जीवन साधना के दो विशिष्ट पर्व

April 1989

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मोटर के पहियों में भरी हवा धीरे धीरे कम होने लगती है। उसमें थोड़े समय के बाद नई हवा भरनी पड़ती है। रेल में कोयला पानी चुकता है तो दुबारा भरना पड़ता है। पेट खाली होता है तो नई खुराक लेनी पड़ती है। जीवन का एक-सा ढर्रा नीरस बन जाता है, तब उसमें नई स्फूर्ति संचारित करने के लिए नया प्रयास करना पड़ता है। पर्व त्यौहार इसीलिए बने हैं कि एक नया उत्साह उभरे और उस आधार पर मिली स्फूर्ति से आगे का क्रिया-कलाप अधिक अच्छी तरह चले। रविवार की छुट्टी मनाने के पीछे भी नई ताजगी प्राप्त करना और अगले सप्ताह काम आने के लिए नई शक्ति अर्जित करना है। संस्थाओं के विशेष समारोह भी इसी दृष्टि से किये जाते हैं कि उस परिकर में आयी सुस्ती का निराकरण किया जा सके। प्रकृति भी ऐसा ही करती रहती है। घनघोर पुरुषार्थ की कमाई इन दो आरम्भों को भी मनुष्य सदा स्मरण रखता है। उनमें उत्साह-वर्धक नवीनता है।

जीवन साधना के दो विशेष पर्व हैं-एक साप्ताहिक, दूसरा अर्द्ध-वार्षिक। साप्ताहिक आमतौर से लोग रविवार, गुरुवार को रखते हैं। पर परिस्थितियों के कारण यदि कोई अन्य दिन सुविधाजनक पड़ता है तो उसे भी अपनाया जा सकता है। अर्द्धवार्षिक में आश्विन और चैत्र की दो नवरात्रियाँ आती हैं। इनमें साधना नौ दिन की करनी पड़ती है। इन दो पर्वों की विशेष उपासना को भी अपने निर्धारण में सम्मिलित रखने से बीच में जो अनुत्साह की गिरावट आने लगती है, उसका निराकरण होता रहता है। इनके आधार पर जो विशेष शक्ति उपार्जित होती है उससे शिथिलता आने का अवसाद निबटता रहता है।

साप्ताहिक विशेष साधना में चार विशेष नियम विधान अपनाने पड़ते हैं। यह हैं (1)उपवास (2) ब्रह्मचर्य (3) प्राणसंचय (4) मौन। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनके लिए मात्र संयम ही अपनाना पड़ता है। दो के लिए कुछ कृत्य विशेष करने पड़ते हैं। जिव्हा और जननेन्द्रिय यही दो दसों इंद्रियों में प्रबल हैं। इन्हें साधने से इन्द्रियसंयम सध जाता है। यह प्रथम चरण पूरा हुआ तो समझना चाहिए कि अगले चरण मनोनिग्रह में कुछ विशेष कठिनाई न रह जायगी।

जिव्हा का असंयम अतिमात्रा में अभक्ष्य भक्षण के लिए उकसाता है। कटु असत्य, अनर्गल और असत्-भाषण भी उसी के द्वारा बन पड़ता है। इसलिए एक ही जिव्हा को रसना और वाणी इन दो इन्द्रियों के नाम से जाना जाता है। जिव्हा की साधना के लिए अस्वाद का व्रत लेना पड़ता है। नमक, मसाले, शक्कर, खटाई आदि के स्वाद जिव्हा को चटोरा बनाते हैं। तल-भुने तेज मसाले वाले, मीठे पदार्थों में जो चित्र-विचित्र स्वाद मिलते हैं उनके लिए जीभ ललचाती रहती है। इस आधार पर अभक्ष्य ही रुचिकर लगता है। ललक में अधिक मात्रा उदरस्थ कर ली जाती है, फलतः पेट खराब रहने लगता है। सड़न से रक्त विषैला होता है और दूषित रक्त अनेकानेक बीमारियों का निमित्त कारण बनता है। इस प्रकार जिव्हा की विकृतियाँ जहाँ सुनने वालों को पतन के-विक्षोभ के गर्त में धकेलती हैं, वहाँ अपनी स्वार्थता पर भी कुठाराघात करती हैं। इन दोनों विपत्तियों से बचाने में जिव्हा का संयम एक तप साधना का प्रयोजन पूरा करता है। नित्य न बन पड़े तो सप्ताह में एक दिन तो जिव्हा को विश्राम देना ही चाहिए, ताकि वह अपने उपरोक्त दुर्गुणों से उबरने का प्रयत्न कर सके।

