती है, पर उच्चस्तरीय मान्यताओं में आस्था रखने के कारण ही मनुष्य त्याग-बलिदान का कष्ट सहन करने के लिये खुशी-खुशी तैयार होता है।

बौद्धग्रन्थ-सुत्तनिपात/1/4/2 में श्रद्धा को बीज एवं तप-त्याग को वर्षा माना गया है और कहा गया हे कि-”सद्य तरती ओधं” (सुत्तनिपात 1/10/4) अर्थात् इसी के बल पर मनुष्य संसार-सागर को पार कर जाता है।” आस्था का प्रामाणिकता से घनिष्ट संबंध है। वह प्रामाणिकता व्यक्तित्व ही लोक-आस्था को दृढ़ एवं दीर्घजीवी बना सकते है। आधुनिक युग में महात्मा गाँधी इसके प्रत्यक्ष एवं प्रबल प्रमाण माने जा सकते है। उन्होंने स्वयं अपनी आस्था को हर श्वास में ज्वलन्त जीवन्त रखा तदनुरूप आचरण की साधना की। कभी क्षण भर को गाँधी जी इस आस्था से विचलित नहीं हुए कि वही एक सार्वभौम सत्ता है और वही परम यथार्थ है। इस आस्था ने आत्मशक्ति के उस चमत्कार को जन्म दिया, जिसके सामने सहस्त्रों अणुबमों की शक्ति भी तुच्छ है। गाँधी जी कहा करते थे कि जिसमें श्रद्धा है, उसकी बुद्धि तेजस्वी रहती है। श्रद्धावान मनुष्य पहाड़ों को भी लाँघ सकता है। “ उनके अनुसार श्रद्धा ही जीवन का सूर्य है। श्रद्धावान को कोई परास्त नहीं कर सकता, जबकि बुद्धिमान को सदैव पराजय का भय बना रहता है”।

समर्थ गुरु रामदास ने समाज में जिस आस्था को जन्म दिया, वह शिवाजी के उत्कर्ष का आधार बनी। सन्त पुरुष वहीं कहे जाते है जिन में यह आस्था प्रखर होती है। सुप्रसिद्ध मनीषी विलियम जेम्स ने “द वेरायटीज आफ रिलीजियस एक्सपीरेन्स” नामक पुस्तक में लिखा है कि विश्वकल्याण हेतु वे सद्गुण नितांत आवश्यक हैं जिन्हें संत अपनी अटूट आस्था के बल से अर्जित करते है। श्रद्धा के आधार पर ही महानता अर्जित की जाती है।

वस्तुतः आस्थाएँ ही प्रेरणा भरती है, गति देती है। बढ़ने के लिए गति और सोचने के लिए प्रकाश प्रस्तुत करती है। उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ सकना आस्थाओं की उपस्थिति के बिना हो ही नहीं सकता। निष्ठा से संकल्प उठता है और संकल्प से साहस और पराक्रम उभरकर आता है। तन्मयता और तत्परता इसी अन्तःस्थिति में किसी प्रयास से नियोजित होती है और मन एवं कर्म का ऐसा स्तर बन पड़ने पर ही महत्वपूर्ण प्रगति संभव होती है। बुद्धि की अपनी उपयोगिता होते हुए भी श्रद्धा की शक्ति असीम है। इसी के आधार पर आदर्शों एवं मर्यादाओं का पालन संभव हो पाता है। प्रख्यात योरोपीय इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने कहा है कि प्रतिभाशाली महापुरुषों के जीवन में यह विशेषताएँ प्रधान रूप से होती है। इसी के आधार पर वे लोक-प्रचलित प्रवाह, .... व्यवहार से अपने को पूरी तरह काट लेते है, लेकिन लोकहित उनका सदैव ध्येय बना रहता है और इस रूप में वे समाज से सदा जुड़े रहते है। इसका कारण क्या है? समाधान देते हुए प्रसिद्ध मनीषी डब्ल्यू0 डी0 स्टेस ने “रिलीजन एण्ड द माडर्न माइण्ड” नामक अपनी पुस्तक में कहा है कि-ईसा तथा बुद्ध जैसे नैतिक प्रतिभा-सम्पन्न महापुरुषों ने यह पाया कि मनुष्य सुखी नहीं हो सकता, जब तक उसके चारों ओर सब सुखी नहीं है क्योंकि व्यक्ति समष्टि का एक अंग है, मानवता से अभिपूरित है। मानव का जाति के सुख में ही उसका सुख है। यह इन महापुरुषों की खोज थीं इसी का उन्होंने मान्यता दी और जीवन पर्यन्त दृढ़ता के साथ उसी पर आरुढ रहे। उत्कृष्टता के प्रति दृढ़ आस्था ने ही उन्हें महानता के उच्च शिखर पर पहुँचाया। धार्मिकता, नैतिकता-आदर्शवादिता के प्रति श्रद्धा एवं आस्था का अभाव मनुष्य को ठूँठ व खोखला बना देता है। उसके जीवन का लक्ष्य मात्र पशुवत् पेट एवं प्रजनन के सुखों तक ही सीमित रह जाता है।