उपवास पेट का साप्ताहिक विश्राम है। इससे छः दिन की विसंगतियों का संतुलन बन जाता है और आगे के लिए सही मार्ग अपनाने का अवसर मिलता है। जल लेकर उपवास न पड़े तो शाकों का रस या फलों का रस लिया जा सकता है। दूध, छाछ पर भी रहा जा सकता है। इतना भी न बन पड़े तो एक समय का निराहार तो करना चाहिए। मौन पूरे दिन का न सही किसी उचित समय दो घण्टे का तो कर ही लेना चाहिए। इस चिन्ह पूजा से भी दोनों प्रयोजनों का उद्देश्य स्मरण बना रहता है और भविष्य में नि मर्यादाओं का पालन किया जाता है उस पर ध्यान केन्द्रित बना रहता है। साप्ताहिक विशेष साधना में जिव्हा पर नियन्त्रण स्थापित करना प्रथम चरण है।

द्वितीय आधार है-ब्रह्मचर्य। नियत दिन शारीरिक ब्रह्मचर्य तो पालन करना ही चाहिए। यौनाचार से तो दूर ही रहना चाहिए, साथ ही मानसिक ब्रह्मचर्य अपनाने के लिए यह आवश्यक है कि कुदृष्टि का, अश्लील कल्पनाओं का निराकरण किया जाय। नर नारी को देवी के रूप में और नारी नर को देवता के रूप में देखे तथा श्रद्धा भरे भाव मन पर जमायें। भाई-बहिन, पिता-पुत्री, संतान की दृष्टि से ही दोनों पक्ष एक दूसरे के लिए पवित्र भावनायें उगायें। यहाँ तक कि पति-पत्नी भी एक दूसरे के प्रति अधाँग की उच्चस्तरीय आत्मीयता सँजोयें। अश्लीलता को अनाचार का एक अंग मानें और उस प्रकार के दुश्चिन्तन को पास न फटकने दें। सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य तभी सधता है जब शरीर संयम के साथ-साथ मानसिक श्रद्धा का भी समन्वय रखा जाय। इससे मनोबल बढ़ता है और कामुकता के साथ जुड़ने वाली अनेकानेक दुर्भावनाओं से सहज छुटकारा मिलता है। सप्ताह में हर दिन इस लक्ष्य पर भावनायें केन्द्रित रखी जायँ तो उसका प्रभाव भी अगले छः दिनों तक बना रहेगा।

तीसरा साप्ताहिक अभ्यास है- प्राणसंचय। एकान्त में नेत्र बंद करके अन्तर्मुखी होना चाहिए और ध्यान करना चाहिए कि समस्त विश्व में प्रचंड प्राणचेतना भरी हुई है। आमंत्रित आकर्षित करने पर वह किसी को भी प्रचुर परिमाण में कभी भी उपलब्ध हो सकती है। इसकी विधि प्राणायाम है। प्राणायाम के अनेक विधि-विधान हैं। पर उनमें से सर्वसुलभ यह है कि मेरुदंड को सीधा रखकर बैठा जाय। आंखें बंद रहें। दोनों हाथ दोनों घुटनों पर। शरीर को स्थिर और मन को शान्त रखा जाय।

साँस खींचते समय भावना की जाय कि विश्वव्यापी प्राण चेतना खिंचती हुई नासिका मार्ग से सम्पूर्ण शरीर में प्रवेश कर रही है। उसे जीवकोष पूरी तरह अपने में धारण कर रहे हैं। प्राण प्रखरता से अपना शरीर, मन और अन्तःकरण ओत-प्रोत हो रहा है। साँस खींचने के समय इन्हीं भावनाओं को परिपक्व करते रहा जाय। साँस छोड़ते समय यह विचार किया जाय कि शारीरिक और मानसिक क्षेत्रों में घुसे हुए विकार सांस के साथ बाहर निकल रहे हैं और उनके वापस लौटने का द्वार बन्द हो रहा है। इस बहिष्करण के साथ अनुभव होना चाहिए कि भरे हुए अवाँछनीय तत्व हट रहे हैं और समूचा व्यक्तित्व हल्कापन अनुभव कर रहा है। प्रखरता और प्रामाणिकता की स्थिति बन रही है।

चौथा साप्ताहिक अभ्यास-मौन वाणी की साधना है। मौन दा घंटे से कम का नहीं होना चाहिए। मौन काल में प्राणसंचय की साधना साथ-साथ चलती रह सकती है। इस निर्धारित कृत्य के अतिरिक्त दैनिक साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा के चारों उपक्रमों में से जो जितना बन सके उसके लिए उतना करने का प्रयास करना चाहिए। सेवा कार्या के लिए प्रत्यक्ष अवसर सामने ने हो तो इसके बदले आर्थिक अंशदान की दैनिक प्रतिज्ञा के अतिरिक्त कुछ अधिक अनुदान बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह राशि सद्ज्ञान संवर्धन के-ज्ञानयज्ञ के निमित्त लगनी चाहिए। पीड़ितों की सहायता के लिए हर अवसर पर कुछ न कुछ करते रहना सामान्य क्रम में भी सम्मिलित रखना चाहिए।


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