बौद्धिकता की चरम सीमा तक विकास कर लेने पर भी आत्म-निष्ठा विहीन ऐसे व्यक्तियों को यंत्रवत् जीवन जीते एवं अन्धी यश लिप्सा, क्षुद्र भोग लिप्सा और मिथ्याचार में अपादमरतक सने देखा जाता है। प्रतीत होता है कि इससे प्रभावित होकर ही मूर्धन्य विद्वान कार्ल .... ने अपनी पुस्तक “मैन इन द माडर्न एज” में लिखा है कि आज कारखाने का एक श्रमिक या किसी बड़े संस्थान का एक कर्मचारी मशीन का वह पुर्जा बन कर रह गया है जिसके अपने विशिष्ट .... का कोई भी .... जिसे कभी भी वैसे ही दूसरे पुर्जे सेअ?बदला जा सकता है। इस विचार दर्शन से लोक जीवन में आस्थाहीनता की स्थिति उत्पन्न होती है। स्वयं की अपने ऊपर आस्था का न होना आत्मपलायन है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति बाह् एवं अन्तःक्षेत्रों में परावलंबी एवं परमुखापेक्षी बन जाता है। आत्म-विश्वास बना रहे तो ही साहस एवं उत्साह जीवित रह सकता है अतः वैयक्तिक प्रगति एवं सामाजिक समृद्धि के लिए उच्चस्तरीय उद्देश्यों के प्रति-उत्कृष्टता के प्रति आस्था-प्रखर निष्ठा का होना अनिवार्य है।

आत्म विश्वास-आत्म निष्ठा मनुष्य जीवन की अत्यन्त उच्चस्तरीय विभूतियों में से एक है। उसके सहारे मनुष्य आदर्शों के प्रति अपनी श्रद्धा को सुदृढ़ बनाये रह सकता है। प्रलोभन और भय उसे विचलित नहीं कर पाते। ऐसी दशा में व्यक्तित्व के विकास में आने वाले अन्य सभी अवरोध घटते मिटते है। उनके कारण उनका मार्ग रुका नहीं रहता। श्रद्धा की शक्ति को मानवी गरिमा का उत्कृष्ट अलंकार कहा जाना चाहिए। मनुष्य का व्यक्तित्व जिसमें संस्कारों का आदतों का गहरा पुट रहता है, वस्तुतः श्रद्धा की परिपक्वता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। व्यक्तित्व की श्रेष्ठता-निकृष्टता का आधार यही है। श्रद्धा की गरिमा व्यक्त करते हु गीताकार ने कहा है श्रद्धाममोण्यं पुरुषों यो यच्छ्रद्धः स एवं सः अर्थात् “ व्यक्ति श्रद्धामय हैं जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसी ही बन जाता है” नारद पुराण-(पूर्व भाग, प्रथम पाद 4/6) के अनुसार “श्रद्धा से ही कामनाओं की पूर्ति होती है। तथा श्रद्धालु पुरुष ही मोक्ष पाता है”। इसका तात्पर्य यह है कि बुराइयों के प्रति श्रद्धा व्यक्ति को रामरचाओं में कैद कर देती है तो आदर्शों के प्रति आस्था मनुष्य जीवन को सुख-शान्ति और प्रसन्नता से भर देती है। संत इमर्सन भी कहते थे कि श्रद्धा से बढ़कर कोई शक्ति नहीं। विश्वास से बढ़कर कोई और साधन नहीं “फार्म्स आफ गाडर्न फ्रिक्शन” नामक पुस्तक क लेखक .... मनीषी डब्ल्यू बी0 कोनार लिखते है कि-युग की विशेष प्रेरणायें प्रायः श्रद्धावान भाव विभोर अंतःकरणों से ही फूटती है। इसका आश्रय लेकर ही व्यक्ति अपने दिव्य “.... “ को प्रकट करता है और वातावरण को दिव्यता से भर देता है। आत्मिक प्रगति का सर्वोपरि आधार श्रद्धा ही है। बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्द प्रश्न 2/1/8 के अनुसार-मन में प्रसन्नता और बड़ी आकाँक्षा पैदाकर देना ही श्रद्धा की पहचान है।

निश्चय ही श्रद्धा मानव जीवन को सर्वोपरि सामर्थ्य के रूप में समझी जा सकती है। व्यक्तित्व का निर्धारण इसी से होता है। श्रद्धा से अनेक क्रिया-कलापों का सूत्र संचालन और उन्हें सफलता के उच्चस्तर तक पहुँचा सकना संभव होता है। आत्मा का सबसे विश्वस्त और सबसे घनिष्ट सचिव श्रद्धा ही है। उसी के सहारे आत्मिक प्रगति से लेकर सिद्धि चमत्कार के वरदान पाने और आत्म साक्षात्कार से लेकर ईश्वर दर्शन तक के समस्त दिव्य उपहार प्राप्त होते है। साधना की सिद्धि श्रद्धा की प्रगाढ़ स्थिति में ही संभव है। श्रद्धा चाहे वह गुरु के प्रति हो, महामानवों के प्रति अथवा निराकार परब्रह्म की सत्ता के प्रति, हर स्थिति में मानव जीवन का सम्बल है, प्रगति पथ का षाधेय है एवं .... का मूलभूत आधार है।


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